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गांधी की हत्या में RSS की क्या भूमिका थी?

इस सवाल पर दशकों से सिर धुना जा रहा है, गांधीजी की डेथ एनिवर्सरी पर जानिए कुछ इनसाइट्स.

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ये आज भी बहस का विषय है कि गांधी की हत्या में संघ की भूमिका थी कि नहीं.
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30 जनवरी 2021 (Updated: 30 जनवरी 2021, 05:55 IST)
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नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी को गोली मार दी थी. उसपर मुकदमा चला और उसे फांसी की दे दी गई. लेकिन नाथूराम की मौत के साथ गांधी की हत्या से जुड़ा रहस्य खत्म नहीं हुआ. आज तक इस बात पर बहस होती है कि गांधी को मारने की योजना नाथूराम और उसके साथियों ने आपस में बनाई थी या फिर इसमें कोई बड़ा संगठन शामिल था.
नाथूराम 1932 के साल में महाराष्ट्र के सांगली में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शामिल हुआ था. कुछ लोगों का मत है कि गांधी की हत्या में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हाथ था. लेकिन संघ ये कहता रहा है कि गांधी जी की हत्या की योजना बनाने से पहले ही नाथुराम संघ छोड़ चुका था. गांधी की हत्या में संंघ का हाथ था कि नहीं, ये आज भी बहस का विषय है.
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सितंबर 2016 में गोपाल गोडसे (नाथूराम गोडसे के भाई, गांधी की हत्या में इनपर भी मुकदमा चला था) के पड़पोते सात्यकि ने एक बयान देकर कहा कि नाथूराम गोडसे ने कभी संघ नहीं छोड़ा था. न ही संघ ने उससे कभी किनारा किया था. इसका मतलब ये हुआ कि गांधी जी की हत्या के वक्त नाथूराम संघ का सदस्य था. सात्यकि का बयान एक ऐसे समय में आया था जब राहुल गांधी महात्मा गांधी हत्या मामले में दिए एक बयान के चलते मुकदमे में फंसे थे. मानहानि यानी डिफेमेशन.
15 नवंबर, 1949 को नाथूराम को फांसी पर चढ़ाया गया था. आज हम सात्यकि के बयान के बहाने इस बात की पड़ताल करेंगे कि गांधी जी की हत्या में संघ की भूमिका थी कि नहीं. मूल लेख सितंबर 2016 में लिखा गया था. हमने इसे नवंबर 2017 में संपादित किया है.

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'हमारे परिवार ने नाथूराम गोडसे और गोपाल गोडसे के सारे लेख संभाल कर रखे हुए हैं. जिनसे साफ पता चलता है कि नाथूराम RSS से सीधे जुड़े हुए थे. पर RSS उनके जितना रेडिकल नहीं था जिससे उनका RSS से मोहभंग हो रहा था.'

2014 के इलेक्शन कैंपेन के दौरान राहुल बोले थे, 'RSS ने महात्मा गांधी को मारा था और अब उन्हें गांधी याद आ रहे हैं.' इसके बाद उनके खिलाफ मानहानी का एक मुकदमा दर्ज हुआ था. सिंतबर 2016 में 'इकोनॉमिक टाइम्स' से बात करते हुए नाथूराम गोडसे और वीर सावरकर के दूर के पड़पोते सात्यकी सावरकर ने कहा, सात्यकी गोडसे इस बात से नाराज़ हैं कि संघ ने गोडसे से किनारा कर लिया
सात्यकी गोडसे इस बात से नाराज़ हैं कि संघ ने गोडसे से किनारा कर लिया


सात्यकी एक सॉफ्टवेयर कंपनी में काम करते हैं. सात्यकी हिंदू महासभा को फिर से इस्टेब्लिश करना चाहते हैं. कहते हैं, हिंदू महासभा सावरकर की विचारधारा पर बनी थी. सात्यकी ने कहा,
'नाथूराम ने सांगली में 1932 में RSS ज्वाइन की थी. और वो अपनी मौत तक RSS के दिमागी लोगों में शामिल रहे. न ही उनको कभी संगठन से निकाला गया, न ही कभी उन्होंने खुद ऑर्गेनाइजेशन छोड़ा. मैं RSS की इस बात से बहुत नाराज हूं कि आज वो इस तथ्य को मानने से मना करता है. मैं जानता हूं RSS गांधी जी की हत्या को सपोर्ट नहीं करता, पर वो फैक्ट से नहीं भाग सकता. नाथूराम ने हैदराबाद के निजाम के खिलाफ हिंदू महासभा के बैनर तले विरोध किया था. RSS के बहुते से स्वयंसेवक भी इसमें शामिल थे. इसमें वो जेल भी गए थे.'
नाथुराम के भाई ने भी यही कहा था
1993 में गोडसे के भाई गोपाल की किताब आई थी. उसमें लिखा था: 'हम दोनों भाई आरएसएस के एक्टिव मेम्बर रहे थे. हमेशा. मैं, नाथूराम, दत्तात्रेय, गोविन्द सब. मतलब इतना कि घर के बजाय हम लोग आरएसएस में ही बड़े हुए. वो हमारा परिवार था. नाथूराम आरएसएस का 'बौद्धिक कार्यवाह' था. गांधी की हत्या के बाद गोलवलकर और आरएसएस एकदम परेशानी में थे. इसीलिए नाथूराम ने कभी कुछ नहीं बताया. पर हमने आरएसएस छोड़ा नहीं था. हां, आप ये कह सकते हैं कि आरएसएस ने ये ऑर्डर नहीं निकला था कि जाओ गांधी को मार दो. पर हम संघ से बाहर नहीं थे.'
गांधी की हत्या के मुकदमे के आरोपी. सबसो आगे की पंक्ति के आखिर में बाएं) नज़र आ रहा है गोडसे
गांधी की हत्या के मुकदमे के आरोपी. सबसो आगे की पंक्ति के आखिर में (बाएं) नज़र आ रहा है गोडसे


संघ से बाहर हुआ था गोडसे?
नाथूराम गोडसे और उस वक्त के सरसंघचालक एसएस गोलवलकर के बीच रिलेशन खराब हो गए थे. दरअसल बाबूराव सावरकर की किताब 'राष्ट्र मीमांसा' के अंग्रेजी ट्रांसलेशन का क्रेडिट गोलवलकर ने ले लिया था. जबकि ट्रांसलेशन गोडसे ने किया था. इसके बाद 1942 में दशहरे के दिन नाथूराम ने खुद अपना एक संगठन बनाया. नाम रखा 'हिंदू राष्ट्र दल.' 1946 में पार्टिशन के इश्यू पर नाथूराम की हिंदू महासभा से भी खटपट हो गई और नाथूराम ने वहां से भी रिजाइन कर दिया. पर यही एक संगठन था जो गांधी जी के हत्या के मुकदमे के वक्त नाथूराम के साथ था.
1948 में गांधी के मर्डर से पहले नाथूराम ने RSS छोड़ दिया था, इस बात पर RSS पूरी तरह टिकी हुई है. एक सीनियर RSS लीडर कह चुके हैं कि नाथूराम भले ही पहले RSS से जुड़ा रहा हो पर हत्या के वक्त वो RSS का हिस्सा नहीं था. इस बात के पूरे सबूत हैं कि RSS का विचारधारा को लेकर नाथूराम ने बहुत विरोध किया था. हालांकि RSS से निकाले जाने का कोई प्रॉसेस नहीं है. फिर भी कुछ लोगों का कहना है कि जब तक कोई संघ की गुरुदक्षिणा देता रहता है तब तक वो RSS में बना रहता है जब बंद कर देता है तो वो बाहर माना जाता है. सात्यकि ने बताया,
'वो भी बचपन में शाखा में जाते थे, चचेरे भाइयों के साथ. मैं मानता हूं RSS सेवा और संस्कृति का ऑर्गेनाइजेशन है. अब इसने सावरकर के असली सपने हिंदुओं के लिए राजनीतिक हक की लड़ाई लड़नी बंद कर दी है. सावरकर का हिंदुत्व RSS के हिंदुत्व से अलग था.'
जब तिलक के पोते के बयान ने सब बदल दिया
गांधी जी की हत्या के बाद जांच शुरू हुई बड़े लेवल पर. उसके बाद मुक़दमा चला. कई लोगों पर. इनमें विनायक सावरकर का नाम भी था. कई लोगों की गवाही हुई. पर सावरकर के बॉडीगार्ड और सेक्रेटरी की गवाही नहीं हुई. सावरकर को दोषी नहीं पाया गया. यही माना गया कि नाथूराम गोडसे और उसके साथी ही इस अपराध के जिम्मेदार थे. गांधी की हत्या पर पूरे सबूत कोर्ट में नहीं गए थे! 17 साल बाद नया कमीशन बैठा. सावरकर पर गंभीर आरोप लगे. नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फांसी हुई. 6 लोगों को आजीवन कारावास.
 
गोडसे परिवार जेल से बाहर आने के बाद.
गोडसे परिवार जेल से बाहर आने के बाद.


1964 में वो लोग सजा काटकर बाहर आए. उस वक़्त बाल गंगाधर तिलक के नाती जी वी केटकर ने ऐलान किया: मुझे नाथूराम गोडसे के गांधी मर्डर प्लान के बारे में पता था. जनता एकदम अवाक रह गई. गांधी की हत्या में हमेशा किसी भी तरह के बड़े षड़यंत्र से इनकार किया जाता था. सरकार को तुरंत एक्शन लेना पड़ा. एक सांसद की अध्यक्षता में 'पाठक कमीशन' बनाया गया. पर वो मंत्री बन गए. तो 1966 में एक नया 'कपूर कमीशन' बनाया गया, सिर्फ एक आदमी को लेकर. जीवनलाल कपूर, जज जो सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुए थे.
“अगर मुझे किसी आदमी की गोली से मरना है तो मैं मुस्कुरा के मरूँगा. उस वक़्त ईश्वर का नाम मेरे दिल और जबान पर होंगे. और ऐसा कुछ होता है तो आप में से कोई एक आंसू भी नहीं गिराएगा.
- गांधीजी, जनवरी 28, 1948
3 साल तक कमीशन की जांच चली. 101 गवाहों के बयान लिए गए. 162 बैठकें हुईं. दिल्ली, बम्बई से लेकर चंडीगढ़, पुणे, नागपुर और बड़ौदा तक जांच हुई. सबसे पहली पूछ-ताछ केटकर से ही हुई. फिर गांधीजी की हत्या की जांच करनेवाले DCP नागरवाला और उस वक़्त के बॉम्बे एस्टेट के चीफ मिनिस्टर मोरारजी देसाई से. बाद में सावरकर के बॉडीगार्ड और सेक्रेटरी से भी. इन लोगों ने कहा: हां, गांधीजी की हत्या के दो दिन पहले 28 जनवरी, 1948 को नाथूराम गोडसे और आप्टे सावरकर के घर आये थे. वो पहले भी आते रहते थे. उस दिन सावरकर ने उनको 'यशस्वी हो के आने' का आशीर्वाद दिया था.
केस में सावरकर पर भी उंगलियां उठीं, लेकिन उन्हें दोषी साबित नहीं किया जा सका
केस में सावरकर पर भी उंगलियां उठीं, लेकिन उन्हें दोषी साबित नहीं किया जा सका


पूरी जांच के दौरान बहुत से ऐसे डाक्यूमेंट्स आये जो पहले की जांच में सबमिट ही नहीं किए गए थे. कमीशन ने ऐसी बहुत सारी गड़बड़ियों को उजागर किया. उस वक़्त के दिल्ली पुलिस के IG संजीवी के काम पर भी सवाल किए. अंत में जस्टिस कपूर ने अपनी रिपोर्ट में कहा:
"All these facts taken together were destructive of any theory other than the conspiracy to murder by Savarkar and his group."
गोडसे का बयान भी किसी बाहरी मदद का इशारा करता है
अगर आप ट्रायल के दौरान नाथूराम गोडसे की स्पीच सुनेंगे, तो आप पाएंगे कि उसका काम एक क्षण का पागलपन नहीं था. वो अपने काम के प्रति पूरी तरह आश्वस्त और डेडिकेटेड था. वो बहुत ही तार्किक ढंग से अपना पक्ष रखता है. वो कहता है कि अहिंसा वाले गांधीजी का 'अनशन' खुद के प्रति की गई हिंसा है. इसीलिए मैं उनकी अहिंसा वाली थ्योरी को नहीं मानता. मेरे अलावा ऐसे बहुत से लोग हैं जो गांधीजी की पॉलिटिक्स को पसंद नहीं करते पर वो लोग उनके सामने अपना सर झुका देते हैं. मुझे पता था कि जो मैं करने जा रहा हूं, उससे मैं बर्बाद हो जाऊंगा. इस काम के बदले में मुझे सिर्फ नफरत मिलेगी. पर ये भी होगा कि भारत की पॉलिटिक्स में गांधी नहीं रहेंगे. और ये देश के लिए अच्छा रहेगा.
यहीं पर लगता है कि इतनी डिटेल में सोचना एक अकेले व्यक्ति के लिए आसान नहीं है. एक बड़े नेता, राष्ट्रपिता, की हत्या करने के लिए किसी के पास कोई बहुत बड़ी वजह होनी चाहिए. किसी भी राजनीतिक हत्या में ये वजह दी जाती है. हत्यारों के दिमाग में ये वजह डाली जाती है. फिर पुरस्कार भी गिनाए जाते हैं. त्याग, राष्ट्रप्रेम, महानता और अमरता. जिसको ब्रेनवॉश कहा जाता है. क्योंकि ये तर्क सिर्फ हिंसा की तरफ ही ले जाते हैं.
 
नाथूराम गोडसे का भूत जो आरएसएस का पीछा नहीं छोड़ता
जब नेहरू आरएसएस को पूरी तरह ख़त्म करना चाहते थे, तब सरदार पटेल ने कहा था: "इनके गुनाह कम नहीं हैं पर गांधीजी की हत्या वाले में ये लोग दोषी नहीं हैं. इनके कुछ काम सही, कुछ गलत हैं. मैं इनको रास्ते पर लाऊंगा." सरदार पटेल ने आरएसएस से लिखित में लिया था कि वो मात्र एक सांस्कृतिक संगठन बन के रहेंगे. राजनीति में नहीं आएंगे. कोर्ट और कमीशन ने कहीं से आरएसएस को सीधे कटघरे में खड़ा नहीं किया गांधीजी की हत्या को लेकर. लेकिन आरएसएस के लिए गोडसे के भूत से पीछा छुड़ाना मुश्किल ही रहा.
 
संघ आज खुद को दुनिया का सबसे बड़ा एनजीओ कहता है
संघ आज खुद को दुनिया का सबसे बड़ा एनजीओ कहता है


लोग कहते हैं कि आरएसएस के इसी डर ने जनसंघ को जन्म दिया. सावरकर के शिष्य श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने गांधी की हत्या के बाद अपने ख़त्म होते जनाधार को बचाने के लिए नई पार्टी बनाई. वक़्त गुजरा. भाषा, देश-प्रेम, इमरजेंसी, मंडल, कमंडल और गठबंधन की यात्रा की भारतीय राजनीति ने. और एक समय का आरएसएस प्रचारक भारत का प्रधानमन्त्री बना. श्री नरेन्द्र मोदी. बहुमत से.
आरएसएस की बाइबिल कुछ और ही कहती है!
कांग्रेस इस बात को लेकर आरएसएस को हमेशा कटघरे में खड़ा करती रही है. कांग्रेस में मंत्री रहे अर्जुन सिंह ने कहा था: आरएसएस की एकमात्र उपलब्धि गांधीजी की हत्या है. इस बात के सपोर्ट में गांधीजी के अनुयायी प्यारेलाल की किताब Mahatma Gandhi: The Last Phase में दो घटनाओं का भी जिक्र होता है: 'उस दिन आरएसएस के सदस्यों को रेडियो ऑन रखने को कहा गया था. क्योंकि 'अच्छी खबर' आने वाली थी. गांधीजी की हत्या के बाद आरएसएस के सदस्यों ने मिठाइयाँ भी बांटीं थीं.'
संघ ने हमेशा से खुद को गांधी की हत्या से दूर रखने की कोशिश की है
संघ ने हमेशा से खुद को गांधी की हत्या से दूर रखने की कोशिश की है

बीजेपी हमेशा से कहती रही है कि आरएसएस का गांधीजी से कुछ मुद्दों पर मतभेद था पर संघ ने हमेशा गांधीजी को बहुत ऊंचे स्थान पर रखा है. पर आरएसएस की बाइबिल, गोलवलकर की लिखी Bunch Of Thoughts में गांधी और उनके नेतृत्व की कांग्रेस दोनों के प्रति जहर उगला गया है. उसमें हिन्दुओं की 1200 सालों की गुलामी का जिक्र है. इसके साथ ही गांधी की अहिंसा को नपुंसकता बताया गया है.
1961 में दीन दयाल उपाध्याय ने कहा था: गांधीजी की इज्जत करते हैं पर अब उनको राष्ट्रपिता कहना बंद कर देना चाहिए. लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है : 1933 में नाथूराम गोडसे ने आरएसएस से नाता तोड़ लिया था. और आरएसएस के खिलाफ हो गया था.
ये बात बिल्कुल क्लियर है कि नाथूराम गोडसे गांधीजी की हत्या में आरएसएस का आदमी बन के नहीं गया था. पर आइडियोलॉजी से वो आरएसएस का आदमी रह चुका था. इसमें भी संदेह नहीं है.

दी लल्लनटॉप के लिए ये लेख अविनाश ने लिखा था. 




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