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केडी जाधव ने कैसे चुकाया अपना घर गिरवी रखने वाले प्रिंसिपल और गांववालों का कर्ज़?

विजेता के पहले एपिसोड में पढ़ें केडी जाधव की कहानी.

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KD Jadhav Individual Olympics Medal जीतने वाले पहले भारतीय थे (गेटी फाइल)
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सूरज पांडेय
26 जुलाई 2021 (Updated: 23 जुलाई 2021, 02:51 PM IST)
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विजेता यानी जीतकर आने वाला. तीन अक्षरों वाले इस शब्द का महत्व पूरी दुनिया जानती है. जाने भी क्यों न, लोग विजेताओं को ही तो याद रखते हैं. और उन्हीं की गाथाएं लिखी जाती हैं. कहते तो ये भी हैं कि इतिहास भी जीतने वाले ही लिखते हैं. दी लल्लनटॉप की ओलंपिक्स स्पेशल सीरीज 'विजेता' में हम ऐसे ही जीतने वालों की बात करेंगे. भारत के वो एथलीट जो ओलंपिक्स गए और वहां से जीतकर ही लौटे. इस सीरीज में हम भारत के लिए व्यक्तिगत इवेंट्स में मेडल जीतने वाले दिग्गजों की चर्चा करेंगे. और ऐसी किसी भी चर्चा की शुरुआत शायद हर बार केडी जाधव से ही होगी. # कौन हैं KD Jadhav? आज़ादी के तुरंत बाद की बात है. महाराष्ट्र के कोल्हापुर स्थित राजा राम कॉलेज में सालाना खेलकूद महोत्सव चल रहे थे. और इसी दौरान 23 साल का एक युवा प्रिंसिपल ऑफिस में बवाल काटे पड़ा था. उसकी मांग थी कि इस महोत्सव के कुश्ती इवेंट में उसका भी नाम डाला जाए. इस मसले पर प्रिंसिपल का पहला रिएक्शन था- जाकर आयोजकों से मिलो. और फिर पता चला कि खेलकूद वाले गुरुजी इस युवा को ऑलरेडी बैरंग लौटा चुके हैं. इसके बाद प्रिंसिपल ने नज़र भर इस युवा को देखा, और उनकी समझ आ गया कि इसे क्यों लौटाया गया होगा. केडी जाधव यानी खशाबा दादासाहेब जाधव नाम के इस दुबले-पतले युवा की कुल हाइट पांच फुट और पांच इंच ही थी. जबकि दंगल में आए सारे पहलवान लंबे-चौड़े थे. ऐसे में कॉलेज वाले कोई रिस्क न लेते हुए केडी को वापस भेज रहे थे. लेकिन केडी अड़े रहे और अंततः प्रिंसिपल की सिफारिश पर केडी को दंगल में मौका मिल ही गया. और मौका मिलते ही केडी ने दिखा दिया कि उनको मना करने वाले कितने गलत थे. अपने से कहीं लंबे-चौड़े और मजबूत दिखते पहलवानों को पटकते हुए केडी ने यह इवेंट जीत लिया. हालांकि इस जीत से भी कुछ खास नहीं बदला. मारुति माने, गणपतराव अंदलकर और दादू चौगुले के आगे केडी अब भी गुमनाम ही थे. केडी अब भी सतारा जिले के गांव 'गोलेश्वर के छोटा पहलवान' ही थे. और उनकी ख्याति अभी सतारा और आसपास के कुछ जिलों तक ही थी. और इसे बढ़ाने के लिए केडी सामने आते तकरीबन हर खेल में हाथ आजमाने लगे. वेटलिफ्टिंग, स्विमिंग, रनिंग और हैमर थ्रो जैसे खेलों में तो उन्हें टक्कर देने वाले कम ही मिलते थे. हालांकि इन तमाम खेलों में से कुश्ती उनके दिल के सबसे क़रीब थी. इस बारे में उनके बचपन के दोस्त राजाराव देवडेकर ने रेडिफ डॉट कॉम से कहा था,
'वह कहीं पर भी होने वाला एक भी कुश्ती इवेंट नहीं छोड़ता था. वह हम सबको साथ लेकर जाता था कि हम उसे देखें और फिर मैच के बारे में एनालसिस और विचार-विमर्श किया जा सके.'
और केडी के लिए ऐसे ही इवेंट्स में से एक रहा राजा राम कॉलेज में हुआ कुश्ती कंपटीशन. लेकिन न केडी को और न ही उन्हें जानने वाले लोगों में से किसी को पता था कि यहां की जीत अपने साथ क्या ईनाम लेकर आएगी. केडी का कारनामा देख कोल्हापुर के महाराज बेहद खुश हुए. और उन्होंने केडी को 1948 के ओलंपिक्स में भेजने का फैसला किया. जानने लायक है कि ये वो दौर था जब टीमों या एथलीट्स को ओलंपिक्स जाने के लिए पैसों की व्यवस्था खुद करनी पड़ती थी. और कोल्हापुर के राजा की यह दरियादिली केडी के लिए बड़ी बात थी. राजा राम कॉलेज से पहले कई सारे मेडल्स जीत चुके केडी अब दुनिया के सबसे बड़े स्पोर्ट्स इवेंट के लिए तैयार थे. लेकिन उनकी तैयारी धरी की धरी ही रह गई क्योंकि जीवनभर मिट्टी में खेलते रहे केडी को यहां मैट पर खेलना था. हालांकि इसके बाद भी केडी ने 1948 के लंदन ओलंपिक्स में छठे नंबर पर फिनिश किया. # 1952 Olympics Bronze Medal लोग केडी की इस परफॉर्मेंस से खुश थे. लेकिन पॉकेट डायनामाइट के नाम से मशहूर हो चुके केडी को खुद पर बहुत गुस्सा आया. किसी भी कंपटीशन से खाली हाथ न लौटे केडी ने ये बात दिल पर ले ली. और पहले से कठिन प्रैक्टिस शुरू कर दी. इस बारे में उनके बचपन के दोस्त गणपति परसु जाधव ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा था,
'उसका स्टैमिना कमाल का था. वह हम लोगों में इकलौता था जो एक बार में 250-300 पुशअप और लगभग 1000 उठक-बैठक कर लेता था. हम एक साथ दिन में चार घंटे-चार घंटे की दो शिफ्ट में ट्रेनिंग करते थे.'
हालांकि उनकी ये कठिन मेहनत भी सेलेक्टर्स को नहीं दिखी. और 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक्स की पहली लिस्ट में केडी का नाम ही नहीं था. जबकि वह नेशनल फ्लाइवेट चैंपियन निरंजन दास को कुछ मिनटों के भीतर ही दो बार धूल चटा चुके थे. लखनऊ के इन मुकाबलों के बाद भी बात ना बनने पर केडी ने पटियाला के महाराज को चिट्ठी लिखी. और चिट्ठी काम भी आई. दोनों पहलवानों के बीच तीसरी फाइट तय हो गई. और इस बार भी रिजल्ट वही रहा. केडी ने कुछ ही मिनटों में दास को पटखनी देकर ओलंपिक्स का टिकट हासिल कर लिया. लेकिन संघर्ष तो अब शुरू हुआ था. केडी को अब उस फील्ड में लड़ना था जहां उनकी कला का कोई मतलब नहीं था. दरअसल केडी को हेलसिंकी 1952 का टिकट तो मिल गया लेकिन जेब अब भी खाली थी. इस बार केडी के पास कोई फंड करने वाला ही नहीं था. लेकिन ढाक दांव (गर्दन से पकड़कर जमीन पर पटक देना) के मास्टर केडी ने हार मानना तो सीखा ही नहीं था. 27 साल के केडी ने गांव के लोगों से उधार मांगा. और सबने खुले दिल से उनकी मदद भी की. इस मदद का बड़ा हिस्सा रहा उनके पुराने प्रिंसिपल का. प्रिंसिपल ने अपना घर गिरवी रखकर उन्हें 7000 रुपये दिए. इतने लोगों की उम्मीदें लेकर हेलसिंकी पहुंचे केडी ने यहां तमाम दिग्गजों को हराया. पहले राउंड में कनाडा और दूसरे में मैक्सिको के पहलवानों को हराने वाले केडी ने तीसरे राउंड में जर्मन पहलवान को हराया. चौथे राउंड में उन्हें बाई मिली और पांचवें राउंड में वह सोवियत यूनियन के रेसलर राशिद से हार गए. और इस हार के तुरंत बाद उन्हें जापान के शोहाची इशी से भिड़ना पड़ा. लगातार फाइट से थके केडी यहां हार गए. और इस हार के चलते उन्हें ब्रॉन्ज़ मेडल से ही संतोष करना पड़ा. यह आज़ाद भारत का पहला व्यक्तिगत ओलंपिक्स मेडल था. और बताते हैं कि इस जीत के बाद जब वह लौटे तो रेलवे स्टेशन से उनके घर तक के सफर में 100 से ज्यादा बैलगाड़ियां और हजारों लोग मौजूद थे. भीड़ का आलम ये था कि 15 मिनट का रास्ता उस रोज सात घंटे में तय हुआ. # बाद में क्या हुआ? ओलंपिक्स से लौटने के बाद केडी ने अपनी मदद करने वालों के पैसा लौटाने शुरू किए. जगह-जगह कुश्ती के मुकाबले आयोजित कर और फिर उन्हें जीतकर केडी लोगों के पैसे लौटाते. कुछ साल बाद, 1955 में उन्हें महाराष्ट्र पुलिस में सब-इंस्पेक्टर की नौकरी मिल गई. पुलिस की नौकरी के साथ केडी की कुश्ती भी जारी रही. लेकिन घुटने की गंभीर चोट के चलते वह 1956 के मेलबर्न ओलंपिक्स में नहीं खेल पाए. हालांकि इसके बाद भी वह यका-कदा पुलिस गेम्स में खेलते रहे. उन्होंने कई पुलिसवालों को ट्रेनिंग भी दी. केडी साल 1983 में असिस्टेंट कमिश्नर की पोस्ट से रिटायर हुए. और अगले ही साल एक मोटरसाइकिल एक्सिडेंट में उनकी मृत्यु हो गई. कुश्ती के लिए अपना जीवन खर्चने वाले केडी को साल 2001 में अर्जुन अवॉर्ड दिया गया. इसके बाद साल 2010 के कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान दिल्ली के इंदिरा गांधी स्टेडियम की रेसलिंग रिंग को केडी जाधव स्टेडियम का नाम दिया गया. कुश्ती से उनके प्यार के बारे में केडी के बेटे राजीव ने एक बार इंडियन एक्सप्रेस से कहा था,
'वह कहते थे कि वह एक रेसलर के रूप में ही दोबारा पैदा होना चाहेंगे. इस खेल ने उन्हें जिंदगी के सबसे बेहतरीन पल दिए थे.'

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