एक कविता रोज़: 'दिल्ली में रोशनी, शेष भारत में अंधियाला है'
समय के साथ क्या बदला है हिन्दुस्तान में और क्या बदलने को बचा ही रह गया है. दिनकर की ये कविता बताती है.
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फोटो - thelallantop
हरिवंश राय बच्चन ने 'दिनकर' के बारे में कहा था कि इन्हें एक नहीं बल्कि गद्य, पद्य, भाषा और हिंदी-सेवा के लिए अलग-अलग चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने चाहिए. वो दिनकर जिन्होंने हिंदी की कई विधाओं में झंडे गाड़े. जोश भर देने वाली रचनाओं के मालिक रहे हैं रामधारी सिंह दिनकर. 23 सितंबर 1908 में बिहार के बेगुसराय जिले के सिमरिया घाट में पैदा हुए. हिंदी के साथ संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू भी पढ़ डाली. लड़ाकू कवि टाइप रहे. उनकी कविता में एक तरफ क्रान्ति दिखती है दूसरी तरफ मुलायमियत. आज जन्मदिन है. पढ़िए उनकी कविता. ये कविता आज भी आईना दिखाती है क्योंकि दिल्ली में तो रोशनी है लेकिन बाकी देश में अंधेरा ही है. कौन जानना चाहता है कि मिजोरम की गलियों में क्या हो रहा है, किसे पता है उड़ीसा के किसी गांव में बच्चों को कौर मिल रहा है या नहीं.
ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो, किसने कहा, युद्ध की वेला चली गई, शांति से बोलो? किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से, भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से? कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊं किसको कोमल गान? तड़प रहा आंखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान. फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरने वाले! ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले! सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है, दिल्ली में रोशनी, शेष भारत में अंधियाला है. मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार, ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार. वह संसार जहां तक पहुंची अब तक नहीं किरण है जहां क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है देख जहां का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है मां को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है पूज रहा है जहां चकित हो जन-जन देख अकाज सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहां स्वराज? अटका कहां स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है? तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है? सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में? उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुंचाना होगा धारा के मग में अनेक जो पर्वत खड़े हुए हैं गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाएंगे समर शेष है, जनगंगा को खुलकर लहराने दो शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो पथरीली ऊंची जमीन है? तो उसको तोड़ेंगे समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल विचरें अभय देश में गांधी और जवाहर लाल तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना सावधान हो खडी देश भर में गांधी की सेना बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बांधो रे समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध.
ये कविता 'दी लल्लनटॉप' ने कविता कोश से ली है.

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