The Lallantop
Advertisement
  • Home
  • Sports
  • Ek Kavita Roz: Main Chamaron ki gali tak le chalunga aapko by Adam Gondvi

एक कविता रोज़: चमारों की गली से ज़िंदगी का ताप

शायद आप महसूस कर पाएं कि किसान के सुसाइड या लड़की से रेप की खबरों में उनकी दलित आइडेंटिटी की क्या भूमिका होती है.

Advertisement
Img The Lallantop
फोटो - thelallantop
pic
कुलदीप
14 अप्रैल 2016 (Updated: 6 मई 2016, 11:04 AM IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
एक शब्द है सिंहावलोकन. यानी सिंह की तरह अवलोकन. शेर की चाल देखी है? चलता है तो कुछ दूरी के बाद पीछे मुड़कर देखता है. बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर की जयंती हमारे लिए पीछे मुड़कर देखने का शानदार मौका है. देखिए, एक बेहतर और सभ्य समाज बनने की प्रक्रिया में हम कहां से शुरू हुए थे और अब कहां तक पहुंचे हैं. इसी क्रम में अदम गोंडवी की यह कविता आज पढ़ी जाए. यह चमारों की गली से ज़िंदगी के ताप का बयान है. शायद आप महसूस कर पाएं कि किसान के सुसाइड या लड़की से रेप की खबरों में उनकी दलित आइडेंटिटी की क्या भूमिका होती है. कड़वा सच है सर, पचाना मुश्किल होगा.

मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको

अदम गोंडवी

मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर मर गई फुलिया बिचारी कि कुएं में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेखबर कृष्ना बेख़बर राहों में थी मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

चीख निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हंस रही थी मौज में होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पांव मोड़ेंगे नहीं कच्चा खा जाएंगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुंह काला करें

बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर

क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया कल तलक जो पांव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहां पड़ गया है सीप का मोती गंवारों के यहां

जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ फिर कोई बांहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की गांव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया हाथ मूंछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था हां, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था

रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुरज़ोर था भोर होते ही वहां का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने – 'जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने'

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया सुन पड़ा फिर 'माल वो चोरी का तूने क्या किया'

'कैसी चोरी, माल कैसा' उसने जैसे ही कहा एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा

होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर–

'मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुंह में थूक दो आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूंक दो'

और फिर प्रतिशोध की आंधी वहां चलने लगी बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुंहा बच्चा व बुड्ढा जो वहां खेड़े में था वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे

'कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएं नहीं हुक्म जब तक मैं न दूं कोई कहीं जाए नहीं'

यह दरोगा जी थे मुंह से शब्द झरते फूल से आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

फिर दहाड़े, 'इनको डंडों से सुधारा जाएगा ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा'

इक सिपाही ने कहा, 'साइकिल किधर को मोड़ दें होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें'

बोला थानेदार, 'मुर्गे की तरह मत बांग दो होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो

ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है'

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल 'कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल'

उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को

मैं निमंत्रण दे रहा हूं- आएं मेरे गांव में तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छांव में

गांव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही या अहिंसा की जहां पर नथ उतारी जा रही

हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !

Advertisement