एक कविता रोज: मेरा गुरुद्वारा आज भी मेरे साथ रहता है
आज पढ़िए आज़म क़ादरी की कविता गुरुद्वारा.
कोंच, जिला जालौन से आने वाले आज़म क़ादरी टीवी में कंटेंट डिजायनर के तौर पर काम कर रहे हैं. इन्होंने जामिया से मास कम्युनिकेशन की पढ़ाई की, थिएटर किया , फिर अपना थियेटर ग्रुप 'अंतराल'' बनाया जो अब तक दिल्ली में सक्रिय है. फिल्म डायरेक्शन में कदम रखने के बाद 'रॉकस्टार 'फिल्म में काम किया . ये FM के लिए भी कंटेंट लिखते रहे हैं.
गुरुद्वारा
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उस दिन तेरे एल्बम से
तेरी एक तस्वीर चुरा लाया था
मेरा गुरुद्वारा मेरे साथ चला आया था
पर्स के एक कोने में
छिपा लिया था तुमको,
कुछ लेने-देने के बहाने
तुम चुपचाप से दिख जाती
और में उतनी बार मुस्कुराता
मन्नत मांगता और तुम शर्माती थी,
फिर एक दिन तुम पर्स से निकल कर,
मेरे साथ-साथ चलने लगी थी
मुझे लगा कि तुमने भी,
अपने पर्स में कोई मस्जिद बना ली होगी
मैं खुश था की चलो
मेरा कोई सजदा तो कबूल हुआ,
लेकिन वो सजदा मेरा नहीं तुम्हारा था.
ना जाने कब तुमने आपनी फोटो
मेरे पर्स से निकाल ली
और बिन बताये किसी और की फोटो
रख ली अपने पर्स में,
मैं वहीं खड़ा रहा हैरान सा, परेशान सा,
तुम बहुत दूर निकल गयी, चुपचाप.
कई बरस गुज़र गए.
यूं ही, वक़्त का पीछा करते
मैं तुम्हें देखता रहा
कोई पीर की दरगाह जैसे!
आज भी देख कर पर्स के कोने को,
मुस्कुराता हूं, मन्नत मांगता हूं
या रब,
जब कोई हीर ना हो तो
रांझे भी ना पैदा करना.
बस ये अहसास ही साथ रहता है,
मेरा गुरुद्वारा आज भी मेरे साथ रहता है.