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नए साथियों के साथ, हम कितने घर जैसे थे ना !

एक कविता रोज़ में आज पढ़िए प्रदीप अवस्थी की 'बदहवास समय की कविताएं'

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13 जून 2016 (Updated: 13 जून 2016, 12:48 PM IST) कॉमेंट्स
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प्रदीप अवस्थी मुंबई में रहते हैं. फिल्मों वाले हैं. लिखते हैं. फिल्मों में जीते हैं. ये कविताएं उनकी हैं. एक कविता रोज़ में पढ़िए. बदहवास समय की कविताएं.
1 एक दूसरे को पाल-पोस कर बड़ा करने वाले प्रेमी छूट जाया करते हैं जहां हो मुझसे ही होकर तो गुज़री हो वहां तक जहां हूं तुमने ही तो उंगली पकड़कर पहुंचाया है अब जी लेते हैं उन बच्चों की तरह जो सयाने होकर निकल पड़ते हैं घरों से या घरों से निकलकर हो जाते हैं सयाने फिर सीखते हैं जीना नए साथियों के साथ हम कितने घर जैसे थे ना !
2 वे भी दिन होंगे जब सिर्फ़ प्याज़ काटने से आएंगे आंसू थाम सकेंगे पानी को आंखों में चलते रास्तों पर अलमारी में छुपाई तस्वीरें देखकर हड़बड़ाएंगे नहीं और खुलते रहस्य की तरह तुम्हें भूलते जाएंगे याद रखेंगे बस प्यार ।
3 उन दिनों के बाद आंसुओं ने छोड़ दिया होगा तुम्हारा साथ मैं ले आया था सारे सब मेरे होने से थे तुम्हारे पास किस्तों में चुकाता हूं कर्ज़
4 और उन आख़िरी दिनों की याद में, मैंने कहा लड़ो सच के लिए, हारो मत, वो लड़ी सच के लिए हारी नहीं, मैं उसका सच नहीं था
5 उनको थोड़ी सी देर तक थोड़ा सा और हंस लेने दो ना थोड़ा सा तो उड़ लेने दो साथ कि फिर तो गिरना ही है यह बहुत दुखदायी होगा कि बच्चों से छीनी जाएगी मां बच्चियों से छीने जाएंगे पिता मैंने ऐसे ही देखा है देख पाया हूं प्रेमियों को
रसोई से आती सीटी की आवाज़ से अचानक घबराकर उठते किसी नन्हें-से बच्चे को देखा है ? वह दृश्य, और उसकी आंखें, बारह बजे या दो बजे या चार बजे रात में, टूटती नींद और गूंजती आवाज़ में बस ऐसे ही ढूंढा है तुम्हें इतना ही पाया है तुम्हें एक दिन तुम सब भूल जाओगी यह भी कि कुछ दिन आये थे तुम्हारे जीवन में और रह गए हैं यहां मेरे पास
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