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घृणा को पारदर्शी पत्‍तों में लपेटकर ठूंठे वृक्ष की नंगी टहनियों पर टांग दिया है

एक कविता रोज़ में आज पढ़िए ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता 'सदियों का संताप'

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25 जून 2016 (Updated: 25 जून 2016, 12:59 PM IST) कॉमेंट्स
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सदियों का संताप

दोस्‍तो !

बिता दिए हमने हज़ारों वर्षइस इंतज़ार मेंकि भयानक त्रासदी का युगअधबनी इमारत के मलबे मेंदबा दिया जाएगा किसी दिनज़हरीले पंजों समेत.

फिर हम सबएक जगह खड़े होकरहथेलियों पर उतार सकेंगेएक-एक सूर्यजो हमारी रक्‍त-शिराओं मेंहज़ारों परमाणु-क्षमताओं की ऊर्जासमाहित करकेधरती को अभिशाप से मुक्‍त कराएगा .

इसीलिए, हमने अपनी समूची घृणा कोपारदर्शी पत्‍तों में लपेटकरठूंठे वृक्ष की नंगी टहनियों परटांग दिया हैताकि आने वाले समय मेंताज़े लहू से महकती सड़कों परनंगे पांव दौड़तेसख़्त चेहरों वाले सांवले बच्‍चेदेख सकेंकर सकें प्‍यारदुश्‍मनों के बच्‍चों मेंअतीत की गहनतम पीड़ा को भूलकर.

हमने अपनी उंगलियों के किनारों परदुःस्‍वप्‍न की आंच कोअसंख्‍य बार सहा हैताजा चुभी फांस की तरहऔर अपने ही घरों मेंसंकीर्ण पतली गलियों मेंकुनमुनाती गंदगी सेटखनों तक सने पांव मेंसुना हैदहाड़ती आवाज़ों कोकिसी चीख़ की मानिंदजो हमारे हृदय सेमस्तिष्‍क तक का सफ़र तय करने मेंथक कर सो गई है.

दोस्‍तो !इस चीख़ को जगाकर पूछोकि अभी और कितने दिनइसी तरह गुमसुम रहकरसदियों का संताप सहना है !


साभार- कविता कोष कल आपने पढी थी 'आज की रात मैं लिख सकता हूं अपने सबसे उदास गीत' आप भी कविताएं लिखते हैं? हमको भेज दीजिए lallantopmail@gmail.com पर.  और हां, और कविताएं पढ़ने के लिए नीचे बने ‘एक कविता रोज़’ टैग पर क्लिक करिए.

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