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एक कविता रोज: 'जब यार ने उठा कर ज़ुल्फ़ों के बाल बांधे'

'तब मैंने अपने दिल में लाखों ख़याल बांधे'

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प्रतीक्षा पीपी
27 जून 2016 (Updated: 27 जून 2016, 08:55 AM IST) कॉमेंट्स
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आज पढ़िए 18वीं सदी की दिल्ली के शायर मिर्ज़ा मोहम्मद रफ़ी सौदा की एक ग़ज़ल.
जब यार ने उठा कर ज़ुल्फ़ों के बाल बाँधेतब मैंने अपने दिल में लाखों ख़याल बाँधेदो दिन में हम तो रीझे ऐ वाए हाल उन कागुज़रे हैं जिन के दिल को याँ माह ओ साल बाँधेतार-ए-निगाह में उस के क्यूँकर फँसे न ये दिलआँखों ने जिस के लाखों वहशी ग़ज़ाल बाँधेजो कुछ रंग उस का सो है नज़र में अपनीगो जामा ज़र्द पहने या चेरा लाल बाँधेतेरे ही सामने कुछ बहके है मेरा नालावरना निशाने हम ने मारे हैं बाल बाँधेबोसे की तो है ख़्वाहिश पर कहिए क्यूँके उस सेजिस का मिज़ाज लब पर हर्फ़-ए-सवाल बाँधेमारोगे किस को जी से किस पर कमर कसी हैफिरते हो क्यूँ प्यारे तलवार ढाल बाँधेदो-चार शेर आगे उस के पढ़े तो बोलामज़मूँ ये तू ने अपने क्या हस्ब-ए-हाल बाँधे‘सौदा’ जो उन ने बाँधा ज़ुल्फों में दिल सज़ा हैशेरों में उस के तू ने क्यूँ ख़त्त-ओ-ख़ाल बाँधे ***
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