फैशन करने वाले जिन लड़कियों को हमेशा 'बुरा' बताया गया, उनसे छोटे शहर की लड़की ने ये बात सीख ली
"मुझे 18 की उम्र तक नहीं मालूम था कि घुटनों के ऊपर लड़कियां वैक्सिंग करवाती हैं."
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रिश्ते और शहर वही अच्छे होते हैं जो आपको बेहतर होते जाने के लिए जगह और मौके, दोनों देते रहें. Delhi ने उस लड़की को ये दोनों चीजें दीं. (फोटो: ट्विटर से)
स्कूल में हमने अच्छी लड़कियों की परिभाषा सीखी थी. वो फैशन-कपड़ों में ज्यादा दिमाग नहीं लगातीं. बाल स्ट्रेट तो बिलकुल नहीं करातीं. यहां आकर देखा तो ऐसा नहीं था. अपने सबजेक्ट में टॉप करने वाली लड़कियां हर तरह के कपड़े, हेयर स्टाइल और मेकअप कैरी कर रही थीं और इस बात को लेकर किसी चीज का हल्ला नहीं था. फैशन ज्यादा 'पैसे वाले' परिवारों से आने वाली लड़कियों के 'बिगड़ने' का साधन होता है, ऐसा तो बिलकुल भी नहीं था.
यूं ही नहीं शादी वाले इश्तेहारों में लोग कॉन्वेंट से पढ़ी हुई दुल्हनें चाहते हैं. वजह सिर्फ अंग्रेजी बोलने वाली लड़की मिले, ही नहीं है. वजह ये भी है कि कॉन्वेंट अनुशासन के नाम पर लड़कियों के दिमाग में वही सब भर रहा होता है जो किसी भी मिडिल क्लास परिवार के लिए बेटियों को पालने का आदर्श फ़ॉर्मूला होता है. 11-12 साल की उम्र के बाद कहीं से ये बात लीक न हो जाए कि इस दुपट्टे के भीतर एक लड़की है.
मैंने कॉलेज और यूनिवर्सिटी में बहुत कुछ सीखा. मगर जीवन की सबसे ज़रूरी चीजें मुझे मेरी ही उम्र की लड़कियों ने सिखाईं. मैं अगर कहूं कि मैंने घर से दूर रहकर 'लड़की' होना सीखा तो ये पॉलिटिकली इनकरेक्ट होगा. लड़का या लड़की होने को हम कोई परिभाषा कैसे दे सकते हैं. मगर मेरा सच यही है कि मैंने बहुत सी ऐसी चीजें जानीं जिन्होंने मुझे ताकतवर महसूस करवाया. भले ही ये ताकत छद्म किस्म की हो, बाजारवाद का रचा झूठ हो. पार्किंग के लिए गाली-गलौज कर रहे और हॉर्न देने पर गाड़ी से निकलकर दूसरों पर हाथ छोड़ देने वाले पौरुष से भरी दिल्ली इसलिए मेरे लिए हमेशा स्त्री ही रही.

दिल्ली विश्वविद्यालय का लेडी श्रीराम कॉलेज फॉर विमेन. एकेडेमिक्स के क्षेत्र में इस कॉलेज की गिनती देश के शीर्ष कॉलेजों में होती है. स्त्री सशक्तिकरण के क्षेत्र में भी इस कॉलेज ने नए प्रतिमान गढ़े हैं. (फोटो: कॉलेज की वेबसाइट)
मुझे 18 की उम्र तक नहीं मालूम था कि घुटनों के ऊपर लड़कियां वैक्सिंग करवाती हैं और ये बेहद आम बात है. सेकंड इयर में मैंने पहली बार हील वाले फुटवियर पहने. जो किसी और के थे. दिल्ली ने मुझे ये एहसास दिया कि कहीं भी जाया जा सकता है. एक बस है जो दूसरी बस तक ले जाती है, दूसरी बस किसी ट्रेन तक, ट्रेन किसी दूसरे शहर. ये भी सिखाया कि कहीं भी जाने के लिए किसी दूसरे व्यक्ति की ज़रूरत नहीं होती. आप किसी रेस्तरां में जाकर अकेले एक अच्छी मील ऑर्डर कर सकती हैं, आप चांदनी चौक जाकर अकेले ही जलेबियों का जायका ले सकती हैं, आप सुबह-सुबह अकेले इंडिया गेट के सामने की घास पर लेट सकती हैं. आपको किसी के होने के आश्वासन की ज़रुरत नहीं है. और प्रेम को सिर्फ प्रेम के लिए किया जा सकता है. इसलिए नहीं कि आपने समय पर किसी का साथ नहीं चुना तो आप जीवन भर अकेली रह जाएंगी.
उस लड़की के बाल खुले थे, बाल बांधने वाला रबर बैंड कलाई में बंधा हुआ था. उसने एक पर्स टांगा था जिसमें सुनहरे रंग की चेन लगी थी. उसका टॉप स्लीवलेस था, उसमें सभी रंग थे इन्द्रधनुष की तरह. मैंने उसे एंट्रेंस एग्जाम के लिए सेंटर में घुसते हुए पीछे से देखा था. मेरी नज़र उसकी टांगों पर गई थी और मैंने अगले ही सेकंड अपनी नज़रें हटाकर शर्मिंदा महसूस किया था. किसी को देखना अच्छी बात नहीं होती, इसलिए. या शायद अपनी चूड़ीदार को देखकर.
छह महीनों में सबकुछ बदल गया था और बहुत मुमकिन है कि अगले बैच में हॉस्टल में आने वाली किसी फ्रेशर ने मेरी टांगें देखकर भी वैसा ही महसूस किया हो. मैंने वो सबकुछ होना छोड़ दिया था जो मैं थी और इस बात का मुझे आज भी गर्व है. यकीन मानिए, 'मिट्टी से जुड़ाव' और 'गांव को वापस लौट जाने' वाले बिंब लड़कों को ही सूट करते हैं. मुझे नहीं करते. मेरे लिए मेरे शहर या गांव में कुछ नहीं रखा. ये अपनी पैदाइश के शहर के लिए नफरत नहीं है. नफरत होती तो वो शहर बार-बार याद न आता. बार-बार उसके सपने न आते. लेकिन अंततः प्रेम ही सबकुछ नहीं होता. रिश्ते और शहर वही अच्छे होते हैं जो आपको बेहतर होते जाने के लिए जगह और मौके, दोनों देते रहें.