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वो प्रधानमंत्री, जो गांधी का चेला था और नेहरू का प्रतिद्वंदी

जिन्हें लगता था नेहरू को असल 'गांव' के बारे में कुछ अता-पता नहीं है.

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पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने राजनीति में अपनी अलग लाइन खींची और वो इसके लिए हमेशा याद किए जाएंगे.
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29 मई 2021 (Updated: 3 जून 2021, 13:24 IST)
Updated: 3 जून 2021 13:24 IST
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अनुराग अनंत
अनुराग अनंत

ये आर्टिकल हमारे दोस्त अनुराग अनंत ने लिखा है. इसमें अनुराग ने चरण सिंह की राजनीति पर चर्चा के साथ ही उन पर लगते आरोपों के जवाब दिए हैं. 




चौधरी चरण सिंह को याद करना चाहें तो कैसे याद करें?


भारत के पांचवें प्रधानमंत्री के रूप में?

या उस प्रधानमंत्री के रूप में जिसने लाल किले से तो भाषण दिया पर संसद में नहीं बोल सका?

या 1857 ग़दर में शहीद हुए वल्लभगढ़ के राजा नाहर सिंह के वंशज के रूप में, जिनके बाप-दादा हरियाणा से बुलंदशहर, बुलंदशहर से मेरठ और मेरठ से गाजियाबाद विस्थापित होते रहे?

या उस बच्चे के रूप में जिसका बचपन विपन्नता में बीता और जो गांवों की पगडंडियों से नंगे पांव चलते हुए सत्ता की सर्वोच्च सीधी चढ़ गया?

या कृषिप्रधान देश के पहले और अब तक के एकमात्र किसान नेता के रूप में जिसने शिक्षा से सत्ता और सत्ता से परिवर्तन का समीकरण साध लिया था?

या फिर उस राजनेता के रूप में जिसने किसानों को राजनीतिक पहचान दी?

या फिर गांधी के उस चेले के रूप में जिसकी नेहरू से कभी नहीं पटी पर जिसने नेहरू के रहते कांग्रेस नहीं छोड़ी? या इन सबसे अलग एक चतुर राजनेता के रूप में जिसे राजनीति में कदम रखते ही ‘क्यों करना है’ का उत्तर तो स्पष्ट था और वो सारा जीवन बस क्या, कैसे, कब, और कहां करना है निर्धारित करता रहा?

चौधरी चरण सिंह एक हैं पर उनके रूप अनेक हैं. उनके व्यक्तित्व की न जाने कितनी तहें हैं, कितनी परतें हैं. हर तह में नये चरण सिंह हैं. अपनी पूर्ण पहचान और परिभाषा के साथ.


नीलम संजीव रेड्डी के साथ चौधरी चरण सिंह.
नीलम संजीव रेड्डी के साथ चौधरी चरण सिंह.

चौधरी चरण सिंह के साथ किसान मसीहा, उत्तर प्रदेश का पहला दलितों-पिछड़ों का नेता, कृषक आंबेडकर, दलित-पिछड़ा उद्धारक जैसे न जाने कितने विशेषण लगाये जाते हैं. और साथ ही अवसरवादी, व्यक्तिकेंद्रिता, सांप्रदायिक और समझौतावादी होने की तोहमतें भी लगाईं जातीं हैं. पर चौधरी चरण सिंह इन विशेषणों और तोहमतों के इतर एक राजनीतिक परिघटना के रूप में आजाद भारत के राजनीतिक इतिहास में अपनी नियत जगह सुनिश्चित करते हैं. एक अध्याय के रूप में इतिहास में दर्ज होते हुए दिखते हैं. चौधरी चरण सिंह के साथ ये विडम्बना है कि उनका व्यक्तित्व जितना उलझा हुआ था, उसकी उतनी ही सतही और सरल रेखीय व्याख्या की जाती है. इस तरह अक्सर हम चौधरी चरण सिंह की व्याख्या और मूल्यांकन करने में उनके साथ अन्याय कर बैठते हैं.

चौधरी चरण सिंह के जन्म, मृत्यु, माता, पिता, पत्नी, बच्चों और कथित उपलब्धियों की कहानी आपको इन्टरनेट पर यहां वहां बिखरी हुई मिल जाएंगी. इसमें मेरी दिलचस्पी नहीं हैं. मेरी दिलचस्पी उस परिस्थिति और प्रक्रिया में है, जिसने चौधरी चरण सिंह को चौधरी चरण सिंह बनाया.

किसान के बेटे से बैरिस्टर तक

चौधरी चरण सिंह ने अपने जीवन के 26 सालों तक सक्रिय राजनीति में हिस्सा नहीं लिया. उन्होंने 1928 तक अपनी शिक्षा पूरी की और भारतीय राजनीति के स्वभाव, व्यवहार और संरचना को समझा. 1928 में वो किसान के बेटे से बैरिस्टर हो जाते हैं. इससे पहले 1923 में बीएससी, 1925 में एमए करते हैं. विज्ञान, इतिहास, साहित्य और कानून की अच्छी समझ पैदा करते हैं और फिर 1928 में गाज़ियाबाद में राजनीति और वकालत एक साथ शुरू करते हैं. चौधरी चरण सिंह ने ये महसूस किया था कि कांग्रेस में अशिक्षित लोग समर्थक की भूमिका में हैं और नेतृत्व की पहली शर्त उच्च शिक्षा है. इसलिए उन्होंने शिक्षा पर पूरा जोर दिया और समय आने पर इसी शिक्षा के बल पर वो सत्ता का सही इस्तेमाल कर पाए. 


चरण सिंह की किसानों पर तगड़ी पकड़ थी.
चरण सिंह की किसानों पर तगड़ी पकड़ थी.

वो 1937 की अंतरिम सरकार में उत्तर प्रदेश में विधायक बनते हैं और सरकार में रहते हुए 1939 में कर्जा माफ़ी विधेयक पास करवा कर किसानों के खेतों की नीलामी रुकवाते हैं. 1939 में ही किसानों के टैक्स को बढ़ाने और बेदखली से मुक्ति दिलाने के लिए जमीन उपयोग का बिल तैयार करते हैं. 1940 में उत्तर प्रदेश और ख़ासतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दंगों को रोकने में अहम भूमिका निभाते हैं. बाद में 1940 में ही व्यक्तिगत सत्याग्रह की शुरुआत होती और 1942 आते-आते भारत छोड़ो आन्दोलन शुरू हो जाता है. तो अपने राजनीतिक जीवन के शुरुआत में दो चीजें चौधरी चरण सिंह ने समझ ली थीं. पहली शिक्षा से सकारात्मक बदलाव की राजनीति और दूसरी उपलब्ध न्यूनतम समय और स्पेस में अधिकतम बदलाव की कोशिश करना.

गांधी के चेले, नेहरू के प्रतिद्वंदी

चौधरी चरण सिंह भीतर बहुत भीतर खुद को सरदार पटेल जैसा कुछ समझते थे. इसका कारण खुद को कुशल प्रशासक मानना और कृषक समुदाय का नेता होना था. चौधरी चरण सिंह खुद को नेहरू से किसी मायने में कम नहीं मानते थे. हालांकि उन्हें इस बात एहसास था कि नेहरू के साथ जनता है और सत्ता भी. और चौधरी चरण सिंह के व्यक्तित्व में जो पहली चीज थी, वो थी सत्ता में रहकर सकारात्मक परिवर्तन की कोशिश करना. वो कांग्रेस में बने रहे और नेहरू का सीमित और संभव विरोध करते रहे. वो आजादी के बाद से ही, पहले दबी जुबान में फिर खुलकर नेहरू की अंग्रेजियत और सोवियत समाजवाद के अन्धानुकरण का विरोध करते रहे. वो कहते थे. देश का ये दुर्भाग्य है कि आजादी के बाद देश की बागडोर उनके हाथ में गई जो अंग्रेजी बोलने वाले विदेशों से पढ़े लोग हैं. इन्हें गांव, गरीब और किसान के बारे में कुछ नहीं मालूम. ये असल भारत नहीं जानते हैं. चौधरी चरण सिंह को कहीं न कहीं लगता था कि नेहरू गांधी का रटाया वाक्य “असल भारत गांव में बसता है” तो दोहराते रहते हैं. पर उन्हें गांव और असल भारत के बारे में कुछ नहीं मालूम. नेहरू ने जब देश में सहकारी खेती लानी चाही तो चौधरी चरण सिंह ने पुरजोर विरोध किया और नेहरू चरण सिंह के किसान कद को जानते थे, इसलिए चरण सिंह के विरोध के चलते उन्होंने सहकारी खेती को प्रोत्साहन का इरादा टाल दिया.


परिवार के साथ चौधरी चरण सिंह.
परिवार के साथ चौधरी चरण सिंह.

सीमित और संभव साधन में अधिकतम सकारात्मक करने की कोशिश वाले नेता 

चौधरी चरण सिंह आजादी के पहले और बाद दोनों ही स्थिति में उत्तर प्रदेश सरकार में महत्वपूर्ण पद पर रहे. 1946, 1952, 1962 एवं 1967 में विधानसभा में अपने निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया. 1946 में पंडित गोविंद बल्लभ पंत की सरकार में संसदीय सचिव बने और राजस्व, चिकित्सा एवं लोक स्वास्थ्य, न्याय, सूचना इत्यादि विभिन्न विभागों में कार्य किया. जून 1951 में उन्हें राज्य के कैबिनेट मंत्री के रूप में नियुक्त किया गया एवं न्याय तथा सूचना विभागों का प्रभार दिया गया. बाद में 1952 में वे डॉ. सम्पूर्णानन्द के मंत्रिमंडल में राजस्व एवं कृषि मंत्री बने. अप्रैल 1959 में जब उन्होंने पद से इस्तीफा दिया, उस समय उन्होंने राजस्व एवं परिवहन विभाग का प्रभार संभाला हुआ था. चन्द्र भानु गुप्ता की सरकार में वे गृह एवं कृषि मंत्री (1960) थे. सुचेता कृपलानी के मंत्रालय में वे कृषि एवं वन मंत्री (1962-63) रहे. उन्होंने 1965 में कृषि विभाग छोड़ दिया एवं 1966 में स्थानीय स्वशासन विभाग का प्रभार संभाल लिया. इस दौरान उन्होंने 1952 में ही जमींदारी प्रथा उन्मूलन विधेयक पारित करवाया, जिससे जमींदारी का अंत हुआ और गरीब किसान को बड़ी रहत मिली. उन्होंने 1954 में उत्तर प्रदेश भूमि संरक्षण कानून पारित करवाया. लेखपाल का पद सृजित करके, ग्राम समाज की परती भूमि की नाप करवाई और भूमि को गरीब किसानों को पट्टा किया. इसके आलावा वन संरक्षण, खाद्यान वितरण, कालाबाजारी, गैर कानूनी भण्डारण और खाद्यान वितरण प्रणाली के खेत्र में भी महत्वपूर्ण और प्रभावी कदम उठाए.

हाशिये के लोगों के नेता थे, हाशिये के नेता नहीं 

चौधरी चरण सिंह हाशिये के लोगों की राजनीति करते थे, हाशिये की राजनीति नहीं. पंडित नेहरू की मृत्यु के बाद भी जब वो कांग्रेस में ऊपर नहीं उठ पा रहे थे तो कांग्रेस अध्यक्ष के. कामराज और इंदिरा गांधी द्वारा नज़रअंदाज किये जाने से वो खुद को हाशिये पर महसूस करने लगे थे. चंद्रभानु गुप्ता से उनके सम्बन्ध और ज्यादा कटु हो रहे थे. हाशिये पर धकेले जाने से वो और मुखर हो उठे थे. चरण सिंह ने राज्य के किसान पर डाली गई अतिरिक्त कर वृद्धि का पुरजोर विरोध किया और कांग्रेस में रहते हुए भी सरकार के खिलाफ एक मेमोरेंडम तैयार किया. इसमें उन्होंने किसानों के समर्थन में उधोगों में बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश का बड़ा ही तार्किक विरोध किया. जिसके बाद चौधरी चरण सिंह और केंद्रीय नेतृत्व में भी अनबन की स्तिथि बन गयी. दरअसल चौधरी चरण सिंह यही चाहते थे. उन्हें नई राजनीतिक जमीन तलाशने का ये समय मुफीद लग रहा था. नेहरू का देहावसान हो चुका था. चीन युद्ध में हारने के साथ ही नेहरू का समाजवादी मॉडल भी हार गया था.


चौधरी चरण सिंह यूपी के सीएम भी रहे.
चौधरी चरण सिंह यूपी के सीएम भी रहे.

देश सठोत्तरी दौर में था और सियासतसाहित्य और समाज तीनों में नेहरू के समाजवाद के प्रति मोहभंग पनपने लगा था. चौधरी चरण सिंह ने मामले को और तूल दिया और कांग्रेस में ब्राह्मण-बनिया-ठाकुर गठजोड़ का इल्जाम लगा दिया. साथ ही पुलिस भर्ती में ओबीसी उम्मीदवारों को उम्र में छूट का पेंच फंसा दिया. इसी बीच धीरे से 1967 में पार्टी तोड़ दी और भारतीय क्रांति दल नाम की नई पार्टी बना ली. कांग्रेस के भी 16 विधायक आ गए. और इस तरह चौधरी चरण सिंह ने 1967 में उत्तर प्रदेश में पहली गैर कांग्रेसी सरकार जनसंघ, कम्युनिस्ट पार्टी और समाजवादियों के साथ मिलकर बना ली. मुख्यमंत्री बनते ही चौधरी चरण सिंह ने एक क्रान्तिकारी फैसला लिया. खाद से सेल्स टैक्स हटा लिया. सीलिंग से मिली जमीन बांटनी शुरू की पर तब तक अपने अंतर्विरोधों और स्वार्थों के टकराव के चलते सरकार गिर गई. बाद में वो एक बार फिर 1969 में प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. उसके बाद 1974 में लोकदल पार्टी बनाई और आपातकाल के बाद जनता पार्टी में शामिल हो गए. इस तरह 1967 से 1977 आते-आते चौधरी चरण सिंह राज्य की राजनीति के हाशिये से केंद्र (दिल्ली) की मुख्यधारा की राजनीति में आ गए थे.


भारत के 5वें प्रधानमंत्री बने थे चौधरी चरण सिंह.
भारत के 5वें प्रधानमंत्री बने थे चौधरी चरण सिंह.

सांप्रदायिक और अवसरवादी होने की तोहमत

चौधरी चरण सिंह पर ये आरोप या तोहमत अक्सर लगाए जाते हैं कि वो अवसरवादी थे. उन्होंने देश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार गिरा दी. उन पर सांप्रदायिक होने का भी आरोप लगता है. गिनाया जाता है कि उत्तर प्रदेश में उन्होंने जनसंघियों की मदद से सरकार बना ली थी. स्वतंत्र पार्टी जैसी प्रतिक्रियावादी पार्टी का अपनी पार्टी में विलय कर लिया. तो मुझे लगता है ये बात चौधरी चरण सिंह के कॉन्टेक्स्ट को समझे बिना एक सतही दृष्टिकोण से उपजी हुई समझ है. क्योंकि वो दौर ही ऐसा था जब कांग्रेसी वर्चस्व ने देश की राजनीति को जड़ कर दिया था और देश राजनीति में कुछ नया प्रचंड प्रयोग की मांग कर रहा था. पहले लोहिया जी समाजवादियों को धैर्य का पाठ पढ़ाते थे, मगर 1963 में जनसंघ से हाथ मिलाते हैं. और गांधी का चेला होने के बावजूद उन लोगों से राजनीतिक गलबहियां करते हैं, जिनके सर कभी गांधी की मौत का इल्जाम लगाया जाता था. तो एक तरह से चरण सिंह से पहले लोहिया को सांप्रदायिक कहना पड़ेगा, जो अपने आप में उतना ही गलत होगा जितना चौधरी चरण सिंह को सांप्रदायिक कहना. बाद में गांधीजी के दूसरे बड़े चेले जयप्रकाश नारायण ने भी जनसंघ से न सिर्फ हाथ मिलाया, बल्कि कंधे से कंधा मिलाकर इंदिरा के खिलाफ आन्दोलन किया. अपनी देखरेख में जनता पार्टी बनवाई और गांधी की समाधी पर सभी को एकता की शपथ दिलाई. जयप्रकाश ने भी इस तरह तो सांप्रदायिकता को स्वीकार कर लिया और उसे मान्यता दे दी. दरअसल ये दौर ही ऐसा था जब गैर-कांग्रेसवाद की छतरी तले राईट-लेफ्ट और सेंटर का फर्क गर्क हो गया था. 1967 की उत्तर प्रदेश की चरण सिंह सरकार में जनसंघ भी थी और कम्युनिस्ट पार्टियां भी थीं. तो अब इसे क्या कहेंगे.

दूसरा आरोप लगता है अवसरवादी होने का तो चरण सिंह जानते थे कि ये राजनीतिक परिघटना स्थाई नहीं है. उनका अपना अनुभव था 1967 और 1969 की प्रदेश सरकार चलाने का. उन्हें मालूम था कि ये अलग-अलग वैचारिक लोगों ने जो जनता कुनबा बनाया है, उसे एक दिन बिखरना ही है. तो वो इसकी सीमित भूमिका जड़ भारतीय राजनीती को एक नई दिशा, दशा, भाषा, मुहावरा देने तक ही मानते थे. वो अपने स्वभाव के अनुरूप सीमित और संभव साधन में अधिकतम सकारात्मक करना चाह रहे थे. उन्होंने ही गृहमंत्री रहते हुए मंडल कमीशन का गठन किया और बाद में देश की एक बड़ी आबादी सामाजिक न्याय पा सकी और पिछड़े समाज के लोग भी राजनीति और नौकरियों में आ सके. अगर अवसरवाद का आरोप उनपर लगता है तो कहीं न कहीं जयप्रकाश नारायण की गलती की ओर भी इशारा हो जाता है. क्योंकि जनता परिवार को जोड़ा उन्होंने था. सभी ने उन्हें नेता माना था. जनता को सम्पूर्ण क्रांति का सामूहिक स्वप्न उन्होंने ही दिखाया था. भारत की जनता ने उनके कहने पर जनता पार्टी को वोट दिया था और जब सबको एक करके सरकार चलाने की बारी आई तो वो राजनेता से संत हो गए. शायद उन्हें भी डर या अनुमान था कि ये कुनबा बिखरना ही है. बिखर ही जाएगा. तो तोहमत अपने सर क्यों लेना. उन्होंने अध्यात्मिक पलायन का रास्ता चुन लिया. जनता पार्टी का विघटन एक प्राकृतिक राजनीतिक परिघटना थी जो घट गई. इसमें चौधरी चरण सिंह का दोष नहीं था. बल्कि उन्होंने इस अवसर को अधिकतम रच डाला और देश का पहला कृषक प्रधानमंत्री बनकर किसानों को सांकेतिक ही सही पर सशक्त संबल दिया. 


चौधरी चरण सिंह
चौधरी चरण सिंह

चौधरी चरण सिंह के व्यक्तित्व के और बहुत सारे पहलू हैं. कई सारे किस्से और कहानियां भी हैं पर आज एक बात कह दी है और बाकी बातें फिर कभी कहेंगे. चौधरी चरण सिंह पर चाहे जितने भी इल्जाम-आरोप लगें पर इतना तो सभी लोग मानते हैं कि उनके हृदय में गांव, गरीब और किसान के लिए पीड़ा थी. उनके दिमाग में इनकी बेहतरी के लिए योजनाएं थीं. और वो व्यक्तिगत रूप से बेहद बेबाक, साफ़ और ईमानदार व्यक्ति थे. उनकी पीड़ा, फिक्र, बेबाकी और इमानदारी को प्रणाम है. 



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