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समाज को लगता है सेक्स सिर्फ लड़के-लड़की के बीच हो सकता है

आज मुझसे कोई मेरा सेक्शुअल ओरिएंटेशन पूछता है, तो मैं कहती हूं कि मैं डिस्कवर कर रही हूं.

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प्रतीक्षा पीपी
27 नवंबर 2016 (Updated: 27 नवंबर 2016, 09:30 AM IST)
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मैंने बचपन से ही लड़कियों के स्कूल में पढ़ाई की. माना जाता है कि लड़कियों के स्कूल में लड़कियां सेफ रहेंगी. उन्हें लड़के तंग नहीं करेंगे. उनका दिमाग नहीं भटकेगा और वो पढ़ाई पर फोकस करेंगी. जिस तरह बच्चों पर आदर्श बच्चे होने का बोझ रहता है, उसी तरह मां-बाप पर आदर्श मां-बाप बनने का बोझ रहता है. यही कारण है कि वो लड़कियों को लड़कियों के स्कूल में भेजते हैं, लेकिन अगर उनकी बेटी लेस्बियन हो तो?

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बॉयज हॉस्टल में लड़कियों का आना मना होता है. गर्ल्स हॉस्टल में लड़कों का. जब लड़के या लड़कियां किराए पर घर लेने जाते हैं, तो मकान-मालिक की सबसे बड़ी शर्त यही होती है कि 'बेटा लड़के/लड़कियां नहीं आने चाहिए.' ये कितना मासूम समाज है, जिसे लगता है कि सारे गलत काम (पढ़ें: सेक्स) केवल एक लड़की और लड़के के बीच ही हो सकते हैं. और इसीलिए लड़की और लड़के की परवरिश अलग-अलग ढंग से की जाती है. अपेक्षित होता है कि लड़की की दोस्त लड़कियां हों और लड़कों के लड़के.

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समलैंगिकता हमारे समाज में इतनी दूर की चिड़िया है कि लोगों के दिमाग में ही नहीं आता कि जो काम लड़का और लड़की साथ में कर सकते हैं, वो काम अपने ही 'जेंडर' के व्यक्ति के साथ भी तो कर सकते हैं. कहने का अर्थ ये कतई नहीं है कि लड़कों या लड़कियों के समलैंगिक होने के 'डर' से उन्हें हॉस्टल में न भेजे जाने की वकालत कर रही हूं मैं. मैं इस प्रेमहीन समाज को समझने की कोशिश कर रही हूं, जहां किसी भी तरह का प्रेम करना एक नैतिक अपराध हो जाता है. चाहे वो होमो हो या स्ट्रेट.

समलैंगिकता से हमारा परिचय जल्दी हो जाता है. मालूम बाद में पड़ता है. मुझे याद है जब हम स्कूल में थे, एक अफवाह उड़ी कि फलानी लड़की को फलानी लड़की के साथ एक ही टॉयलेट में पकड़ा आया दीदी ने. उसमें से एक लड़की हमारी बस में जाती थी. कुछ लोग कहते थे कि उसकी शक्ल साइड से मुझसे मिलती है. मुझे ये गाली जैसा लगता था. मैं उन दोस्तों से लड़ जाती, नाराज हो जाती. एक लेस्बियन से मेरा कुछ भी मैच होना मुझे अपराध सा लगता था. खचाखच भरी स्कूल बस में भी मैं ये कोशिश करती रहती कि कहीं उससे छूते हुए न निकल जाऊं.

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शुक्र है मेरे उस फैसले का, जिसके तहत मैंने घर से दूर पढ़ाई करना चुना और साहित्य जैसा लिबरल फील्ड चुना. और ये बात पढ़ते-पढ़ते, नए लोगों से मिलते हुए सीखा कि ये तो आम है. एक इंसान का दूसरे इंसान से प्रेम होना गलत कैसे हो सकता है? हम वही समाज हैं न, जहां रेप और हिंसा को हम बुरा मानते हैं. इंसानों के पढ़ने, अच्छा जीवन, अच्छी सैलरी के अधिकार के पक्ष में होते हैं. तो फिर प्रेम और सेक्स करने के अधिकार के पक्ष में क्यों नहीं होते? उससे तो किसी का बुरा भी नहीं होता, न?

आज मुझसे कोई मेरा सेक्शुअल ओरिएंटेशन पूछता है, तो मैं कहती हूं कि मैं डिस्कवर कर रही हूं.

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असल में हम सब अपना ओरिएंटेशन डिस्कवर कर रहे होते हैं, ताउम्र. हममें से अधिकतर लोग स्ट्रेट होते हैं, क्योंकि ये बचपन से सीखा गया सच होता है कि आप लड़की हैं, तो लड़के में इंटरेस्ट लेना ही आपका नॉर्मल बर्ताव होना चाहिए. और हम इसे निभाते भी हैं. इसीलिए अगर कोई केस ऐसा दिखता है, जब पुरुष को पुरुष या औरत को औरत में इंटरेस्ट होता है, हम इसे नॉर्मल नहीं मानते. जब कॉलेज में आकर मैंने सुना कि बाकी लड़कियां दो लड़कियों के बारे में दबी आवाज में बातें करती हैं, स्कूल का वो पूरा माजरा मेरी आंखों के आगे दौड़ गया. मुझे शर्मिंदगी हुई कि मैं कैसी थी. लेकिन हम सब ऐसे ही थे. हममें से जो समलैंगिक हैं, वो भी ऐसे ही थे. आज भी कई लोग वैसे ही हैं, क्योंकि वो खुद ही ये महसूस करते रहते हैं कि वो कुछ गलत कर रहे हैं.

***

मैं कुछ 12-13 साल की थी, जब पड़ोसी के घर में बेबी हुआ. छुट्टी का दिन था. सोकर उठी कि सामने वाले दरवाजे पर ढोलक पिट रही है. मर्दाना आवाज में गीत सुनाई दे रहे हैं. असल में हिजड़ों की एक टोली गाने आई थी. रिवाज वही है, घर में कोई भी शुभ खबर हो, शादी, गृह प्रवेश या बच्चा होने की, हिजड़ों को शगुन देना आम बात होती है. पड़ोस वाली आंटी से हिजड़े 10 हजार रुपए मांग रहे थे. आंटी के पास इतने पैसे नहीं थे. वो अफोर्ड ही नहीं कर सकती थीं इतना देना. हिजड़े जब ज़बरदस्ती करने लगे, तो आंटी ने 100 नंबर पर फ़ोन किया. पुलिस ने साफ़ कहा, हम हिजड़ों के मामले में दखल नहीं देते. आप देख लीजिए.

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एक और पड़ोसी ने कहा, 'भाभी जो है दे दीजिए. ये लोग बड़े बद्तमीज होते हैं. पैसे न दो, तो नंगई करने लगते हैं. अरे वो अपने मल-मूत्र वाले अंग दिखाने लगते हैं. ये सब ठीक नहीं लगता मोहल्ले में.'

'ये लोग बड़े बद्तमीज होते हैं.' ये शब्द मुझे याद हैं आज भी. किसी हिजड़े को देखती हूं, तो बरबस याद आते हैं. जब हम घर में ऐसी बातें कहते हैं, तो हमारे बच्चे इसी सोच के साथ बड़े होते हैं. जैसे मैं हुई. दिल्ली में कभी किसी पुरुष दोस्त के साथ होती और हिजड़ा आ जाता तो डर सा लगता.

फिर बड़े होने और पढ़ाई के इस सिलसिले में समझ आया कि हिजड़ों को मूल अधिकार भी नहीं मिलते. वो अधिकार, जिन्हें हम बचपन से मानकर चलते हैं, उसके लिए उन्हें लड़ना पड़ता है. मैं कोई कपड़ा पहनती हूं जो मुझे साइज़ में छोटा आता है, इतना जी घुटता है कि तुरंत निकाल फेंकती हूं. तो उनका क्या जिनका अपने शरीर में दम घुटता है? जिन्हें लगता है उनकी आत्मा को एक गलत शरीर में कैद कर दिया गया है. जिन हिजड़ों के लिए हम बड़े सहज रूप से भाषा में पुल्लिंग का चुनाव करते हैं, वो असल में पुल्लिंग होते ही नहीं हैं. स्त्रीलिंग भी नहीं होते. मुझे कभी-कभी हमारी भाषा की गरीबी पर शर्म आती है.

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काम के सिलसिले में हिजड़ा समुदाय की एक शख्स से मिली, तो उन्होंने मुस्कुराते हुए बताया, 'हम चमकीला मेकअप लगाते हैं, ताकि तुम हमें देख सको. हम ताली बजाकर बात करते हैं, ताकि तुम हमें सुन सको.' हिजड़े अपने कपड़े उतारते हैं, तो आप पैसे दे देते हैं, क्योंकि आप डरते हैं. उनके असली स्वरुप से. वो स्वरुप जो न स्त्री का है, न पुरुष का. उससे आप डरते हैं. उस सच्चाई का आप सामना नहीं करना चाहते, क्योंकि वो आपको आपके कम्फर्ट जोन से बाहर निकालती है.

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हम सब एक हैं. समलैंगिक, स्ट्रेट, हिजड़े, बाईसेक्शुअल. हमारी आत्मा एक है. जिस तरह हमने एक-दूसरे को पैसों, जाति और धर्म के बेस पर बांटा है, उस तरह लिंग के बेस पर भी बांट रखा है. जिस दिन हम ये समझ गए, उस दिन न कोई दंगा होगा, न किसी औरत का रेप होगा, न किसी हिजड़े का क़त्ल होगा.


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