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चुनाव के पहले बढ़ सकती है न्यूनतम मजदूरी, बस एक पेच फंसा है!

मजदूरों के लिए एक अच्छी खबर आने की उमीद है. केंद्र सरकार की कमिटी जल्द अपनी रिपोर्ट देगी। SP Mukherjee कमिटी के सुझाव के हिसाब से बढ़ सकता है मिनिमम वेज.

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इस संबंध में केंद्र सरकार ने एक कमिटी बनाई थी. (सांकेतिक तस्वीर: आजतक)
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16 जनवरी 2024
Updated: 16 जनवरी 2024 15:54 IST
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साल 2021 में मोदी सरकार ने कलकत्ता यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और लेबर एक्सपर्ट श्री S.P मुखर्जी के नेतृत्व में एक कमिटी बनाई थी. इस कमिटी को जून 2024 तक नए मिनिमम वेज या न्यूनतम मजदूरी रेट का सुझाव देना था. कमिटी की समय सीमा खत्म हो रही है, अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर यानी असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों की संख्या लगभग 45 करोड़ है, (अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर माने जहां काम करने वाले लोगों के पास जॉब सिक्योरिटी नहीं होती है. जैसे फैक्ट्री या खेत में काम करने वाले लेबर या बिल्डिंग बनाने वाले मजदूर) और चुनाव का बिगुल भी बजने वाला है. समय और परिस्थिति दोनों अनुकूल है, तो ऐसे में उम्मीद जताई जा रही है कि न्यूनतम मजदूरी बढ़ सकती है.

मिनिमम फ्लोर वेज क्या होता है?

मिनिमम माने न्यूनतम, फ्लोर का मतलब बेस और वेज यानी मजदूरी. मिनिमम फ्लोर वेज को आसान भाषा में कहें तो किसी से काम करवाने के बदले एम्प्लॉयर या नौकरी देने वाली संस्था को एक मिनिमम मजदूरी, काम करने वाले व्यक्ति यानि एम्प्लॉई को देनी पड़ती है. अब इसमें दो सवाल उठते हैं-

1- मिनिमम वेज की ज़रूरत क्या है?
2- किन चीजों को ध्यान में रखते हुए इसे तय किया जाता है?

अर्थशास्त्र का नियम कहता है, अगर संस्था को प्रॉफिट बढ़ाना है तो दो रास्ते हैं. पहला, अपने प्रोडक्ट का दाम बढ़ा दो. दूसरा, प्रोडक्ट को बनाने का कॉस्ट यानी लागत कम करो. अगर प्रोडक्ट का दाम बढ़ने से बिक्री कम हो जाती है, इस वजह से हर संस्था अपना कॉस्ट कम करने की कोशिश करती है. कैसे? लेबर की सैलरी या मजदूरी कम करने से कॉस्ट कम हो जायेगी.

संस्था तो सिर्फ अपना फायदा देखती है, लेकिन सरकार को इस बात का ध्यान रखना होता है कि मजदूर अपनी बेसिक जरूरतों को पूरा कर सकें. इसलिए सरकार कानून बनाती है. जिससे वो इन संस्थाओं और खुदको(क्योंकि सरकार भी लोगों को रोजगार देती है) नियंत्रित कर सके, जिससे हर मजदूर को उसके श्रम के हिसाब से मजदूरी मिले.

मिनिमम वेज को सेट करने के लिए एंप्लॉयर और एम्पलॉई दोनों पक्षों को ध्यान में रखा जाता है. एम्पलॉई के लिए महंगाई और कॉस्ट ऑफ लिविंग यानी बेसिक जरूरतों को पूरा करने का खर्च और एंप्लॉयर के लिए उसकी प्रोडक्शन कॉस्ट को कंसिडर किया जाता है.

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अभी क्या सीन है?

2017 में केंद्र सरकार ने 176 रुपये प्रतिदिन का मिनिमम वेज सेट किया था. लेकिन उस वक्त तक इसे सरकारों के लिए अनिवार्य नहीं बनाया गया था. इसके चलते कई राज्यों में न्यूनतम मजदूरी केंद्र सरकार द्वारा तय की गई सीमा से कम रही. ऐसे में केंद्र सरकार ने कुछ कदम उठाए.

- पहले कदम के तौर पर केंद्र सरकार ने ‘कोड ऑन वेजेस, 2019’ नाम का नया कानून बनाया. केंद्र सरकार को इससे दो ताकतें मिली-

पहली, केंद्र सरकार द्वारा तय की गई न्यूनतम मजदूरी की सीमा सभी राज्यों के लिए अनिवार्य हो गई.
  
दूसरी, केंद्र सरकार को देश के अलग-अलग हिस्सों के लिए अलग-अलग न्यूनतम मजदूरी दर तय करने का अधिकार मिल गया.

अगला कदम था मिनिमम वेज को सेट करना. इसके लिए 2019 में सरकार ने Anup Sapathy के नेतृत्व में एक कमिटी बनाई. सुझाव में कमिटी ने मिनिमम वेज को 176 रुपये से बढ़ा कर 375 रुपये करने को कहा. इस सुझाव का एम्प्लॉयर्स संगठनों ने विरोध किया क्योंकि अचानक मजदूरी डबल करने से उनको भारी नुकसान होता. विरोध के चलते ये प्रस्तावित दरें लागू नहीं हो पाईं.

बीच का रास्ता निकालने के लिए सरकार ने SP मुखर्जी के नेतृत्व में फिर एक कमिटी बनाई. इसके आगे दो बड़ी चुनौतियां हैं.

पहली, इतने सालों में महंगाई दर में जो बढ़ोतरी हुई और इसका कॉस्ट ऑफ लिविंग पर जो असर पड़ा, इस तथ्य को ध्यान में रखा जाए.

दूसरी, इस बात का ध्यान रखना कि संस्थाओं, राज्य सरकारों और खुद केंद्र सरकार पर इसका ज्यादा असर ना पड़े.

उम्मीद है कि ये कमिटी एक संतुलित मिनिमम वेज निकालने में सक्षम होगी और दोनों पक्षों को नुकसान नहीं होगा. नया मिनिमम वेज मजदूरों के लिए बहुत ज़रूरी है. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 भी भारत के हर नागरिक को गरिमापूर्ण ज़िन्दगी देने का वादा करता है. अगर श्रम के बदले सम्मान जनक पैसा न मिले तो कोई भी व्यक्ति गरिमापूर्ण जीवन नहीं जी सकता है.

(ये स्टोरी लिखी थी हमारे साथ इंटर्नशिप कर रहे आकाश ने )

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