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ध्यान चंद ने कहा था- 'जब मैं मरूंगा, पूरी दुनिया रोएगी लेकिन भारत के लोग एक आंसू नहीं बहाएंगे'

और भारत देश, हॉकी इंडिया, सरकार सभी उनके भरोसे पर खरे उतरे.

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अपने आखिरी दिनों में उनकी चिंता सिर्फ इतनी थी कि कोई उनके मेडल न चुरा ले.
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सूरज पांडेय
29 अगस्त 2021 (Updated: 28 अगस्त 2021, 05:15 AM IST)
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लगातार तीन बार भारत को ओलंपिक गोल्ड मेडल्स दिलाने वाले मेजर ध्यानचंद. वही ध्यानचंद जिन्हें आज़ादी से पहले बच्चा-बच्चा जानता था. लेकिन बाद के दिनों में जिन्हें हर किसी ने भुला दिया.
जीवन के अंतिम दिनों में रिटायर्ड मेजर ध्यानचंद को बहुत सी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं ने घेर लिया था. बीमारी, लोगों द्वारा भुला दिए जाने की तकलीफ ने मिलकर मेजर को चिड़चिड़ा कर दिया था. उन्हें देशवासियों, सरकारों और हॉकी फेडरेशन से मिल रहे ट्रीटमेंट पर बहुत कोफ्त होती थी.
मेजर की मौत से लगभग 6 महीने पहले उनके एक दोस्त पंडित विद्यानाथ शर्मा ने उनके लिए एक वर्ल्ड टूर का प्रोग्राम बनाया. शर्मा को लगा था कि इससे मेजर का यूरोप के हॉकी प्रेमियों के साथ दोबारा मिलना हो जाएगा और यह लेजेंड फिर से लोगों की नजर में आ जाएगा. इस टूर के लिए सारी तैयारियां हो चुकी थीं, एयर टिकट्स खरीद लिए गए थे लेकिन मेजर इस टूर पर जाने की हालत में नहीं थे. # बदहाल थे मेजर और उनका परिवार मेजर के विदेशी दोस्तों ने बेहतर इलाज के लिए उनसे यूरोप आने की गुहार लगाई. लेकिन मेजर ने यह कहते हुए जाने से इनकार कर दिया कि उन्होंने दुनिया देख ली है.
साल 1979 के आखिर में बीमार हालात में मेजर को ट्रेन के जरिए झांसी से दिल्ली लाया गया. लेकिन यहां उन्हें कोई स्पेशल ट्रीटमेंट या प्राइवेट वॉर्ड देने की जगह एम्स के जनरल वॉर्ड में धकेल दिया गया. अपने आखिरी दिनों में भी मेजर हॉकी की ही बात करते थे. उन्होंने अपने परिवार को याद दिलाया कि उनके मेडल्स का ध्यान रखा जाए. उन्होंने सख्त लहजे में हिदायत दी कि इस बात का ध्यान रखें कि कोई उनके मेडल्स ना चुरा पाए.
दरअसल कुछ दिन पहले ही किसी ने उनके कमरे में घुसकर कुछ मेडल्स चुरा लिए थे इसलिए मेजर सतर्क थे. इससे पहले भी झांसी में एक प्रदर्शनी के दौरान उनके ओलंपिक मेडल्स चोरी हो गए थे और मेजर इस घटना की पुनरावृत्ति नहीं चाहते थे.
Dhyan Chand with players
2013 में दिल्ली में जूनियर हॉकी वर्ल्ड कप के दौरान 16 टीमों के कप्तानों ने मेजर की प्रतिमा के साथ तस्वीर खिंचवाई थी.

मेजर भारतीय हॉकी के गिरते स्तर से भी खफा थे. जब एक बार उनके डॉक्टर ने उनसे भारतीय हॉकी के भविष्य के बारे में पूछा तो मेजर ने कहा,
'भारत की हॉकी खत्म हो चुकी है' डॉक्टर ने कहा, 'ऐसा क्यों?' मेजर ने जवाब दिया, 'हमारे लड़के सिर्फ खाना चाहते हैं। वो काम नहीं करना चाहते'
यह कहने के कुछ दिन बाद 3 दिसंबर, 1979 को उनकी मृत्यु हो गई. क्लियरेंस मिलने में आई शुरुआती दिक्कतों के बाद झांसी हीरोज के ग्राउंड में उनका अंतिम संस्कार हुआ. यह मेजर का ही बनाया हुआ हॉकी क्लब था. अंतिम संस्कार के समय मेजर की बटालियन पंजाब रेजिमेंट ने उन्हें पूरा मिलिट्री सम्मान दिया. # अशोक का संन्यास मिलिट्री ने तो अपना काम पूरा किया लेकिन सरकारों और उनकी जी-हज़ूरी करने वालों द्वारा मेजर और उनके परिवार का अपमान यहीं नहीं रुका. इंडियन हॉकी ऑफिशल्स ने मेजर के बेटे अशोक कुमार को साल 1980 मॉस्को ओलंपिक के लिए लगे कैंप में शामिल नहीं होने दिया. दरअसल अशोक अपने पिता की मौत के बाद के संस्कारों और सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाने के चलते कैंप के लिए लेट हो गए थे.
और हॉकी इंडिया के अधिकारियों ने इसे अनुशासनहीनता मानते हुए उन्हें कैंप अटेंड करने से रोक दिया. इस भारी बेइज्जती से आहत अशोक ने तुरंत प्रभाव से हॉकी से संन्यास ले लिया. अपनी मौत से दो महीने पहले मेजर कहा था,
'जब मैं मरूँगा, पूरी दुनिया रोएगी लेकिन भारत के लोग मेरे लिए एक आंसू नहीं बहाएंगे, मुझे पूरा भरोसा है.'
भारत देश, हॉकी इंडिया, सरकार सभी उनके भरोसे पर खरे उतरे.


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