आर्मी के बड़े अफसरों की वर्दी क्यों बदली जा रही है?
अब पैरा के ब्रिगेडियर अपनी चहेती मरून बैरे नहीं पहन पाएंगे.

आर्मी अफसरों की वर्दी में कुछ नए बदलाव होने वाले हैं. इस साल अगस्त से ब्रिगेडियर और उससे ऊपर के रैंक वाले अफसरों की वर्दियां एक जैसी हो जाएंगी. अभी कुछ महीने पहले ही सेना और नौसेना ने अपनी कॉम्बैट यूनिफॉर्म भी बदली थी. तो फिर इस नए बदलाव की ज़रूरत क्यों पड़ी?
आप जानते ही हैं, कि सेना कई अलग अलग तरह की रेजिमेंट और कोर से मिलकर बनी है. तीन बड़े अंगों - इंफ्रेंट्री, आर्मर्ड और आर्टिलरी की वर्दियों में अंतर होता है. इंफेंट्री के भीतर भी अलग अलग रेजिमेंट हैं, जिनकी अपनी अलग परंपराएं हैं. और इन्हीं के चलते बेल्ट, टोपी, लैनयार्ड (कंधे पर जो डोरी होती है), शर्ट के बटन, कंधों के पर लगने वाले तारे आदि अलग-अलग तरह के होते हैं.
अलग-अलग तारे, टोपी, बेल्ट कहां से आए?
सेना में परंपरा और इतिहास का बड़ा महत्व होता है. इसी से किसी यूनिट, रेजिमेंट या कोर की पहचान बनती है. और एक फौजी की पहचान का सबसे बड़ा निशान है उसकी वर्दी. आपने कई बार सुना होगा - डेकोरेटेड अफसर/जवान. अफसर/जवान की हर उपलब्धि उसकी वर्दी पर दर्ज होती है. नई रिबन, नया मेडल, नया पैच मिलता जाता है. आप वर्दी देखकर अंदाज़ा लगा सकते हैं कि अमुक फौजी ने अपने करियर में क्या-क्या हासिल किया. यही बात यूनिट, रेजिमेंट या कोर पर भी लागू होती है. आज आप फौज में जैसी कॉम्बैट (मिशन के वक्त पहनी जाने वाली) और सेरेमोनियल (समारोह आदि पर पहनी जाने वाली) यूनिफॉर्म देखते हैं, - दोनों इसी तरह बनीं.
परंपरा ये है कि इंफेंट्री में हरी टोपी (बैरे) पहनी जाती है. आर्मर्ड में काली टोपी पहनी जाती है. और आर्टिलरी में पहनी जाती है नीली टोपी. दुनिया भर की तरह स्पेशल फोर्सेज़ में मरून बैरे पहनी जाती है. सेरेमोनियल यूनिफॉर्म में प्रायः पीक कैप (वो टोपी, जिसके अगले हिस्से में चोंच-सी होती है) पहनी जाती है. लेकिन ऐसी भी रेजिमेंट हैं, जहां हैट पहनी जाती है - जैसे नागा रेजिमेंट, गढ़वाल राइफल्स आदि. स्पेशल फोर्सेज़ के अफसर सेरेमोनियल यूनिफॉर्म में भी मरून बैरे ही पहनते हैं. इसी तरह अलग अलग बेल्ट, बटन और लैनयार्ड आए. लैनयार्ड दाएं पहना जाएगा, या बाएं, ये भी परंपरा/उपलब्धि का ही द्योतक होता है.
अब एक जैसी वर्दी क्यों होगी?
अफसर कर्नल रैंक तक प्रायः अपनी रेजिमेंट/कोर की यूनिट्स को ही कमांड करते हैं. लेकिन ब्रिगेडियर रैंक से अफसर अलग-अलग कोर से आने वाले फौजियों को कमांड करना शुरू करते हैं. इसीलिये हालिया आर्मी कमांडर्स कॉन्फ्रेंस में ये फैसला लिया गया कि उच्च अधिकारियों की यूनिफॉर्म एक जैसी हो. पहले भी यही चलन था. 1980 के आसपास वरिष्ठ अधिकारियों ने रेजिमेंटल की परंपरा वाली चीज़ें वर्दी में पहनने की शुरूआत की. लेकिन अब पुरानी परंपरा दोबारा लागू की जा रही है. इसका सबसे बड़ा असर आपको नज़र आएगा पैराट्रूपर्स की यूनिफॉर्म में. अब से जब भी पैरा के अफसर कर्नल से ऊपर जाएंगे, उन्हें अपनी मरून बैरे को छोड़ पीक कैप पहननी होगी. पैरा वाले अपनी बैरे को अपनी जान से ज़्यादा प्यार करते हैं. ऐसे में उन्हें थोड़ा दुख तो होगा ही. एक और बदलाव होगा - वरिष्ठ अधिकारी लैनयार्ड नहीं पहनेंगे.
मकसद है, एक यूनिफॉर्म से एक मकसद और एक सोच वाली स्पिरिट को बढ़ावा मिले. ये बदलाव इस साल 1 अगस्त से लागू होंगे.
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