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'तारे जमीन पर' वाली बीमारी थी, स्कूल ने निकाल दिया था, अब इस IAS की लड़की ने कमाल कर दिया

लोगों ने लड़की को बधाई दी और स्कूल के रवैये पर सवाल उठाए.

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अशोक परमार के ट्वीट से ली गई फोटो.
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सोम शेखर
7 अक्तूबर 2022 (Updated: 7 अक्तूबर 2022, 12:01 AM IST)
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ट्विटर पर एक यूज़र ने बताया कि स्कूल वालों ने उनकी बेटी को एक मानसिक हालत की वजह से निकाल दिया था. फिर ओपेन-स्कूल से पढ़ाई की. बाद में इसी लड़की ने NIFT से डिग्री ली. फ़ैशन में. ये ट्वीट ख़ूब वायरल हुआ. लोग लड़की को बधाई दे रहे हैं और स्कूल को लानत.

ट्वीट किया है IAS अशोक परमार ने. जम्मू-कश्मीर में पोस्टेड हैं. अशोक ने ट्वीट किया,

"सीखने की अक्षमताओं की वजह से स्कूल ने मेरी बेटी को निकाल दिया था. डिसलेक्सिया और ADHD की वजह से. उसने ओपेन-स्कूल (NIOS) से पढ़ाई पूरी की. ज़िल्लत और बहुत तनाव के बावजूद उसने NIFT से डिग्री ली और फ़ैशन और लग्ज़री ब्रैंड मैनेजमेंट में मास्टर्स किया. फ़र्स्ट क्लास से."

अब ब्रीफ़ में डिसलेक्सिया और ADHD के बारे में जान लीजिए. डिसलेक्सिया एक स्थिति है जिसमें किसी इंसान को शब्‍दों के उच्‍चारण करने में या सही वर्तनी लिखने में कठिनाई होती है. फ़िल्म 'तारे ज़मीन पर' में इसी स्थिति के बारे में बात हुई है. ADHD बोले तो Attention deficit hyper-activity disorder. यानी ध्यान की कमी और अत्यधिक सक्रियता. इस अवस्था में व्यक्ति को फ़ोकस कर पाने में परेशानी होती है.

वापस IAS अशोक के ट्वीट पर. इस ट्वीट के नीचे लोगों ने ख़ूब कॉमेंट्स किए हैं. ज़्यादातर ने लड़की को बधाई दी और स्कूल के इस भेदभावपूर्ण रवैये के ख़िलाफ़ आपत्ति जताई है.

पत्रकार मारया शकील ने ट्वीट किया,

"लड़की को मुबारक़बाद. जीत उसकी हुई है और वो शिक्षा व्यवस्था, जो बच्चों के सीखने की क्षमता को बढ़ा नहीं सकता, वो हारी है."

प्रतिष्ठित बिजनेस पत्रकार सुचेता दलाल ने भी लड़की की तारीफ़ की.

IAS निरुपमा कोट्रू ने ट्वीट किया,

"आज की तारीख़ में, ये बात चौंकाती है कि स्कूल ऐसा कर सकते हैं. और, क्या RTE के तहत ये ग़ैर-क़ानूनी नहीं है? बेटी की दृढ़ता और तुम्हारी परवरिश को सलाम. उसे अपने पिता से प्रेरणा मिलती है, और संभवतः मां से भी. ज़बरदस्त, मेरे दोस्त."

रंजीत कुमार ने लिखा,

"मेरी भी 5 साल की एक बेटी है, जो ASHD और डिस्लेक्सिया से जूझ रही है. इस ट्वीट ने मुझे ऐसा विश्वास दिलाया है कि उम्मीद अभी भी ज़िंदा है."

श्रीकांत नटराजन नाम के यूज़र ने कहा कि स्कूल का नाम बताइए. उन्हें शर्मसार करिए. इस पर अशोक ने जवाब में लिखा,

"किसी एक स्कूल के लिए कोई रंज नहीं है. और, बच्चों की इस चुनौती के लिए ये नज़रअंदाज़ी केवल एक स्कूल तक सीमित नहीं है. मैं उम्मीद करता हूं कि हमारा समाज ऐसे बच्चों की परेशानी को समझे और ये सुनिश्चित करे कि बच्चों को स्कूल और घरों में सही से सपोर्ट और काउंसलिंग मिले."

और लोगों ने भी अपने अनुभव शेयर किए. गुरू ने नाम के एक यूज़र ने लिखा,

"मैं ख़ुद एक बच्चे के रूप में डिस्लेक्सिक था. डिस्लेक्सिक बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल आमतौर पर सक्षम नहीं होते हैं. सौभाग्य से मेरी मां ने मुझे कुछ महीनों के लिए डिस्लेक्सिक स्कूल में डाल दिया. अब मैं सिलिकॉन वैली में एक सफल सॉफ्टवेयर इंजीनियर हूं."

इन अवस्थाओं पर बक़ायदा रिसर्चेज़ हुई हैं. ट्रीटमेंट्स हैं. लेकिन, स्टिग्मा भी है. मिथक भी हैं. इसीलिए इनसे जूझ रहे लोगों को केवल इस अवस्था से नहीं, समाज में फैले इसके स्टिग्मा से भी जूझना पड़ता है.

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