अफ्रीका से भारत लाए गए चीते मर क्यों रहे हैं?
अब तक कूनो में 3 चीतों की मौत हो चुकी है.

भारत में चीते 70 साल पहले ही विलुप्त हो चुके थे. आख़िरी तीन भारतीय चीतों का शिकार एक राजा ने किया था. शान से तस्वीर भी खिंचाई थी. और दशकों लंबी कवायद के बाद प्रयोग के तौर पर 20 अफ्रीकी चीतों को कूनो नेशनल पार्क लाया गया था. ये पहली बार था जब किसी मांसाहारी जानवर को एक महाद्वीप से दूसरे में शिफ्ट किया गया. PM मोदी ने अपने जन्मदिन पर स्वयं कूनो में चीतों को छोड़ा था. उम्मीद जागी, कि अब चीते फिर भारत में बसने लगेंगे. लेकिन अब तक कूनो में 3 चीतों की मौत हो चुकी है. तो क्या अफ्रीकी चीतों को भारत में बसाने का ये प्रयोग असफल होता दिख रहा है?
ये मास्टरक्लास है. जिसमें आज हम चीतों की बात करेंगे. चीतों का वंश क्या है? भारत में चीतों का इतिहास क्या है? चीतों से शिकार करवाया गया तो चीते कैसे ख़त्म हो गए? भारत में अफ्रीकी चीतों को बसाने की कवायद क्यों शुरू हुई? एक नई प्रजाति भारतीय जंगलों में कैसे पनपेगी? प्रयोग सफल रहेगा या असफल होता दिख रहा है. विस्तार से सारे सवालों के जवाब तलाशेंगे.
सबसे पहले ये जान लें कि फिलवक्त कूनो में कितने चीते हैं. पहली खेप में पीएम मोदी के जन्मदिन पर 17 सितंबर 2022 को नामीबिया से आठ चीते लाए गए. फिर दक्षिण अफ़्रीका से 12 चीते लाए गए. लेकिन इन 20 चीतों में से दो की मार्च और अप्रैल में मौत हो गई थी. पहले मादा चीता शासा की मौत हुई थी. शासा भारत लाए जाने से पहले ही किडनी की बीमारी से पीड़ित थी. 23 जनवरी को शासा में थकान और कमजोरी के लक्षण दिखे, जिसके बाद उसे इलाज के लिए क्वारंटीन किया गया. 26 मार्च को शासा की मौत हो गई.
23 अप्रैल को दूसरे चीते उदय की मौत हुई. 22 अप्रैल तक उदय बिल्कुल ठीक था. अगले दिन सुबह वन विभाग की टीम ने देखा कि उदय की तबीयत खराब होने लगी. उसे बेहोश कर मेडिकल सेंटर ले जाया गया. फिर शाम करीब 4 बजे इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई. इसके बाद आई 9 मई की तारीख. खबर आई कि दक्षिण अफ्रीका से मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क लाए गए एक और चीते की मौत हो गई है. बताया गया कि इस मादा चीता दक्षा की मौत किसी बीमारी से नहीं बल्कि पार्क में मौजूद दो अन्य चीतों के साथ लड़ाई में हुई है. दोनों चीतों के नाम वायु और अग्नि हैं. हालांकि इस बीच एक मादा चीते ने 4 शावकों को जन्म भी दिया है तो कूनो में फिलवक्त चीतों की कुल संख्या 21 है.
अब चीतों की कहानी शुरू से शुरू करते हैं. सबसे पहले इनके खानदान के बारे में जानते हैं-
बिग कैट्सहर शिकारी जीव का शिकार करने का अपना तरीका होता है. कोई घात लगाकर हमला करता है, कोई कैमोफ्लाज (प्रकृति में छिपना, जैसे गिरगिट आदि करते हैं) का सहारा लेता है, तो कोई अपने जहर से शिकार का काम तमाम कर देता है. लेकिन चीते का फंडा अलग है. उसे अपनी रफ़्तार पर भरोसा है. वो अपने शिकार को बेतहाशा दौड़ाता है और आखिरकार दबोच लेता है. चीते के बाद दुनिया में सबसे तेज़ दौड़ने वाला जानवर है अमेरिकी हिरन प्रोंगहॉर्न. लेकिन ये इतनी तेज़ दौड़ते क्यों हैं? तब भी जब पीछे कोई शिकारी न हो? वैज्ञानिक बताते हैं दस हज़ार साल पहले अमेरिका के घास के मैदानों में एक चीते जैसा ही जानवर होता था. आज के चीते से भी बड़ा, फुर्तीला और मज़बूत. वो जानवर तो विलुप्त हो गया, लेकिन उसकी फुर्तीली छलांग और फर्राटेदार दौड़ प्रोंगहॉर्न हिरन के जेहन में आज भी ताज़ा है. डर की शक्ल में. कहते हैं इतिहास से सीखना चाहिए. प्रोंगहॉर्न ने सीख लिया है. क्या? तेज, बहुत तेज दौड़ना.
दस हज़ार साल पहले का चीता और उसका वंश कैसा था, ये साफ नहीं है. लेकिन आज का चीते का वंश समझ लीजिए. अगर आपको कोई भारतीय चीते की नई-ताजी तस्वीर दिखाए तो इसे तब तक बाघ, तेंदुआ, जगुआर या प्यूमा ही मानिएगा जब तक आपको इसकी आंखों से लेकर नाक तक दोनों तरफ़ काली लाइन न दिखे. इन्हें अश्रु रेखा कहते हैं, यानी टियर लाइन, यही वो सबसे बड़ा शारीरिक अंतर है जो इसे अपने खानदान से अलग करता है. बाकी चीते का तो संस्कृत नाम ही चित्रकः है, यानी धब्बेदार. और धब्बे सभी बड़ी-छोटी बिल्लियों के शरीर पर हैं. खानदान के सबसे बड़े सदस्य बाघ से लेकर सबसे छोटे सदस्य घरेलू बिल्ली तक. जो आपको कंफ्यूज कर सकते हैं. बाघ और शेर के अलावा तीन तरह के तेंदुए, प्यूमा, कूगर, जैगुआर और चीता, इन सबको वैज्ञानिक 'बिग कैट' (Big Cat) की ही कैटेगरी में रखते हैं. इनमें से एक चीता ही है जो भारत में पूरी तरह विलुप्त हो गया है. इसकी कुल दो स्पीशीज हैं एशियाई और अफ्रीकी. एशियाई चीतों की अंतिम आबादी सिर्फ ईरान में बची है. और इनमें भी लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है. कुल संख्या उंगलियों पर गिने जाने लायक बची है.
अब बात चीते के इतिहास की. भारत में ये कैसे ख़त्म हुए?
उपलब्ध इतिहास में पहली बार चीता पालने का सुबूत संस्कृत ग्रंथ ‘मनसोल्लास’ में मिलता है. इसे लिखा था चालुक्य वंश के राजा सोमेश्वर तृतीय ने. यानी चीते कम से कम छठी शताब्दी से पाले जा रहे थे. इसके बाद ये सिलसिला मध्यकालीन भारत में भी जारी रहा. कहा जाता है कि अकबर की शिकारगाह में एक हज़ार तक चीते थे (कुछ स्रोतों के मुताबिक ये संख्या ज्यादा भी हो सकती है). इन्हें शिकार के लिए ट्रेन करने के बाद जंगल में जानवरों के पीछे छोड़ दिया जाता था, ये प्रशिक्षित चीते हिरन वगैरह का शिकार करके लाते और अपने हिस्से की एक टांग से संतुष्ट हो जाते. साल 1613 में मुगल बादशाह जहांगीर ने भी अपनी बायोग्राफी तुजुक-ए-जहांगीरी में कैद में रखी गई एक मादा चीता द्वारा शावक को जन्म देने का किस्सा बताया है.
राजा, जमींदार और बाद में अंग्रेजों के लिए भी शिकार के लिए जंगलों से चीते लाए जाने लगे और ये सिलसिला 18वीं शताब्दी के फर्स्ट हाफ़ तक अपने चरम पर पहुंच गया. इस दौरान एक ट्रेंड चीते की कीमत 150 से 200 रुपए तक होती थी जबकि जंगल से पकड़कर लाए गए चीते की कीमत 10 रुपए के आस-पास होती थी. उस ज़माने में ये रकम बहुत बड़ी थी.
पालतू बनाने से क्या हुआ?चीतों को पालतू बनाए जाने के चलते दो चीज़ें हुईं एक तो इनकी शिकार करने की प्रवृत्ति कम हुई, दूसरा पिंजड़ों में बंद रहने से ये प्रजनन करने के लिए भी उतने आज़ाद नहीं रहे. पैदा होने वाले शावकों में यूं भी 60 फ़ीसद तक मर जाते थे. और इनके मरने की एक बड़ी वजह थी इनका शिकार. लकड़बग्घे, शेर और बबून के लिए ये आसान शिकार होते थे. दरअसल मादा चीता ज्यादातर अकेले रहना पसंद करती है. और मादा जब नर के पास संसर्ग के लिए आती है उस दौरान इसके शावकों को अकेले रहना होता है. यानी अपनी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उनकी अपनी. और ये वक़्त दूसरे शिकारी जानवरों के लिए सबसे मुफीद होता है.
और जो शावक, शिकारियों से बच भी जाते थे उन्हें मां की दी हुई ट्रेनिंग नहीं मिल पाती थी. जो कि दो साल तक चलती अगर मां आज़ाद होती, पिंजड़े और जंजीरों में न कैद होती. जिसके चलते चीतों की आने वाली नस्लें कमजोर होती गईं.
इसके अलावा चीतों की सुंदर खाल भी उनके खात्मे की वजह बनी. तस्करों ने अन्धाधुन इनका शिकार किया. अरब देशों में तो आज भी चीतों के बच्चों को पालने के लिए ख़रीदा जाता है. इनकी क़ीमत करीब 7 लाख रूपए तक होती है. ये भी चीतों की तस्करी और ख़ात्मे की एक बड़ी वजह है.
चीतों को मारने पर ईनाम दिए गएवापस टाइमलाइन पर आते हैं. साल 1880 में पहली बार एक चीते के हमले में किसी इंसान की जान गई. विशाखापत्तनम के तत्कालीन गवर्नर के एजेंट 'ओ. बी. इरविन' शिकार के दौरान चीते के हमले में मारे गए. चीता विजयानगरम के राजा का पालतू था. इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने चीते को हिंसक जानवर घोषित कर दिया और चीते को मारने वालों को ईनाम दिया जाने लगा. एक्सपर्ट कहते हैं कि चीते 20वीं सदी की शुरुआत तक बेहद कम हो गए थे. और साल 1918 से 1945 के बीच राजा-महाराजा अफ्रीका से चीते मंगवाकर उन्हें शिकार के लिए इस्तेमाल करने लगे थे.
आख़िरी तीन चीतेसाल 1947. छत्तीसगढ़ की एक छोटी सी रियासत थी कोरिया. यहां के राजा रामानुज प्रताप सिंह उर्फ़ राजा सरगुजा ने भारत के आख़िरी तीन चीतों को भी शिकार में मार दिया, जिसके बाद 1951-52 में भारत सरकार ने भारतीय चीते को विलुप्त घोषित कर दिया. हालांकि इसके बाद बाद भी कोरिया इलाके में चीतों के देखे जाने की बात कही गई. लेकिन इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं हो सकी. इसलिए मोटे तौर पर यही माना जाता है कि भारत के आख़िरी 3 चीते राजा सरगुजा के शिकार की भेंट चढ़ गए. जिसके बाद उन्हें कभी शिकार के पीछे छलांग लगाते नहीं देखा गया.

कबीर संजय की लिखी किताब 'चीता- भारतीय जंगलों का गुम शहजादा' के मुताबिक, हिंदुस्तान में चीतों के खात्मे के बाद उज्बेकिस्तान में चीते आख़िरी बार 1982 में देखे गए. जबकि तुर्कमेनिस्तान में आख़िरी चीता नवंबर 1984 में देखा गया, उसके बाद इन देशों में भी चीतों को विलुप्त मान लिया गया.
आज़ाद भारत में चीतों के लिए क्या प्रयास हुए?आज़ादी के बाद जिस तरह शेरों और बाघों के लिए संरक्षण अभियान चलाए गए, वैसा चीते के मामले में नहीं हो सका. एशियाई शेरों को बचाने के लिए बीते सौ सालों में जो कोशिशें हुईं उनके चलते गुजरात के गिर नेशनल पार्क में शेरों की तादात 600 के करीब पहुंच गई है. हालांकि वैज्ञानिक मानते हैं कि गिर नेशनल पार्क में शेरों के लिए अब पर्याप्त जगह नहीं हैं, और दूसरा कि पूरी दुनिया में एशियाई शेर सिर्फ गिर नेशनल पार्क में ही बचे हैं, ऐसे में एक ही इलाके में सभी शेरों का होना उनके लिए तब और खतरनाक हो सकता है जब कोई महामारी फ़ैल जाए, इसलिए साल 2006-07 से शेरों को भारत के दूसरे इलाकों में बसाने की मांग शुरू हो गई. लेकिन गुजरात सरकार के लिए ये एक तरह से अस्मिता का प्रतीक बन गया, सरकार शेरों को कहीं और बसाने के लिए राजी नहीं हुई. इसके बाद मामला कोर्ट चला गया. वैज्ञानिकों की मांग थी कि शेरों को मध्यप्रदेश के 'कूनो वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी' में बसाया जाए. वही कूनो जहां अब अफ्रीकी चीतों को लाकर बसाया गया है. साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने शेरों को गुजरात से लाकर कूनो में बसाने की इजाजत दे दी. हालांकि कूनो में सारी तैयारियां पूरी हो जाने के बाद भी शेरों को बसाना शुरू नहीं किया गया.
अफ्रीकी चीते बसाने की कवायदअब रुख करते हैं चीतों की बसाहट की तरफ़. साल 2009 में चीतों को भारत में बसाने की कवायद शुरू हुई. कहा गया कि भारतीय चीतों को लुप्त हुए इतना वक़्त नहीं हुआ है कि इस इलाके में दोबारा चीते न बसाए जा सकें. योजना बनी कि अफ्रीकी देश नामीबिया से चीते लाकर भारत में बसाए जाएंगे. 'वाइल्ड लाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया' (WII) के वैज्ञानिकों की टीम ने भारत में दस जंगली इलाकों का सर्वे किया, तीन घास वाले इलाके फाइनल भी हुए. मध्यप्रदेश का कूनो वाइल्ड लाइफ सैंक्चुअरी, मध्यप्रदेश का ही नौरादेही वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी और राजस्थान का शाहगढ़ इलाका. प्लान फाइनल हो चुका था, करीब 300 करोड़ रुपए खर्च किए जाने तय हो गए थे. लेकिन साल 2012 आते-आते योजना स्थगित कर दी गई. कारण दो, एक हैबिटेट के शेरों के साथ साझा होने पर दोनों प्रजातियों को एक-दूसरे से होने वाले संभावित खतरों का डर और दूसरा अफ्रीकी चीतों के भारत में बस पाने को लेकर शंका.
दरअसल प्लान की शुरुआत में कहा गया था कि एशियाई चीतों को अपने अफ्रीकी रिश्तेदारों से अलग हुए बहुत लंबा वक़्त नहीं बीता है. लेकिन बाद में हुए शोधों से पता चला कि दोनों का रिश्ता 25 से 30,000 साल पहले ही पूरी तरह टूट चुका है.यानी जेनेटिक कोड अब दोनों का पूरी तरह अलग है. साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने अफ्रीकी चीतों को 'विदेशी प्रजाति' बताया. सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई में ये भी कहा गया कि कूनो में चीतों के लिए पर्यावास विकसित करने को लेकर कोई प्रयास नहीं किया गया है और वैसे भी वहां शेरों को बसाए जाने की योजना पर काम चल रहा है. ये भी कहा गया कि अफ्रीकी चीते यहां की जलवायु और बायोलॉजिकल कंडीशन में एडजस्ट कर पाएं ऐसा मुश्किल है. और इसके बाद ये योजना पूरी तरह ठन्डे बस्ते में चली गई. बताते चलें कि इसी तरह साल 1952 में ईरान से एशियाई चीतों को भारत लाने की योजना बनी थी, लेकिन परवान नहीं चढ़ सकी थी.
लेकिन इसके बाद अगस्त 2019 में एक बार फिर इस योजना को बल मिला. सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी (NTCA) को चीतों को लाने की मंजूरी दे दी. कहा गया कि एक्सपेरिमेंटल बेसिस पर नामीबिया से चीतों को लाकर भारत में बसाया जा सकता है. जनवरी 2020 में कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा कि हमने इस योजना को दस साल पहले शुरू किया था, और अब कोर्ट ने जो फैसला दिया है वो मेरे लिए खुशी की बात है. जयराम रमेश यूपीए सरकार में पर्यावरण और वन मंत्री रहे थे.
इसके बाद अगस्त 2020 में मध्यप्रदेश के कूनो, नौरादेही और राजस्थान के शाहगढ़ वाइडलाइफ सैंक्चुअरी सहित पांच इलाकों को शॉर्ट लिस्ट किया गया. और नवंबर 2020 में लिस्टेड साइट्स का सर्वे शुरू कर दिया गया.
जनवरी 2021 में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अध्यक्षता में हुई एक मीटिंग में कूनो के जंगली इलाके को सबसे बेहतर विकल्प मानकर इस इलाके का गहन अध्ययन शुरू कर दिया गया. साउथ अफ्रीका के एनडेंजर्ड वाइल्डलाइफ ट्रस्ट से 'डॉक्टर विन्सेंट वान डेर मर्व' कूनो पालपुर के दौरे पर आए, साथ में थे वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया (WII) के डॉ. Y.V. झाला. इन दोनों एक्सपर्ट्स ने हैबिटैट पर स्टडी की और इसे अफ्रीकी चीतों के रहने के लिए सही उचित ठहराया. तय हो गया कि अफ्रीका से चीते लाए जाएंगे. चीते साउथ अफ्रीकी ग्रुप द्वारा डोनेट किये जाने थे, भारत को बस इनके ट्रांसपोर्टेशन का खर्चा उठाना था. कूनो में 6 वर्ग किलोमीटर का इलाका चिह्नित कर दिया गया. और बाकी खर्चों के लिए सरकार ने 14 करोड़ रुपए भी आवंटित कर दिए. प्लान के मुताबिक़ सेंट्रल गवर्नमेंट, WII और कुछ डॉक्टर्स को ट्रेनिंग के लिए अफ्रीका जाना था. लेकिन 30 अप्रैल 2021 को NTCA की एक और मीटिंग हुई, जिसमें चीतों को लाने का प्रोग्राम नवंबर 2021 तक तय किया गया. कारण कोरोना संक्रमण का बढ़ता डर.
इसके बाद 5 जनवरी 2022 को NTCA की 19वीं मीटिंग हुई. जिसमें कहा गया कि अगले 5 साल में पचास चीते लाकर बसाए जाएंगे. फ़ॉरेस्ट, एनवायरनमेंट एंड क्लाइमेट चेंज मिनिस्टर भूपेन्द्र यादव ने कहा कि एक्शन प्लान के मुताबिक चीतों को लाये जाने की तैयारी पूरी कर ली गई है. हर साल तीन बार NTCA की मीटिंग होगी और चीते सहित कुल सात विडालवंशियों के संरक्षण पर काम किया जाएगा.
और फिर आखिरकार बीते साल पीएम मोदी के जन्मदिन पर 17 सितंबर को नामीबिया से चीतों की पहली खेप भारत आई. इसमें आठ चीते लाए गए.
NTCA का एक्शन प्लानकूना सैंक्चुअरी में अफ्रीकी चीतों के रहने के लिए स्थितियां कैसी हैं, अफ्रीकी चीतों के लिए यहां एडजस्ट करना कितना आसान या मुश्किल हो सकता है. इस बारे में हमने NTCA के 310 पन्ने के एक्शन प्लान का बारीकी से अध्ययन किया.
ये एक्शन प्लान IUCN यानी इंटरनेशनल यूनियन ऑफ़ कंजर्वेशन ऑफ़ नेचर की गाइडलाइन्स के मुताबिक तैयार किया गया है. कुछ ख़ास बातें आपको बताए देते हैं.
#आकलन बताता है कि कूनो में अफ्रीकी चीतों के रहने के लिए अनुकूल पर्यावास है.
#कूनो नेशनल पार्क में अभी 21 चीतों के रहने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं. एक बार चीतों के बस जाने के बाद कूनो में शेरों के बसाए जाने से भी चीतों को कोई समस्या नहीं होगी. कूनो में एक साथ शेर, बाघ, तेंदुए और चीते रह सकते हैं.
#अफ्रीकी चीतों को भारत में बसाए जाने में जेनेटिक स्तर पर कोई समस्या नहीं है. पहले जो स्टडी इस आधार पर की गई हैं कि एशियाई और अफ्रीकी चीतों को पूरी तरह एक दूसरे से अलग हुए 10 से 20,000 साल हो गए हैं, वह चिंता का आधार नहीं हैं. अफ्रीकी और एशियाई शेरों में, तेंदुओं और बाघों की पांच प्रजातियों के बीच जेनेटिक गैप, चीतों की प्रजातियों के बीच के गैप से बहुत ज्यादा बड़ा है.
#चीते की सभी प्रजातियों में कोई ख़ास फर्क नहीं है. साल 2021 का IUCN-CMS डॉक्यूमेंट भ्रमित करने वाला और गलत है. जिसमें कहा गया है कि दक्षिण अफ्रीकी चीते की तुलना में पूर्वोत्तर अफ्रीकी चीता, एशियाई चीते से ज्यादा नजदीक है. हमने इस डॉक्यूमेंट के बारे में IUCN के को-चेयरमैन को बता दिया है और उन्होंने इसे मान भी लिया है. साउथ अफ्रीकी चीता भी दूसरी स्पीशीज से उतना ही करीब है जितना नॉर्थईस्टर्न चीता.
#कूना में चीते के लिए उपलब्ध आहार के लिए 15 फरवरी 2021 से 29 अप्रैल 2021 तक सर्वे किया गया है. प्रति स्क्वायर किलोमीटर 23 से ज्यादा शिकार मौजूद हैं. कुल बारह प्रजातियां हैं जिनका चीते शिकार कर सकते हैं, इनमें सबसे ज्यादा उपलब्धता चीतल की है. चीतों के लिए कुल 12,798 की प्रे पापुलेशन है.
एक्शन प्लान में पूरे प्रोजेक्ट के फेल होने या सफल होने के भी कुछ क्राइटेरिया निर्धारित किए गए. कहा गया है कि मांसाहारी जीवों के ट्रांसलोकेशन की प्रक्रिया एक उचित संरक्षण नीति है. अगर सब कुछ ठीक रहा तो इकोसिस्टम को रिस्टोर करने में ये बड़ी सफलता होगी. ये भी कहा गया था कि कुछ नुकसान भी संभव हैं जिनके चलते ये प्रोग्राम पूरी तरह या पार्शियली फेल भी हो सकता है और कीमती, सीमित रिसोर्सेज़ का नुकसान हो सकता है.
अफ्रीकी चीतों की बसाहट कितनी सही?कुछ वाइल्डलाइफ एक्सपर्ट इस प्लान को पूरी तरह ठीक नहीं मानते. उनका पक्ष इसके विपरीत है. हमने इस बारे में अजय दुबे से बात की. अजय वाइल्डलाइफ एक्टिविस्ट हैं.
अजय कहते हैं कि कूनो को पहले शेरों के लिए चुना गया था. उन्होंने कहा,
"गुजरात के गिर से शेरों को लाकर बसाने के लिए कूनो नेशनल पार्क का सेलेक्शन हुआ था. शेरों के लिए दूसरे पर्यावास की आवश्यकता थी. शेरों के लिए ये बेहतर जगह थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट के बाद यहां पर फिर चीते लाए गए. आज जब चीता प्रोजेक्ट को एक लंबा समय हो रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने भी अनुमति दी दे है, तो हैबिटेट पर बात करना उतना जरूरी नहीं है. शेर भी लाए जा सकते हैं."
अजय के मुताबिक चीतों के लिए सबसे बड़ी समस्या, कूनो में शिकार का कम होना है. वे कहते हैं,
“चीतों के लिए समस्या, वहां का कमजोर प्रे-बेस है. आज की स्थिति में देखें तो अधिकतर चीते अभी कैप्टिव हैं. कैद में हैं. लेकिन जब उन्हें खुला छोड़ा जाता है तो शिकार की दिक्कत है. प्रे-बेस की हालत मेरी नजर में अच्छी नहीं है. इसे बेहतर करने की जरूरत है.”
अजय कहते हैं कि चीतों के लिए दूसरे बड़े शिकारी जानवर भी जानलेवा चुनौती है. वे कहते हैं,
“चीतों के लिए राजस्थान के रणथम्भौर टाइगर रिज़र्व से जो बाघ आते हैं और उनके अलावा बड़ी तादाद में लेपर्ड होना निश्चित रूप में से एक चुनौती है. ये चुनौती जानलेवा साबित हो सकती है. लेकिन जब भारत सरकार से जब इस प्रोजेक्ट को अप्रूवल मिला तब भी हमें इस चुनौती के बारे में पता था.”
चीतों की मौत के पीछे क्या वजह है? इस पर अजय कहते हैं,
WII क्या कहता है?“अफ्रीकी और नामीबियाई चीतों की मौत के लिए मध्यप्रदेश का वाइल्डलाइफ मैनेजमेंट जिम्मेदार है. वहां पर जो अधिकारी हैं वो वाइल्डलाइफ में ट्रेंड नहीं हैं. चीता प्रोजेक्ट के प्रबंधन के लिए जो वादे किए गए थे. वो सही साबित नहीं हुए. चिकित्सा सुविधा का ये हाल है कि भोपाल के पशु चिकित्सक सब मैनेज कर रहे हैं. हमारे मंत्रियों और अधिकारियों ने पिछले डेढ़ साल में नामीबिया और साउथ अफ्रीका के दौरे किए. चीतों को कैसे रखना है, उसकी ट्रेनिंग भी ली. उसके बावजूद चीतों का प्रबंधन बेहतर नहीं हो रहा है.”
जो कुछ WII के तैयार किए गए एक्शन प्लान में था, फैयाज़ की बातें काफ़ी कुछ उसके विपरीत थीं. इसलिए हमने WII के तात्कालिक डीन और एक्शन प्लान को तैयार करने वाली टीम के प्रमुख रहे वैज्ञानिक YV झाला से बात की थी. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, सितंबर-2022 में नामीबिया से चीतों का पहला जत्था आने के बाद ही झाला को सरकार की नई चीता टास्क फोर्स से हटा दिया गया था.
एशिया और अफ्रीका के चीतों के बीच जेनेटिक अंतर पर झाला ने हमसे कहा था,
"एक्शन प्लान में हमने स्पष्ट किया है कि दुनिया भर के चीतों में कोई फर्क नहीं है, ये आइडेंटिकल ट्विन्स की तरह होते हैं. जेनेटिक अंतर उतना ही है जितना कि स्पेन और जर्मनी के लोगों के बीच है."
भारत और अफ्रीका के क्लाइमेट चेंज पर झाला ने कहा था,
"हमने एक्शन प्लान में स्पष्ट किया है कि अफ्रीकी चीतों के लिए भारतीय जलवायु उपयुक्त है. भारत में चीते इसलिए ख़त्म हुए क्योंकि उनका शिकार किया जा रहा था और उनके पर्यावास का इस्तेमाल खेती के लिए किया जाने लगा था."
अफ्रीका में चीतों को खुले मैदान उपलब्ध हैं लेकिन भारत में घसियाले मैदान उपलब्ध नहीं हैं, इस पर झाला ने कहा था,
"चीता की प्रजाति भारत में अलग-अलग हैबिटैट में पाई जाती थी, रेगिस्तान से लेकर जंगली इलाकों तक, इसलिए ये नहीं कहा जा सकता कि चीते सिर्फ घसियाले मैदान में ही रह सकते हैं. और चीते हैबिटैट के मुताबिक़ अपने शिकार की पद्धति भी बदल लेते हैं. चीते छिपकर शिकार करने वाले शिकारी भी बन जाते हैं और चेज़ करके भी शिकार कर लेते हैं. भारत के आख़िरी चीते घने जंगल में पाए जाते थे. कूनो में हालांकि घास के मैदानों की कमी है, लेकिन वो चीतों के लिए उपयुक्त रहेगा. हमने अफ्रीकी लोगों को कूना का दौरा करवाया है उनका कहना है कि यहां हैबिटैट हमारे यहां से बेहतर है."
हालांकि अब जब हमने YV झाला से संपर्क करने की कोशिश की तो उन्होंने फ़ोन नहीं उठाया. और मैसेज में हमें बताया कि वो विदेश में हैं. रिपोर्ट लिखे जाने तक हमारी चीतों के सन्दर्भ में उनसे बात नहीं हो सकी है.
हालांकि 9 मई को केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने चीतों के बारे में एक और जानकारी दी. कहा है कि 5 चीतों जिनमें तीन मादा और दो नर होंगे, उनको जून में मॉनसून की शुरुआत से पहले कूनो नेशनल पार्क में रिलीज कर दिया जाएगा. मंत्रालय ने यह भी कहा कि चीतों को कूनो नेशनल पार्क से बाहर जाने दिया जाएगा और उन्हें तब तक वापस नहीं लाया जाएगा जब तक कि चीते उन क्षेत्रों में न जाएं, जहां उनकी जान को खतरा हो.
कूनो नेशनल पार्क के DFO प्रकाश कुमार वर्मा ने आजतक से फोन पर बातचीत करते हुए बताया कि चीतों को बड़े बाडे से खुले में छोड़ने की तैयारी पूरी है और जल्द ही टास्क फोर्स की बैठक की जाएगी, जिसमें चीता रिलीज को लेकर चर्चा होगी.
तो उम्मीद यही है कि बाकी बचे चीतों को लेकर जरूरी निर्णय लिए जाएंगे.

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