The Lallantop
Advertisement

मुलायम अपना इतिहास याद कर लें, उनके लिए बेस्ट बर्थडे गिफ्ट होगा

हैपी बर्थडे मुलायम सिंह यादव.

Advertisement
Img The Lallantop
font-size
Small
Medium
Large
22 नवंबर 2020 (Updated: 21 नवंबर 2020, 04:43 IST)
Updated: 21 नवंबर 2020 04:43 IST
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
'मोबाइलों के दौर के आशिक को क्या पतारखते थे कैसे ख़त में कलेजा निकाल के'
21 नवंबर, 2016 को मुलायम सपा की मीटिंग में जो बोले, उससे उदय प्रताप सिंह का ये शेर याद हो आया. उन्होंने पुराने दिनों को सुनहरे दिनों की तरह याद किया और कहा कि ये लड़के जो अखिलेश भैया, अखिलेश भैया कर रहे हैं, एक लाठी तक नहीं झेल पाएंगे.
उन्होंने कहा, 'पार्टी को इस स्तर पर लाने के लिए हमने खूब लाठियां खाई हैं. जो आदमी बड़ा नहीं सोच सकता, वो नेता नहीं बन सकता.' वो  राजनीति कौन सी थी, वे दिन कौन से थे, जो पारिवारिक कलह के बीच उनकी जुबान से गर्व बनकर फूट पड़े थे.

आइए, मुलायम की राजनीति बतियाते हैं. समझते हैं.

अस्सी और नब्बे के दशक में बैकवर्ड पॉलिटिक्स यूपी में छाई हुई थी. हालांकि उत्तर प्रदेश में बैकवर्ड पॉलिटिक्स स्वतंत्रता के बाद से ही चल रही है. SC और ST को संविधान के जरिये राजनीति में स्थान मिल गया था. OBC आए कालेलकर और मंडल कमीशन के बाद. इस समुदाय में एजुकेशन नहीं थी. सामाजिक व्यवस्था में भी ये सवर्णों से नीचे आते हैं. पर ग्रामीण परिवेश में इनका दबदबा है. क्योंकि जमीन और खेती में इनका अच्छा खासा रौला है. पर नेता उतने मजबूत नहीं उभर पाये थे बैकवर्ड क्लास से.
मुलायम सिंह यादव के लिए ये उर्वर संभावना थी.

लोहिया ने यूपी को कांग्रेस के लिए बुरा सपना बना दिया था, मुलायम थे इसके गवाह

राम मनोहर लोहिया, चौधरी चरण सिंह और कांशीराम ने जरूर कोशिश की थी बैकवर्ड क्लास की राजनीति करने की. लोहिया ने जाति के आधार पर लोगों को इकट्ठा करना शुरू किया. कांशीराम ने भी बहुजन समाज की कल्पना की थी. पर चौधरी चरण सिंह ने जाट और यादव को मिलाकर जो राजनीति शुरू की, उसके बाद पहली बार बैकवर्ड समाज के लोगों को अपनी पहचान और ताकत दिखाने का मौका मिला. पर 1979 में प्रधानमंत्री बनने के बाद चरण सिंह ने 'कुलाक बजट' पेश किया जिससे सिर्फ बड़े किसानों को ही फायदा हुआ. कुलाक रूस में बड़े किसानों को कहा जाता था. मंडल कमीशन बैठा जरूर पर लागू नहीं हुआ.
ram manohar lohia
राम मनोहर लोहिया



4
1989 का साल OBC समाज के लिये एकदम सब कुछ नया ले के आया. एक ठाकुर प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू कर दिया. उसी वक्त भाजपा ने राम मंदिर का मुद्दा उठा दिया. तब तक OBC समाज के लिये ऐसा कोई नेता खड़ा नहीं हो पाया था जो सबको एकजुट कर सके. नतीजन OBC कई ग्रुपों में बंट गये.



राम मनोहर लोहिया और चौधरी चरण सिंह की राजनीति को कोई भुनाने में कामयाब रहा तो वो थे मुलायम सिंह यादव. भले वो बातों से ही हो. मुलायम 1967 में लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (SSP) से विधायक बने. 1968 में लोहिया की मौत के बाद मुलायम ने चरण सिंह की भारतीय कृषक दल(BKD) जॉइन कर ली. 1974 में इसी के टिकट से फिर विधायक बने. उसी साल दोनों पार्टियों का विलय हो गया. नाम पड़ा भारतीय लोक दल (BLD). ये पार्टी 1977 में जनता पार्टी के साथ मिल गई. और उत्तर प्रदेश में उसी साल मुलायम सिंह यादव स्टेट कैबिनेट में मिनिस्टर बने. चरण सिंह ने 1979 में जनता पार्टी से नाता तोड़ लिया और लोक दल के नाम से नई पार्टी बना ली. मुलायम उनके साथ ही रहे.


4
1987 में चरण सिंह की मौत हो गई. लोक दल दो ग्रुपों में टूट गया. एक फैक्शन चरण सिंह के बेटे अजित सिंह के साथ चला गया. दूसरा मुलायम सिंह यादव के साथ. 1989 में मुलायम ने जनता दल के साथ नाता जोड़ लिया. 1990 में जनता दल टूटा और मुलायम चंद्रशेखर के साथ चले गये. इसको SJP कहा गया. सितंबर 1992 में मुलायम ने इस पार्टी को भी छोड़ दिया और एक नई पार्टी बना ली. समाजवादी पार्टी
.


 
mulayam singh 1992

मुलायम के पास तीन सूरमाओं के साथ काम करने की ट्रेनिंग था. उन्होंने लोहिया की सोशलिस्ट पॉलिटिक्स, चरण सिंह की किसान पॉलिटिक्स और वी पी सिंह की बैकवर्ड पॉलिटिक्स को करीब से देखा था . उनके पास मौका था कि तीनों विचारों को साथ लेकर राजनीति शुरू करें, क्योंकि ये तीनों ग्रुप यूपी का बहुत बड़ा वोटबैंक था. इसके साथ ही ये मौका भी था कि मुस्लिम समुदाय को भी जोड़ लेते अपने साथ. 1989 के चुनावों में बैकवर्ड समाज खुल के सामने आया था और जनता दल ने 208 सीटों और 30 प्रतिशत वोटों के साथ सरकार भी बनाई थी. समाजवादी पार्टी के वोटों का ज्यादातर हिस्सा इसी वोट बैंक से आया था.


4
पर असल बात यही है कि इस पूरे वोट को काबू में करने के लिये जिस व्यक्तित्व की जरूरत थी वो मुलायम के पास नहीं था. क्योंकि ओबीसी समुदाय ने हमेशा ही दलित समाज का शोषण किया था. इस खाई को मुलायम पाट नहीं पाये थे. हालांकि इसके लिये रास्ता निकालने की कोशिश की. 1993 में बसपा के साथ गठबंधन कर के. पर ये चल नहीं पाया क्योंकि दोनों ही पार्टियां बैकवर्ड समाज, दलित समाज और मुस्लिमों को ही लुभाना चाह रही थीं.



मुलायम को राजनीति की जो ट्रेनिंग मिली थी,  उसका इस्तेमाल करने की ताकत नहीं थी उनमें

फिर समाजवादी पार्टी ने मुस्लिमों और बैकवर्ड हिंदुओं को मिलाकर नई राजनीति शुरू की. बाबरी मस्जिद की आड़ में भाजपा का भय दिखाकर मुसलमानों को अपनी तरफ करने की कोशिश की. फिर हिंदू समाज को फॉरवर्ड और बैकवर्ड में बांटकर खुद को बैकवर्ड समाज का मसीहा बनाने की भी कोशिश की. पर यादवों के अलावा बहुत ज्यादा बैकवर्ड मुलायम की तरफ नहीं आ पाए. फिर मुलायम ने एक और दांव चला. राजा भैया और अमर सिंह के साथ मिलकर राजपूत वोटों को भुनाने की भी कोशिश की. 2004 लोकसभा चुनाव में जाकर इनको 19 प्रतिशत ठाकुरों का वोट मिल पाया. 1999 के लोकसभा चुनाव में ये मात्र 4 प्रतिशत था. 2002 के विधानसभा चुनावों में सपा को सवर्णों के वोट जरूर मिले थे लेकिन मुस्लिमों के वोट कट गये थे.


4
पूरे उत्तर प्रदेश में इनका वोट बैंक समान नहीं है. वेस्ट यूपी में यादव-गुर्जर-मुस्लिम राजनीति करने के बावजूद सपा जाटलैंड में ज्यादा जुगाड़ नहीं बना पाई है. बुंदेलखंड में वोट ठीक-ठाक मिलते हैं पर सीटों में बसपा और भाजपा से टक्कर रहता है. पर बुंदेलखंड के ओबीसी में इनका दबदबा दिखा 2004 के लोकसभा चुनावों में. रूहेलखंड, दोआब, अवध और पूर्वांचल में इनकी स्थिति हमेशा बढ़िया रही है.



 
Mulayam Meme

मुलायम ने अपनी राजनीति ही कांग्रेस के खिलाफ खड़ी की थी तो उनसे गठजोड़ करने का सवाल ही नहीं उठता. फिर मुस्लिम वोट के चलते भाजपा से भी नहीं हो सकता. बसपा के साथ कोशिश हुई थी. पर गेस्टहाउस कांड और दोनों के वोट बैंक सेम होने के कारण इनसे भी गठबंधन नहीं हो सकता. इसीलिये सपा को कौमी एकता दल, राष्ट्रीय क्रांति पार्टी जैसे दलों के साथ गठजोड़ के लिये जूझना पड़ता है.
गठजोड़ करने में मुलायम ने तीन टेक लिये हैं. शुरूआत में एंटी कांग्रेस, एंटी भाजपा के आधार पर जनता दल और अन्य सेकुलर पार्टियों के साथ मिलकर सरकार भी बनाई 1989 में. 1996 में देवगौड़ा की केंद्र सरकार में डिफेंस मिनिस्टर भी रहे. कांग्रेस इसमें बाहर से सपोर्ट कर रही थी. 1998-99 में मुलायम ने कांग्रेस के प्रति अपनी नरमी दिखाई पर सोनिया की नेतागिरी को स्वीकार नहीं किया. फिर बाद में सोनिया को अपना नेता मानने में भी संकोच नहीं किया. तो मुलायम को टेक बदलने में कोई संकोच नहीं है. पर सपा कभी भी कांग्रेस के साथ चुनाव से पहले गठजोड़ नहीं कर सकती. अगर ऐसा हुआ तो मुस्लिम और सवर्णों के वोट कांग्रेस को चले जाने की संभावना है. इससे मुलायम के प्रधानमंत्री बनने की संभावना को धक्का लग जायेगा.
हालांकि उनके बेटे और समाजवादी पार्टी के वर्तमान अध्यक्ष अखिलेश यादव ने 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का हाथ थाम लिया. लेकिन ज्यादा दूर साथ चल नहीं सके. 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा के साथ भी गए. लेकिन चुनाव बाद ही दोनों के राह अलग हो गए.

जन्म के वक्त ही सपा को मौका मिला था राजनीति में क्रांति करने का, पर मुलायम हर बात से मुकरे




4
1992 में जब समाजवादी पार्टी का उदय हुआ तो उत्तर प्रदेश बड़े ही रोचक दौर से गुजर रहा था. देश में मंडल, मंदिर और मार्केट की गूंज चल रही थी. और उत्तर प्रदेश इसका केंद्र बना हुआ था. मुलायम के लिये ये बड़ा चुनौती वाला वक्त था. मंडल के साथ सोशल जस्टिस को देखना था. मंदिर के साथ मुलायम के सेकुलरिज्म का एसिड टेस्ट हो रहा था. मार्केट में मनमोहन ने सुधार किया था. प्राइवेटाइजेशन की तरफ. और ये मुलायम के समाजवाद के खिलाफ था.



सोशल जस्टिस के मुद्दे पर सपा को ज्यादा फायदा नहीं हुआ. क्योंकि यादव, अहीर जैसी जातियां दूसरी जातियों के साथ फायदे बांटने के लिये तैयार नहीं थीं. ये जातियां मोस्ट बैकवर्ड क्लासेज के साथ नहीं जुड़ना चाहती थीं. बाद में राजनाथ सिंह की सरकार ने इस चीज को एड्रेस करने की कोशिश की. हुकुम सिंह कमिटी की सिफारिशों पर मोस्ट बैकवर्ड क्लासेज को प्रपोर्शनल रिजर्वेशन देने की बात की तो सपा ने हल्ला मचा दिया. इनको लगा कि इसी बहाने भाजपा ओबीसी को बांट रही है. ये नहीं समझ पाए कि इस चीज के साथ समाज में ज्यादा बदलाव आएगा. एकरूपता आएगी. babri

मुलायम की पार्टी को सबसे ज्यादा फायदा हुआ था मंदिर के मुद्दे पर. अक्टूबर 1992 में जब समाजवादी पार्टी लॉन्च हुई तो उस वक्त उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की सरकार थी. बाबरी मस्जिद दिसंबर में गिराई गई और मुलायम ने इसे बारूद की तरह इस्तेमाल किया. मुस्लिमों को ये लगा कि भाजपा के इस काम में कांग्रेस की मौन सहमति है. मुसलमान आराम से मुलायम की तरफ आ गये. इससे पहल जब मुलायम 1989 में मुख्यमंत्री थे तब भी उन्होंने कारसेवकों के प्रति कुछ ज्यादा ही कड़ा रुख अपना लिया था. इनको मौलाना मुलायम कहा जाने लगा था. पर 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे में मुलायम की पोल खुल गई थी.
फिर मुलायम ने अपने समाजवाद को खूंटे पर टांगा और अमर सिंह के साथ कदम बढ़ाते हुए कॉरपोरेट की तरफ चल दिए. अमर सिंह को स्टेट इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट काउंसिल का चेयरमैन बना दिया गया. रिलायंस के अनिल अंबानी, हिंदुस्तान लीवर के एम एस बंगा, ICICI के कामथ, बजाज के शिशिर बजाज, इंफोसिस के नीलेकनी, मनिपाल के रामदास पई, सहारा के सुब्रत रॉय और अपोलो हॉस्पिटल के रेड्डी सब जुड़े थे इससे. अमिताभ बच्चन को यूपी का ब्रांड एंबेसडर बनाया गया. कहां ग्रामीण परिवेश की बातें और कहां ये बड़ी-बड़ी बातें.


4
'कैरवेन' मैगजीन ने इस बारे में अखिलेश को कोट किया है. अखिलेश ने अपने एक दोस्त से कहा कि खटिया पर सोने वाले मेरे बाप को अमर सिंह ने 5 स्टार की आदत लगा दी.



समाजवादी पार्टी में सिर्फ मुलायम ही बोलते हैं, बाकी लोग देखते हैं

सपा ने अपने लिए कई समस्यायें भी खड़ी की हैं. मुलायम ने खुद को अमर मानते हुये कभी सेकेंड लाइन के नेताओं को खड़ा नहीं होने दिया. भाई शिवपाल और रामगोपाल हमेशा पार्टी में नंबर दो रहे. आजम खान और अमर सिंह की मौजूदगी हमेशा रही पर ये कभी मुलायम की सीमा नहीं लांघ पाए. छिटपुट बवाल हुए तो नेताजी ने जो कहा, उसे सबने माना. बाद में मुलायम ने अपने बेटे अखिलेश को खड़ा कर दिया. अब इस जेनरेशन के बेटे, बहुएं सब राजनीति में आ रहे हैं. मुलायम की दूसरी बीवी साधना के बेटे प्रतीक और बहू अपर्णा अखिलेश को चुनौती दे रहे हैं. शायद यही वजह है कि जब अखिलेश के दोस्त सुनील सिंह साजन, आनंद भदौरिया, उदयवीर सिंह और पवन पांडे ने अपना सिर मुलायम से अलग उठाना शुरू किया तो उन्हें 'कट लो' की पर्ची दे दी गई.


4
मुलायम ने कभी अपने समर्थकों को पॉलिटिकल ट्रेनिंग नहीं दी. इसीलिये सपा पर हमेशा गुंडई का इल्जाम लगता रहा है. क्योंकि समर्थक डेमोक्रेटिक प्रोसेस से अनजान हैं. उन्हें चीखने-चिल्लाने में ही मजा आता है.



 
mulayam

इन्हीं चीजों के दायरे में, मुलायम ने लोहिया की कांग्रेसी वंशवाद के खिलाफ खड़ी की गई राजनीति का भुट्टा भूनकर खा लिया. फिर अमर सिंह मिले तो चरण सिंह का हाथ भी छोड़ दिया. किसानी को कोटा पॉलिटिक्स में बदल दिया. विकास के नाम पर मुलायम का रुख बड़ा ही पिछड़ा रहा है. एक वक्त था कि मुलायम कंप्यूटर और अंग्रेजी के खिलाफ थे. स्कूल-कॉलेज की परीक्षाओं में चीटिंग को वेलफेयर स्कीम में बदल दिया.
फिर जब अखिलेश मुख्यमंत्री बने तो लैपटॉप स्कीम लेकर आये. अखिलेश का मुख्यमंत्री बनना मुलायम की राजनीति से बहुत अलग था. उनके दोस्त नये जमाने की पॉलिटिक्स लेकर आये. पर ये पुराने धुरंधरों को गवारा नहीं है. अभी शिवपाल के साथ हुई तकरार के बाद बोलते हुये अखिलेश ने यही कहा था कि जब जनता मुझसे पूछेगी तो मैं क्या जवाब दूंगा? ये चीज सपा में पहली बार हुई थी. और ये सपा की पूरी राजनीति के खिलाफ था. तो तकरार होनी ही थी.
अखिलेश सिंह को भी 3 साल लग गये मुलायम की छत्र-छाया से निकलने में. शुरूआत में तो वो ये भी कहते थे कि राजा भैया को सिर्फ नेताजी ही समझा सकते हैं. फिर मुलायम की भरोसेमंद रही प्रिंसिपल सेक्रेटरी अनीता सिंह से भी मुख्यमंत्री की नहीं बनी. वो अलग पावर स्ट्रक्चर में काम करती थीं. मुख्यमंत्री से अलग डिसीजन भी लेती थीं.


Reference: Political Process in Uttar Pradesh- Sudha Pai


ये भी पढ़ लो, सपा की पूरी कहानी शीशी में उतार लोगे

सपा की कलह में 'छोटी बहू' के पापा का क्या रोल है?

शिवपाल सिंह यादव की पूरी कहानी

मुलायम ने गले मिलवाया, लेकिन फिर झगड़ पड़े अखिलेश-शिवपाल

मुलायम के सामने शिवपाल ने अखिलेश को झपिलाया, आज निकाली सारी भड़ास

नेताजी आपकी पार्टी है, पर मेरा भी तो करियर है: रोते हुए बोले अखिलेश यादव

सपा का नया ड्रामा रिलीज़, चाचा शिवपाल समेत तीन मंत्री कैबिनेट से बाहर

मुलायम के भतीजे का ब्याह, जमकर ठुमके घरवाले

शिवपाल यादव ने फिर भगा दिया अखिलेश के इन दो खास आदमियों को!

अखिलेश यादव का सामान कमरे से निकाल फ़ेंका था शिवपाल ने!

आज मुलायम सिंह यादव ने अपने जीवन की सबसे बड़ी गलती कर दी

अखिलेश-डिंपल को टक्कर देने आया जयंत-चारु का नया जोड़ा

यादव परिवार में ये भसड़ क्यों मची हुई है?

मुख्तार अंसारी समाज में नासूर है, पर पॉलिटिक्स में ‘नेल पॉलिश’ है

thumbnail

Advertisement