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राम नवमी पर पश्चिम बंगाल से महाराष्ट्र तक आगजनी बवाल करने वाले कौन?

शांत छवि वाले भगवान राम के नाम का इस्तेमाल लोगों को डराने-धमकाने में क्यों हो रहा है?

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संभाजीनगर में फिलहाल हालात काबू में हैं. (ANI)
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30 मार्च 2023 (Updated: 30 मार्च 2023, 22:36 IST)
Updated: 30 मार्च 2023 22:36 IST
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भारत हमेशा एक उत्सव प्रधान देश रहा है. हर दिन एक नया त्यौहार. या कोई मेला. बीते दिन नवरात्र खत्म हुआ. आज रामनवमी है. रमजान भी चल रहा है. सब अपने मत और विश्वास के आधार पर त्यौहार मनाते हैं. लेकिन पिछले कुछ सालों में इन त्यौहारों पर एक अलग तरह का ट्रेंड नज़र आने लगा है. खासतौर पर रामनवमी वाले दिन. सिर पर भगवा पगड़ियां पहने, हाथों में नंगी तलवारें लहराते नौजवान जुलूस निकलते हैं. ये जुलूस कई बार दूसरे समुदाय के मोहल्लों या उनके धार्मिक स्थलों के सामने से गुजरते हैं. फिर अचानक तनाव फैलता है. अगले कई दिनों तक इलाके में पुलिस बल तैनात कर दिया जाता है. 

पिछले कुछ सालों में हमने देखा है कि देश के अलग-अलग हिस्सों से लगातार रामनवमी वाले दिन हिंसक झड़पों और पथराव की खबरें आने लगी हैं. इन जुलूस के लिए भारी संख्या में पुलिस और दंगा नियंत्रक फोर्स तैनात करने की जरूरत पड़ने लगी है. इस साल भी ऐसी ही खबरें महाराष्ट्र, गुजरात, बंगाल से आई हैं. क्यों हो रहा है ऐसा और क्या है इसके पीछे वजहें यही समझने की कोशिश करेंगे.  

शुरुआत खबरों से करते हैं. हिंसा की पहली खबर आई महाराष्ट्र के छत्रपति संभाजी नगर (पूर्व में औरंगाबाद) से. यहां 29-30 मार्च की दरमियानी रात एक मंदिर के बाहर दो लड़कों के बीच हुआ एक छोटा सा झगड़ा, जो दंगे में बदल गया. देखते ही देखते दोनों ओर से भारी संख्या में भीड़ इकट्ठी हो गई और एक दूसरे पर पथराव करने लगी. आधी रात को उपद्रवियों ने कई वाहनों में आग लगा दी. बमबाजी भी की गई. पुलिस की कई गाड़ियां भी तोड़ दी गईं. हालात को नियंत्रित करने के लिए पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़े. मौक़े पर बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों को तैनात किया गया है.

संभाजी नगर के बाद महाराष्ट्र के जलगांव से भी हिंसा और पथराव की खबर आईं. एक पालकी यात्रा के दौरान दो गुटों के बीच झड़प हुई. इसमें चार लोग घायल हो गए और कई सारी गाड़ियां तोड़ दी गईं. एक पक्ष ने दावा किया कि पालकी यात्रा पर दूसरे गुट के लोगों ने पथराव किया. जबकि दूसरे पक्ष ने कहा कि मस्जिद में नमाज चल रही थी. इस दौरान बाहर कुछ लोग बाहर तेज म्यूजिक बजा रहे थे. जिसकी वजह से झड़प हुई और पथराव शुरू हुआ. जलगांव SP, एम राजकुमार ने बताया कि दो FIR दर्ज की गई हैं. 45 लोगों को हिरासत में लिया गया है. फिलहाल हालात क़ाबू में हैं.

राज्य के गृहमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने जलगांव की घटना को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है. उन्होंने कहा कि कुछ नेता अपने स्वार्थ के लिए माहौल खराब करने में लगे हैं. उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए. नेताओं को सावधान रहना चाहिए कि ऐसे समय में वे किस तरह का व्यवहार कर रहे हैं.

बात नेताओं के बयान और व्यवहार की हो रही है तो टी राजा सिंह का जिक्र जरूरी है. टी राजा हाल ही तक बीजेपी में थे. वो अब भी तेलंगाना में विधायक हैं. उन पर मुंबई में मुकदमा दर्ज किया गया है. उन पर 29 जनवरी को मुंबई में एक रैली के दौरान भड़काऊ भाषण देने का आरोप है. FIR में कहा गया है कि रैली में   दिया गया राजा सिंह का बयान हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दुश्मनी पैदा करवा सकता है और धार्मिक सद्भाव को नुकसान पहुंचा सकता है.

राजा सिंह ने अपने बयान में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों का पूरी तरीके से आर्थिक बहिष्कार करने की अपील की थी.

पिछले कुछ महीनों में टी राजा ने कई रैलियों में मुस्लिम समाज के खिलाफ खूब भड़काऊ और हिंसा को बढ़ावा देने वाले भाषण दिए. वो इससे पहले भी कई विवादित भाषणों को लेकर चर्चा में रहे हैं. तेलंगाना सहित कई राज्यों में उनके खिलाफ हेट स्पीच के मामले दर्ज हैं. राजा सिंह को अगस्त 2022 में इस्लाम और पैगंबर मोहम्मद के खिलाफ कथित टिप्पणी के लिए गिरफ्तार भी किया गया था. इसके बाद उन्हें बीजेपी से से निलंबित भी कर दिया गया था.

हिंसा की खबर महाराष्ट्र के पड़ोसी राज्य गुजरात से भी आई है. यहां रामनवमी पर विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल ने रैली निकाली थी. रैली मुस्लिम आबादी की रिहायश वाले फतेपुरा इलाके में पहुंची तो यहां दोनों समुदायों के बीच झड़प हो गई. रैली निकाल रहे लोगों का कहना था कि अकारण ही उन पर पथराव किया गया. जबकि दूसरे पक्ष का कहना था कि रैली में शामिल लोग आपत्तिजनक नारेबाजी कर रहे थे और दरगाह के अंदर घुसकर नाचने की कोशिश कर रहे थे. जिसके बाद झड़प हुई और फिर पथराव शुरू हो गया. आज तक से जुड़े दिग्विजय पाठक की रिपोर्ट के मुताबिक 10-12 गाड़ियां तोड़ दी गईं. फिलहाल हालात पुलिस के नियंत्रण में है.

अब रुख करते हैं बंगाल का. यहां रामनवमी पर सियासत का रंग दस दिन पहले से चढ़ने लगा था. जब 21 मार्च को सूबे की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने केंद्र पर बंगाल के साथ भेदभाव का आरोप लगाते हुए धरने पर बैठने का एलान किया. और प्रदर्शन की तारीख़ मुकर्रर की 29 और 30 मार्च. बीजेपी ने उनके इस डेट सिलेक्शन पर एतराज जताते हुए कहा रामनवमी के दिन सार्वजनिक छुट्टी करने के बजाय धरना प्रदर्शन आयोजन कर ममता ने लोगों की भावनाओं की उपेक्षा की है.

रामनवमी को लेकर बीजेपी और टीएमसी के बीच बयानबाजी चलती रही और 29 मार्च को कोलकाता में ममता बनर्जी का पहले से तयशुदा प्रदर्शन शुरू हुआ. ममता आज भी धरने पर बैठीं लेकिन रामवनमी को लेकर कल उन्होंने जो कुछ कहा उससे बंगाल में राजनीतिक घमासान शुरू हो गया. उन्होंने क्या कहा था,

"BJP का एक गुंडा बोल रहा था कि राम नवमी के दिन वो हथियार लेकर चलेंगे. मैं राम नवमी को रैली नहीं रोकूंगी, लेकिन अगर कोई किसी मुस्लिम के घर पर हमला करता है तप मैं कार्रवाई करूंगी. राम ने कभी नहीं कहा कि तुम दंगे भड़काओ."

ममता बनर्जी ने कल उपद्रवियों को चेतावनी दी थी लेकिन हावड़ा से आई ये तस्वीरें कई तरह के सवाल खड़े कर गईं. कल यहां संकरैल मानिकपुर में स्वामी विवेकानंद सेवा संघ की ओर से शोभायात्रा निकाली गई थी. इस दौरान बड़ी तादात में लोग लाठी, डंडे, तलवार लहराते दिखे. लेकिन इन सबके इतर ममता बनर्जी के बयान पर राज्य में हिंदू-मुस्लिम की राजनीति शुरू हो गई है.

ये सब घटनाएं राम नवमी के दिन ही हो रही हैं. गुजरात से बंगाल तक. राम जिनमें हम सब एक सौम्य छवि देखते थे उन्हीं का नाम लोगों को डराने में, धमकाने में इस्तेमाल हो रहा है. 5 अगस्त 2020 को राम मंदिर के शिलान्यास के दिन राजनीतिक स्कॉलर प्रताप भानु मेहता ने एक लेख में लिखा था -

'राम. ये एक नाम हो सकता है. फिर एक राम हैं: राजा राम. जो राजा हैं, बेटे हैं, भाई हैं, शिष्य हैं, गुरू हैं, पति हैं और मित्र हैं. करुणा और दिव्यता के प्रतीक. जो नाम पीड़ा और मुक्ति के परमानंद में बोला जाता रहा हो. मुट्ठी भींच के 'जय श्री राम' का उद्घोष करना राम को और आपको ओछा कर देती है. जीत की घोषणा की ज़रूरत तब है, जब आप पराजित हो सकते हों.'

हम 'जय श्री राम' बनाम 'जय सिया राम', या 'जय श्री राम' बनाम 'हे राम' वाली बहस में नहीं जाएंगे. हम जय श्री राम तक ही रहेंगे. भारी लोकप्रियता के बावजूद, 'जय श्री राम' का इस्तेमाल काफ़ी नया मालूम पड़ता है. मोटा-माटी सिर्फ़ तीन दशक पुराना. आमफ़हम बात तो ये है कि जब लालकृष्ण अडवाणी रथ पर सवार हुए, तो उन्होंने 'जय श्री राम' को एक आंदोलनकारी नारा बनाया. लेकिन ऐसा नहीं है. ये 'पूरा सच' नहीं है. हम बताएंगे पूरा सच.

शेल्डन पोलक नाम के एक संस्कृत स्कॉलर हुए. उन्होंने एक कमाल का पेपर लिखा है: 'Ramayana and Political Imagination in India'. यानी भारत में रामायण और राजनीतिक कल्पना. इस पेपर में शेल्डन, रामायण के उदय को ग़ज़नी के महमूद से शुरू होने वाले तुर्की आक्रमणों से जोड़ते हैं. आक्रमणों से समाज में जो बदलाव आए, उससे जोड़ते हैं. शेल्डन ने लिखा है कि इस बात के बहुत कम सबूत हैं कि बारहवीं शताब्दी से पहले के राम की पूजा होती ही थी. लेकिन 12वीं शताब्दी के बाद से ये सूरत बदली. रियासती राजाओं ने राम के मंदिर बनवाने शुरू किए. ये 16वीं शताब्दी तक चला. तब तक वाल्मीकि की रामायण का अलग-अलग भारतीय भाषाओं में अनुवाद और व्याख्या की जा रही थी. जिसका एक संस्करण उत्तर भारत में बहुत प्रचलित हुआ, तुलसीदास का रामचरितमानस. लेकिन राम इतने लोकप्रिय हुए क्यों? शेल्डन का तर्क तो ये था कि राम एक दिव्य राजा की बहुत शक्तिशाली कल्पना है, जो तमाम बुराई का अंत करने में सक्षम थे. इससे कल्पना से लोगों को साहस मिलता था, उम्मीद मिलती थी.

ऐसा नहीं है कि राम का राजनीतिक इस्तेमाल आज ही की बात हो. भारत में किसी और धार्मिक प्रतीक के बरक्स राम को बहुत पहले ही राजनीति में लाया जा चुका था. मिसाल के लिए 17वीं शताब्दी में दो मराठी रामायणें लिखी गईं. इनमें से एक में मुग़ल बादशाह औरंगजेब की तुलना रावण से की गई और दूसरे में रावण के भाई कुंभकर्ण से. इसके बाद राम का संदर्भ हमें आज़ादी के आंदोलन में भी मिलता है. गांधी, लोहिया समेत तमाम नेताओं ने राम के बारे में लिखा है. गांधी ने तो ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ एक आदर्श राज्य के वर्णन के लिए भी 'रामराज्य' के कॉन्सेप्ट का इस्तेमाल किया.

हालांकि, गांधी और लोहिया के बीच एक नाम हमेशा रह जाता है. 1920 के दशक में, अवध में किसानों का एक आंदोलन हुआ था. जिसका नेतृत्व किया था बाबा रामचंद्र ने. ये उनका असली नाम नहीं था. असली नाम था श्रीधर बलवंत जोधपुरकर. महाराष्ट्र के रहने वाले थे और ब्रिटिश राज्य के दौरान फिजी में मजदूरी करते थे. बाद में अवध चले आए. किसानों को लामबंद करने के अपने प्रयासों के तहत, बाबा रामचंद्र ने 'सलाम' को बदल दिया 'सीता-राम' में. सलाम का इस्तेमाल आमतौर पर हिंदुस्तानी ज़मीनदारों और ब्रिटिश हुक्मारानों को संबोधित करने के लिए करते थे. इस नए नारे का प्रभाव ज़बरदस्त था और इसका हल्ला पूरे अवध में मच गया. जमींदारों के लठैतों के सामने भी किसान ही नारा लगाते थे - 'सीता राम! सीता राम!' इतिहासकार दिलिप मेनन ने तो यहां तक लिखा है कि गांधी ने रामचंद्र और उनके सीता राम आंदोलन को देखकर ही लोक में धार्मिक मुहावरों का असर देखा था.

फिर बीतती स्कॉलरली चर्चाओं के साथ राम की व्याखाएं भी बीतीं. आज का हाल तो आपको मालूम ही है. उत्सवों की उत्सवधर्मिता बनी रहे. पूरे उत्साह के साथ त्यौहार मनाएं. लेकिन इन उत्सवों को हिंसा और अराजकता का हिस्सा न बनाएं. ये हम सबकी जिम्मेदारी है.

वीडियो: दी लल्लनटॉप शो: राम नवमी पर पश्चिम बंगाल से महाराष्ट्र तक आगजनी बवाल करने वाले कौन?

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