क्या है ये नेहरू-लियाकत पैक्ट, जिसे अमित शाह ने फेल बताया और कांग्रेस पर टूट पड़े
CAB पर हो रही बहस के दौरान बार-बार लिया गया ये नाम.

इसी दौरान उन्होंने 1950 में हुए नेहरू-लियाकत पैक्ट का ज़िक्र किया. अमित शाह ने कहा कि ये समझौता फेल हो गया. अगर उस समझौते की आत्मा का सम्मान पाकिस्तान ने किया होता, तो आस बिल की कोई ज़रूरत नहीं होती.
बात इस पैक्ट की. और जिस माहौल में ये पैक्ट बना, उस के रुख की. माहौल ये था कि सरहद के इस पार और उस पार वो लोग जो अपने धर्म के कारण अल्पसंख्यक रह गए थे, उनके भीतर एक डर बैठ गया था. भारत में मुस्लिम, तो पाकिस्तान में हिंदू. उनके भीतर उनके देश को लेकर भरोसा जगाना ज़रूरी था. एक सुरक्षा की भावना पैठानी आवश्यक थी. इसीलिए ये नेहरू-लियाकत पैक्ट साइन किया गया.Citizenship (Amendment) Bill 2019 in Lok Sabha. https://t.co/V8sumLvLiz
— Amit Shah (@AmitShah) December 9, 2019
क्या है ये नेहरू-लियाकत पैक्ट?Speaking on Citizenship (Amendment) Bill 2019 in Lok Sabha. https://t.co/XJjQjRgusH
— Amit Shah (@AmitShah) December 9, 2019
1950 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री थे लियाकत अली खान. इनको कायदे मिल्लत और शहीद ए मिल्लत का खिताब दिया गया था. जिन्ना की मौत के बाद लियाकत अली खान ने पाकिस्तान की बागडोर संभाली. 1951 में उनकी हत्या कर दी गई थी.
भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के साथ उन्होंने दिल्ली पैक्ट साइन किया. इसे ही नेहरू-लियाकत पैक्ट या दिल्ली पैक्ट कहा गया. इस पैक्ट से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियां यहां पढ़ लीजिए:
# 8 अप्रैल 1950 को ये दिल्ली में साइन किया गया. इसने भारत और पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों के लिए एक ‘बिल ऑफ राइट्स’ का वादा किया.
# इसे साइन करने के पीछे की मुख्य वजह थी दोनों तरफ के धार्मिक अल्पसंख्यकों के बीच पैठे डर को कम करना. आपस के रिश्ते बेहतर करना.

# इस समझौते के अनुसार सभी अल्पसंख्यकों को मूलभूत अधिकार देने की गारंटी दी गई.
# सभी अल्पसंख्यकों को अपने देशों के पॉलिटिकल पदों पर चुने जाने, और अपने देश की सिविल और आर्म्ड फोर्सेज में हिस्सा लेने का पूरा अधिकार दिया जाएगा.
#दोनों सरकारें ये सुनिश्चित करेंगी कि अपने देश के अल्पसंख्यकों को वो अपने-अपने देश की सीमा में पूर्ण सुरक्षा का भरोसा दिलाएंगी. जीवन, संस्कृति, संपत्ति और व्यक्तिगत सम्मान को लेकर. धर्म को परे रखते हुए, उन्हें बिना शर्त पूर्ण नागरिकता की गारंटी देंगी.
# दोनों देशों में माइनॉरिटी कमीशन (अल्पसंख्यक आयोग) बनाए जाएंगे जो इस समझौते के लागू होने की प्रक्रिया पर कड़ी नज़र रखेंगे. इसके लागू करने में कोई कमी आ रही हो तो उसकी रिपोर्ट करेंगे. इसमें कोई सुधार आवश्यक जान पड़े तो उसकी बाबत जानकारी देंगे. कोई इस समझौते की शर्तों का उल्लंघन न करे, इस बात का ध्यान रखेंगे.

# जो लोग भी अपनी चल संपत्ति अपने साथ बॉर्डर के पार ले जाना चाहते हैं, उन्हें कोई रोक नहीं होगी. इनमें गहने भी शामिल थे. 31 दिसंबर 1950 के पहले जो भी प्रवासी वापस आना चाहते, वो आ सकते. उन्हें उनकी अचल संपत्ति (घर-बार) लौटाई आएगी. खेत हुए, तो खेत भी लौटाए जाएंगे. अगर वो उन्हें बेचकर वापस जाना चाहते, तो ये भी विकल्प उनके पास होगा. जबरन किए गए धर्म परिवर्तनों की कोई वैधता नहीं होगी. जिन महिलाओं को जबरन कैद कर ले जाया गया, उन्हें भी वापस आने की पूर्ण स्वतंत्रता होगी.
# दोनों सरकारों से एक-एक मंत्री प्रभावित क्षेत्रों में मौजूद रहेंगे. वहां पर ये सुनिश्चित करेंगे कि समझौते की शर्तों का सही ढंग से पालन हो.
दोनों ही देशों के अल्पसंख्यकों की वफादारी उनके उसी देश के साथ होगी जिसमें वो रह रहे हैं. उनको कोई भी दुःख या तकलीफ हो, तो वो अपने उसी देश की सरकार से उम्मीद रखेंगे कि वो उनकी समस्याएं सुलझाए.श्यामा प्रसाद मुख़र्जी ने इस समझौते का विरोध किया था. जनसंघ के संस्थापकों में से एक. उस समय वो नेहरू सरकार में कैबिनेट मंत्री थे. लेकिन जब नेहरू और लियाकत खान ने इस पर साइन कर दिए, तो विरोध में श्यामाप्रसाद मुख़र्जी ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था.
क्या सच में फेल हुआ था नेहरू-लियाकत पैक्ट?
ईस्ट और वेस्ट बंगाल. वेस्ट बंगाल उस समय भारत में था. ईस्ट बंगाल पाकिस्तान का हिस्सा था. 1971 के युद्ध के बाद आज़ाद हुआ. बांग्लादेश के नाम से जाना गया. इन दोनों के बीच काफी तनातनी थी उस वक़्त. देश के मुस्तकबिल को लेकर वहां के सियासतदां परेशान थे. इन्हीं चिंताओं को दूर करने के लिए ये समझौता साइन किया गया था. स्क्रॉल में छपी रिपोर्ट के मुताबिक़ पल्लवी राघवन लिखती हैं,
इस समझौते की वजह से बॉर्डर के इस पार हो रहे प्रवास में कुछ कमी हुई. लेकिन उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण ये रहा कि इस समझौते की शर्तों ने एक ऐसे ढांचे के बनने और उसको स्वीकृति मिलने में मदद की, जहां इस तरह के प्रवास पर बात की जा सके, और उसे रोकने के तरीके ढूंढे जा सकें.वो जिस ढांचे के बनने की बात पल्लवी लिखती हैं, उसने कुछ समय के लिए भले ही राहत पहुंचाई हो. लंबे समय के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो नेहरू-लियाकत समझौते के फायदे कुछ ख़ास रहे नहीं, ऐसा पढ़ने को मिलता है. इस पैक्ट के बाद भी ईस्ट बंगाल और अब बांग्लादेश से रिफ्यूजियों का आना लगा ही रहा. लेकिन CAB से उसकी तुलना होना कितना जायज़ है, ये अपने-आप में एक अलग मुद्दा है जिस पर बहस बेहद ज़रूरी है.
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