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क्या होते हैं ये नार्को और पॉलिग्राफ टेस्ट, जो योगी सरकार ने हाथरस केस में कराने की बात कही है

सच सामने लाने के लिए अक्सर इनके इस्तेमाल पर जोर दिया जाता है

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हाथरस मामले में योगी सरकार ने कहा था कि एसपी, डीएसपी का भी नार्को टेस्ट कराया जाएगा.
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5 अक्तूबर 2020 (Updated: 5 अक्तूबर 2020, 01:51 PM IST)
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यूपी सरकार ने हाल ही में कहा था कि हाथरस में 19 वर्षीय दलित लड़की की कथित गैंगरेप और हत्या मामले की जांच के लिए वह पॉलिग्राफ और नार्को टेस्ट कराएगी. बवाल के बाद सरकार का कहना था कि आरोपी ही नहीं, पीड़ित परिवार और जांच में जुटे पुलिस अधिकारियों का भी नार्को टेस्ट कराकर सच सामने लाया जाएगा. पीड़ित परिवार ने हालांकि अपना नार्को टेस्ट कराने से इनकार कर दिया है. परिवार का कहना है कि नार्को टेस्ट उन आरोपियों का होना चाहिए, जिन्होंने उनकी बेटी का रेप किया. आइए आपको बताते हैं, क्या होते हैं ये टेस्ट, और क्यों इन पर इतना जोर दिया जाता है.
क्या होता है नार्को टेस्ट (Narco Test)
CBI यानी केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो. यह एक केंद्रीय जांच एजेंसी है. इसका काम है उलझे हुए आपराधिक केसों और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मामलों की जांच करना. कुछ संदिग्ध आरोपी ऐसे होते हैं, जो खुद अपना जुर्म कबूल लेते हैं. लेकिन कुछ जांच एजेंसियों को उलझाने के लिए तरह-तरह की कहानियां बनाते रहते हैं. ऐसे लोगों से सच बाहर निकलवाने के लिए सीबीआई कई बार नार्को टेस्ट का सहारा लेती है. यह टेस्ट करने से पहले संदिग्ध व्यक्ति को खास दवाइयां दी जाती हैं. लेकिन इनकी अधिक डोज़ से व्यक्ति कोमा में जा सकता है, उसकी मौत तक का खतरा रहता है. इसीलिए इस टेस्ट को काफी सोच विचार के बाद किया जाता है.
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अपराधियों से सच बाहर निकलवाने के लिए सीबीआई कई बार नार्को टेस्ट का सहारा लेती है.

कैसे किया जाता है ये टेस्ट?
नार्को टेस्ट शुरू करने से पहले व्यक्ति का शारीरिक परीक्षण किया जाता है. इसमें उसकी उम्र, सेहत और जेंडर की सही तरीके से बारीक जांच की जाती है. अगर सेहत खराब होने का संदेह होता है तो टेस्ट नहीं किया जाता. सबकुछ सही मिलने पर पहले उस शख्स को 'सोडियम पेंटोथोल' का इंजेक्शन लगाया जाता है. इस दवा को ट्रुथ सीरम भी कहा जाता है. इसका असर होते ही व्यक्ति ऐसी अवस्था में पहुंच जाता है, जहां वह पूरी तरह बेहोश नहीं होता लेकिन पूरी तरह से होश में भी नहीं रहता. सोचने की क्षमता कम हो जाती है. ज्यादा बोल भी नहीं पाता. इसके बाद सच जानने के लिए जांच अधिकारी उससे सवाल-जवाब करता है. आधी बेहोशी की अवस्था में आरोपी न चाहते हुए भी सच बोल देता है. टेस्ट के दौरान जांच अधिकारी, डॉक्टर, फॉरेंसिक एक्सपर्ट्स और साइकोलॉजिस्ट मौजूद रहते हैं. ये उसकी स्थिति पर नजर बनाए रखते हैं.
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'सोडियम पेंटोथोल' का असर यह होता है कि व्यक्ति ऐसी अवस्था में पहुंच जाता है, जहां वह पूरी तरह बेहोश नहीं होता लेकिन पूरी तरह से होश में भी नहीं रहता.

पॉलिग्राफ टेस्ट में क्या अलग होता है?
पॉलिग्राफ टेस्ट में मशीनें लगाकर सच उगलवाने की कोशिश की जाती है. यह इस धारणा पर काम करता है कि जब कोई शख्स झूठ बोलता है तो उसके शरीर के अंदर कई तरह के बदलाव होते हैं. इन्हीं बदलावों की मैपिंग से देखा जाता है कि वह जो बोल रहा है, कितना सच है या झूठ. इस टेस्ट के लिए आरोपी को दिल की धड़कन नापने वाले उपकरण लगाए जाते हैं, जैसे कार्डियो कफ और इलेक्ट्रोड्स. इनके अलावा उस व्यक्ति की सांस, हृदय गति, पसीने आने और ब्लड प्रेशर में बदलाव आदि पर नजर रखी जाती है. सवाल-जवाब के दौरान मशीन इन सबका रेकॉर्ड ग्राफ के रूप में दर्ज करती रहती है. टेस्ट के शुरूआत में नॉर्मल सवाल किए जाते हैं. जैसे- पूरा नाम, पता, माता-पिता का नाम, उम्र और कुछ सामान्य जानकारी. इसके बाद अपराध से जुड़े सवाल किए जाते हैं. अगर ग्राफ में अचानक असामान्य बदलाव दिखता है तो इसका मतलब होता है कि वह व्यक्ति झूठ बोल रहा है.
क्या जबरन ये टेस्ट कराया जा सकता है?
साल 2010 की बात है. सेल्वी एंड अदर्स बनाम स्टेट ऑफ कर्नाटक केस में सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने कहा था कि जिस व्यक्ति का पॉलिग्राफ या नार्को टेस्ट किया जाना है, उसकी सहमति जरूरी है. इसके अलावा नार्को टेस्ट के लिए कोर्ट की अनुमति लेना भी अनिवार्य है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने साल 2000 में पॉलिग्राफ टेस्ट से जुड़े दिशानिर्देश जारी किए थे. सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट धर्मेंद्र प्रताप सिंह ने बताया कि इस तरह के टेस्ट से पहले आरोपी को मजिस्ट्रेट के सामने अपनी सहमति देनी होती है.
पीड़ित या गवाहों का भी नार्को टेस्ट हो सकता है?
कानून के जानकार और बॉम्बे हाई कोर्ट के वकील दीपक डोंगरे का कहना है कि किसी भी व्यक्ति, चाहे वह आरोपी हो या पीड़ित, पीड़ित परिवार का कोई सदस्य और गवाह, किसी का जबरन नार्को टेस्ट नहीं कराया जा सकता. किसी व्यक्ति को इस तरह के टेस्ट के लिए मजबूर करना उसकी 'व्यक्तिगत स्वतंत्रता' का उल्लंघन है. इसके खिलाफ वह व्यक्ति अदालत में जा सकता है. संविधान के अनुच्छेद-20(3) के तहत आरोपी को अपने ही खिलाफ गवाह बनने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता.
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हाथरस केस में पीड़ित परिवार का भी नार्को टेस्ट कराने की बात कही गई थी.

क्या इनके रिजल्ट 100 पर्सेंट सही होते हैं?
ऐसा ज़रूरी नहीं है कि नार्को और पॉलिग्राफ टेस्ट के नतीजे हमेशा 100 % सही आते हैं. कुछ अपराधी इन टेस्ट को भी चकमा देने में कामयाब हो जाते हैं. इसकी वजह से इस तरह के टेस्ट की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होते रहते हैं. हालांकि, जानकारों का मानना है कि अगर इन टेस्ट को सही तरीके से किया जाए तो सही नतीजे की संभावना काफी ज्यादा होती है.
लेकिन क्या इन टेस्ट के रिजल्ट की कानूनी मान्यता होती है? इस बारे में एक्सपर्ट्स कहते हैं कि ऐसे टेस्ट के दौरान अगर आरोपी अपना‘अपराध’स्वीकार भी कर लेता है, तो भी ये कोर्ट में मान्य नहीं होता. अगर अपराधी टेस्ट के नतीजे से सहमत होगा, तभी उसे स्वीकार किया जाएगा.

(ये स्टोरी हमारे यहां इंटर्नशिप कर रहे बृज द्विवेदी ने लिखी है.)


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