पुतिन क्या सचमुच केजीबी एजेंट थे? अखबारों की कतरनें जोड़ने वाला लड़का कैसे बन गया दुनिया की महाशक्ति का मुखिया
Vladimir Putin कभी KGB में स्थानीय मीडिया पर नजर रखने का मामूली काम करते थे. अखबारों की कतरनें जोड़ने वाले इस अफसर ने The Berlin Wall गिरने के बाद मौका पकड़ लिया और St Petersburg से होते हुए Russia की सत्ता पर मजबूत पकड़ बना ली. मामूली एजेंट से दुनिया की महाशक्ति का सबसे ताकतवर चेहरा बन जाना पुतिन की राजनीति, रणनीति और इमेज बिल्डिंग का अनोखा सफर है.

रूस और यूक्रेन की जंग ने दुनिया को दो हिस्सों में बांट रखा है. हथियारों की धमक, प्रतिबंधों की मार और कूटनीतिक तीरंदाजी के बीच एक नाम बार बार दुनिया भर की सुर्खियों में उछलता है. व्लादिमीर पुतिन. लेकिन ये पुतिन आखिर कहां से आए. कैसे एक दबे-दबे से केजीबी वाले ने अपने वक्त का सबसे ताकतवर नेता बनने का सफर तय कर लिया. कहानी थोड़ी दिलचस्प है. थोड़ा रोमांचक भी.
बर्लिन की दीवार गिरी और किस्मत का दरवाजा खुलासाल 1989... तारीख नौ नवंबर... बर्लिन की दीवार ढह रही थी. दोनों तरफ के आम लोग हथौड़ा फावड़ा लेकर निकले और दीवार को धांय धांय तोड़ दिया. इस एक घटना ने पूर्वी जर्मनी के कम्युनिस्ट राज को घुटनों पर ला दिया. और इसी गिरावट से सोवियत संघ के पतन की उलटी गिनती भी शुरू हो गई.

लेकिन इसी तारीख ने एक और कहानी लिखी. पूर्वी जर्मनी के ड्रेसडन में बैठे केजीबी एजेंट व्लादिमीर पुतिन ने ये सब देखा. माहौल गर्म होते ही पुतिन सीधे अपने शहर सेंट पीटर्सबर्ग लौट आए. यहां से उनकी किस्मत की गाड़ी नई पटरी पर चढ़ी और इतनी तेजी से दौड़ी कि पीछे देखने की जरूरत ही न पड़ी.
पुतिन किस तरह की जासूसी करते थेअब यहां मामला थोड़ा मजेदार है. पुतिन के समर्थक उनकी जासूसी को लेकर ढेरों वीरगाथाएं सुनाते हैं. पर जो आधिकारिक दस्तावेज सामने आए हैं, उनका कहना कुछ और है. मशहूर लेखिका माशा गेसन अपनी किताब “मैन विदआउट अ फेस, द अनलाइकली राइज ऑफ व्लादिमीर पुतिन” में लिखती हैं कि केजीबी ने पुतिन को कोई खास जिम्मेदारी नहीं दी थी. उनका असल काम था अखबारों की कतरनें जोड़ना. स्थानीय मीडिया पर नजर रखना. मतलब एजेंट वाला रोमांच, फिल्मी स्टाइल वाली कार्रवाई, गुप्त मिशन. कुछ भी नहीं. बस साधारण दफ्तर वाला कामकाज.

ऐसा नहीं कि एक जगह अटक गए. दीवार गिरने के बाद लौटकर पुतिन ने सेंट पीटर्सबर्ग में म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन की जिम्मेदारी संभाली. यहां भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे. जांच हुई. आरोप सही भी पाए गए. पर मेयर सोबचाक के साथ करीबी रिश्तों ने पुतिन को बचा लिया. फिर जैसे रास्ता साफ होता गया, पुतिन ऊपर चढ़ते गए.
1997 में बोरिस येल्तसिन ने उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया. थोड़े ही समय बाद येल्तसिन ने अचानक इस्तीफा दे दिया और पुतिन कार्यवाहक राष्ट्रपति बन गए. आते ही उनका पहला कदम ये था कि येल्तसिन परिवार पर लगे सारे भ्रष्टाचार मामलों को खत्म कर दिया.

साल 2000 में चुनाव हुए. पुतिन भारी मतों से जीते. वजह साफ थी. रूस भ्रष्टाचार, बदहाली और सिस्टम की खामियों से थक चुका था. लोग किसी मजबूत नेता की तलाश में थे जो कानून व्यवस्था के सहारे देश को संभाले. पुतिन की सख्त इमेज जनता को भा गई. आर्थिक हालात सुधरे. विदेशी निवेश बढ़ा. लोगों ने राहत महसूस की. नतीजा ये रहा कि 2004 में वह दोबारा राष्ट्रपति बन गए.
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सत्ता की पकड़ और भी मजबूत हुईकानून ये था कि लगातार तीसरी बार राष्ट्रपति नहीं बना जा सकता. तो मेद्वेदेव राष्ट्रपति बने और उन्होंने पुतिन को प्रधानमंत्री. लेकिन असल कमान किसके हाथ थी. ये बात रूस का बच्चा बच्चा जानता था.

मेद्वेदेव के दौर में राष्ट्रपति का कार्यकाल छह साल कर दिया गया. और 2012 में पुतिन फिर कुर्सी पर लौटे. इस बार छह साल के लिए. फिर 2018 आया. और पुतिन ने रिकॉर्ड 75 फीसदी वोटों के साथ कुर्सी और मजबूत कर ली.
क्यों कहा जाता है पुतिन को माफियालेखिका माशा गेसन लिखती हैं कि पुतिन सरकार को एक तरह से माफिया स्टाइल में चलाते हैं. पश्चिमी देशों में उन्हें फिल्मों वाले खलनायक से तुलना मिलती है. लेकिन यही इमेज रूस में उल्टा फायदा देती है. लोग उन्हें सख्त, निर्णायक और संकट में काम आने वाला नेता मानते हैं.
और अब हालत ये है कि पुतिन की सत्ता की पकड़ इतनी मजबूत है कि कोई बड़ा विरोधी उनके आसपास तक नहीं दिखता. उनकी कहानी केजीबी दफ्तर में फाइलें छांटने वाले युवक से शुरू हुई थी. मगर आज वह दुनिया की राजनीति की सबसे चर्चित तस्वीरों में से एक हैं.

भारत की विदेश नीति में रूस हमेशा से अहम स्तंभ रहा है और इस रिश्ते की धुरी पुतिन जैसे स्थायी और प्रभावशाली नेता पर टिकती है. भारत को रक्षा सौदों में भरोसेमंद साझेदार चाहिए और रूस आज भी हथियार, तकनीक और ऊर्जा आपूर्ति का बड़ा आधार है. यूक्रेन युद्ध के बाद जब दुनिया दो ध्रुवों में बंटी नजर आई, तब भी भारत अपने हितों के मुताबिक संतुलन बनाए रख सका क्योंकि पुतिन के साथ लगातार संवाद और भरोसे की जमीन तैयार थी. एशिया में शक्ति संतुलन से लेकर संयुक्त राष्ट्र में सहयोग तक, पुतिन का रूस भारत के लिए रणनीतिक सुरक्षा कवच जैसा ही रहा है. यही वजह है कि पुतिन की राजनीति और रूस की दिशा भारत के लिए सिर्फ खबर नहीं, एक जरूरी समझ है.
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