भाजपा के मुख्यमंत्री और मोदी सरकार ने एक झूठ बोला है
जो काम इंदिरा के वक्त राजीव गांधी ने किया, उसके बारे में ये अब कह रहे हैं कि हमने पहली बार किया.

Inaugurated the first commercial fixed wing flight service to Arunachal at Gopinath Bordoloi International Airport this morning by lighting of lamp. Also gave away the boarding passes of Alliance Air to passengers of maiden flight. @PMOIndia
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संजय और राजीव गांधी, दोनों की दिलचस्पी थी ये 80 के दशक की बात है. ठीक-ठीक साल बताएं, तो 1981 की. उस बरस 20 जनवरी को एक एयरलाइन्स सेवा शुरू हुई. उसका नाम रखा गया- वायुदूत. इंडियन एयरलाइन्स और एयर इंडिया. दोनों सरकारी विमानन कंपनियां. इन दोनों का साझा प्रॉजेक्ट था ये वायुदूत. इसका मुख्यालय था राजधानी दिल्ली में. यहां सफदरजंग एयरपोर्ट है. वहीं पर. इंदिरा गांधी के दोनों बेटों- संजय गांधी और राजीव गांधी- को हवाई जहाज में बड़ी दिलचस्पी थी. दोनों खुद भी पायलट थे. जिस वक्त की हम बात कर रहे हैं, तब तक संजय गांधी की मौत हो चुकी थी. 23 जून, 1980 को वो गुजर चुके थे. मगर इस प्रॉजेक्ट की योजना बनाने में उनकी भी भागीदारी है. वो जब जिंदा थे, तब से ही इसकी प्लानिंग हो रही थी. उनके जाने के बाद राजीव गांधी ने इसमें दिलचस्पी ली.Truly historical. Let us join hands to welcome the people of #ArunachalPradesh
— Jayant Sinha (@jayantsinha) May 21, 2018
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23 जून, 1980. इसी दिन एक विमान हादसे में संजय गांधी गुजर गए. इस वायुदूत प्रॉजेक्ट में संजय की काफी दिलचस्पी थी. उसी तरह, जैसे उन्होंने मारुति में दिलचस्पी ली थी. संजय की इन तमाम दिलचस्पियों को इंदिरा गांधी का समर्थन हासिल था.
क्यों बनाया गया था वायुदूत? वायुदूत को बनाने का एक खास मकसद था. देश के पूर्वोत्तर राज्यों को विमान सेवा से जोड़ना. जिन इलाकों में ये सेवा पहुंचाने की सोची गई, उनको चुनने का खास पैमाना था. कि विमान सेवा के लिहाज से वो बिल्कुल नई जगह हो. तब इंडियन एयरलाइन्स के पास घरेलू सेवाओं की जिम्मेदारी थी. एयर इंडिया की फ्लाइट विदेश जाती थीं. मगर ये वायुदूत उन इलाकों के लिए था, जहां इंडियन एयरलाइन्स नहीं पहुंची थी. बनाए जाते समय सरकार ने इसका ये मकसद बताया था -
जनवरी 1981 में वायुदूत बनाए जाते समय ये सोचा गया कि इसके मार्फत उत्तरपूर्वी राज्यों के एकदम दूर-दराज के इलाकों से संपर्क जोड़ा जाएगा. उन्हें जद में लाया जाएगा. ऐसे इलाके, जिनकी भौगोलिक स्थितियां मुश्किल हैं. और इसीलिए वो देश के बाकी हिस्सों से कटे हुए हैं.इस तरह नॉर्थ-ईस्ट की करीब 30 जगहों का नाम तय किया गया. इन दिनों अगर आपको नॉर्थ-ईस्ट में घुसना है, तो इसका गेटवे है गुवाहाटी. माने, असम. मगर उन दिनों ऐसा नहीं था. तब कोलकाता से नॉर्थ-ईस्ट का दरवाजा खुलता था. यही वजह थी कि उत्तरपूर्वी राज्यों के लिए सोची गई इस सर्विस का बेस कोलकाता ही रखा गया.

तब एयर इंडिया विदेशी उड़ानें संभालता था. इंडियन एयरलाइन्स के पास घरेलू विमान सेवा का जिम्मा था. ये तय हुआ कि उत्तरपूर्वी राज्यों में दूर-दराज के इलाकों को देश के बाकी हिस्सों से जोड़ने के लिए वायुदूत सेवा शुरू की जाएगी.
अरुणाचल के कई ठिकानों तक पहुंचते थे ये विमान बनने के छठे दिन, यानी 26 जनवरी, 1981 को ये वायुदूत सर्विस शुरू हुई. असम, मणिपुर, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश. सबको एक-दूसरे से जोड़ने का बीड़ा उठाया गया. ऐसा नहीं कि अरुणाचल के बस एक ठिकाने, बस एक शहर के लिए ये सर्विस शुरू हुई हो. पासीघाट, आलो, दापोरिजो, तेजु, ज़ीरो, विजय नगर. इन सबके लिए फ्लाइट सेवा शुरू हुई. खराब मौसम, बर्फबारी, बाढ़, बरसात. कभी एकदम नीचे को तैरते बादल. कभी घनी धुंध. कभी रनवे पर भरा हुआ पानी. इन सबको झेलते हुए ये विमान अपने ठिकाने पर पहुंचते थे. कोशिश की गई थी कि इन विमानों की लागत कम से कम हो. ताकि लोग इसका खर्च उठा सकें. इसीलिए यात्रा के दौरान सफर करने वालों को खाना या नाश्ता परोसने की व्यवस्था नहीं थी. इसके अलावा कई जगहों पर कर्मचारियों की भर्ती न करके उन्हें कॉन्ट्रैक्ट पर रखा गया. क्रू के लिए इंडियन एयरलाइन्स से रिटायर हो चुके लोगों की सेवा ली गई. ये छोटी-छोटी कोशिशें थीं. इस विमान सेवा को नुकसान में जाने से बचाने की.

हर्ष वर्धन काफी विवादित शख्सियत थे. नेताओं, पत्रकारों और बड़े-बड़े सरकारी अधिकारियों के साथ उनके करीबी ताल्लुकात थे. और इनकी ही वजह से वायुदूत में इन सबका एक नेक्सस था.
वायुदूत को मिला एक विवादित MD शुरू होने के कुछ ही समय बाद वायुदूत की प्राथमिकताएं बदल गईं. 1983 में वायुदूत के मैनेजिंग डायरेक्टर बने हर्ष वर्धन. उनका मकसद था मुनाफा बढ़ाना. इसे मुनाफे वाला सौदा बनाना. इसके लिए उन्होंने सर्विस के इलाके बढ़ाने पर जोर दिया. इसका नतीजा हुआ कि घाटा बढ़ने लगा. सातवें योजना आयोग में इसका जिक्र कुछ यूं है-
वायुदूत जैसे-जैसे अपनी सर्विस बढ़ा रहा है, वैसे-वैसे इसका घाटा बढ़ता जा रहा है.

बूटा सिंह उस समय केंद्रीय गृह मंत्री थे. कहते हैं कि इन्होंने ही हर्ष वर्धन के सिर पर हाथ रखा हुआ था. ये रिश्ता एक-दूसरे को फायदा पहुंचाता था.
हर्ष वर्धन का ताल्लुक था उत्तर प्रदेश के हसनपुर से. मेरठ से ग्रेजुएट हुए. फिर जयपुर के पोद्दार इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट से पढ़ाई की. टॉप किया. आगे जाकर वो एयर इंडिया के MD रघु राज के सहायक हुए. 1982 के एशियाड गेम्स के लिए जो ऑर्गनाइजिंग कमिटी बनी, इसमें एयर इंडिया की तरफ से हर्ष वर्धन को चुना गया. यहीं उनकी मुलाकात राजीव गांधी से हुई. राजीव गांधी को हर्ष वर्धन में स्पार्क दिखा. इस मुलाकात के करीब एक साल बाद ही हर्ष को वायुदूत का MD बना दिया गया. आगे चलकर वायुदूत को जो घाटा हुआ, उसका काफी दोष हर्ष वर्धन के भी सिर जाता है. बिना सही प्लानिंग के, बिना नफा-नुकसान सोचे बस सर्विस बढ़ाते जाना. नई-नई जगहों पर घुस जाना. फिर चाहे यात्री मिलें, न मिलें. कमाई से ज्यादा नुकसान क्यों न हो रहा हो. वो अपने समय में काफी विवादित थे. उनके कई नेताओं से बहुत अच्छे ताल्लुकात थे. कहते हैं कि इसी वजह से हर्ष वर्धन टिके रहे. वो मामला भी आया था कि उनकी वजह से पद्मिनी कोल्हापुरी को अंतरराष्ट्रीय विमानों के मुफ्त टिकट मिल रहे हैं. उनका भाई यश वर्धन तत्कालीन गृह मंत्री बूटा सिंह के बेटों का पार्टनर था. ये भी कहते हैं कि हर्ष के सिर पर बूटा सिंह का हाथ था.

डॉरनियर जर्मनी की एयरक्राफ्ट कंपनी है. मोदी सरकार के आने के बाद 2015 में HAL को एक डिफेंस डील मिली थी. उसे 14 डॉरनियर-228 बनाने थे. इन विमानों का उत्पादन भारत में ही होना था. इसको कानपुर के ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट डिविजन में बनाया जाएगा.
इस प्रॉजेक्ट के लिए खास विमान खरीदे गए 1983 आते-आते सरकार ने लाइट ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट (LTA) प्रॉजेक्ट को मंजूरी दे दी. ये 250 करोड़ की लागत का प्रॉजेक्ट था. राजनैतिक मामलों की कैबिनेट कमिटी ने इस पर मुहर लगाई थी. इसका मकसद यही था. छोटे विमान खरीदना. जो कम दूरी की यात्रा करें. और दूर-दराज के इलाकों को विमान सेवा से जोड़ें. जर्मनी में एक विमान बनाने वाली कंपनी थी. इसका नाम था- डॉरनियर. दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने के बाद कंपनी ने काम बंद कर दिया था. फिर 1952 में ये दोबारा शुरू हुई. ये कंपनी STOL विमान बनाती थी. मतलब, जिनका टेक ऑफ और लैंडिंग छोटी हो. सरकार और डॉरनियर के बीच डील हुई. डॉरनियर से करीब 150 विमानों की डील हुई. तय किया गया कि इन्हें HAL असेंबल करेगा. इनमें लगाने के लिए अमेरिकी कंपनी गारेट से इंजन खरीदे जाएंगे. ये विमान भारतीय वायु सेना, नौसेना, कोस्ट गार्ड और वायुदूत के इस्तेमाल के लिए खरीदे जाने की बात हुई थी.

संजय गांधी चाहते थे कि स्पेन के CASA विमान खरीदे जाएं. उनके ही कहने पर इन विमानों को भारत लाकर उसका ट्रायल भी किया गया.
संजय गांधी क्या चाहते थे? इस बात के बीच में संजय गांधी का भी जिक्र है. कहते हैं कि अगर संजय गांधी जिंदा होते, तो डॉरनियर के साथ ये डील नहीं हुई होती. कहते हैं कि संजय ने नागरिक उड्डयन मंत्रालय को दो-टूक कहा था. कि वो स्पेन के CASA से सौदा करें. उनका CASA 212 विमान खरीदें. ये 26 सीटों वाला विमान था. कहते हैं कि मंत्रालय के ऊपर संजय गांधी का काफी दबाव था. इसी दबाव के कारण CASA के इस विमान को परीक्षण के लिए भारत भी लाया गया था. वायु सेना को ये पसंद भी आया था. ये विमान वैसे भी सेना की जरूरतों के हिसाब से ही डिजाइन किया गया था. वायुदूत में इस्तेमाल के लिहाज से ये सही नहीं था. एक वजह ये थी कि ये शोर बहुत करता था. दूसरी ये कि यात्रियों के लिहाज से ये आरामदेह नहीं था. CASA का ये ट्रायल सात-दिन का था. इस दौरान भी इसके इंजन में कुछ परेशानी देखी गई. इन सब कमियों के बावजूद ये माना जाता है कि अगर संजय गांधी की मौत न हुई होती, तो डॉरनियर के नहीं, बल्कि CASA के ही विमान खरीदे गए होते.

वायुदूत को बंद करना पड़ा. इसके पीछे कई चीजों का हाथ था. सही से प्लानिंग नहीं हुई. कहां की सेवा शुरू की जाए, ये कई बार बहुत जल्दबाजी में हुआ. ज्यादातर उड़ानें घाटे का सौदा बन गईं. इसके अलावा विमान में होने वाली गड़बड़ियां भी थीं. विमानों की मरम्मत करवाने में भी वायुदूत को खूब नुकसान उठाना पड़ा.
परेशानियां क्या आईं? डॉरनियर के विमान छोटे साइज के होते थे. इनमें सीट की संख्या काफी कम होती थी. ऐसा इसलिए कि वायुदूत के फ्लाइट्स में यात्रियों की संख्या ज्यादा नहीं होती थी. उन दिनों बहुत कम लोग ही थे, जिनकी जेब विमान के किराये का बोझ उठा सकती थी. मगर इन डॉरनियर विमानों में परेशानी आने लगी. इनमें इंजन फेल होने की घटनाएं आम हो गईं. कई बार हवा में होने के दौरान ही इनका इंजन फेल हो गया. इसकी खबर जब लोगों के बीच पहुंची, तो उनका डरना स्वाभाविक था. इस डर की वजह से यात्रियों की संख्या और घटने लगी.
वायुदूत चाहता था कि विमान के बिगड़े इंजन की मरम्मत का खर्च डॉरनियर, गारनेट और HAL उठाएं. मगर वो इसके लिए राजी नहीं हो रहे थे. उनका कहना था कि कुछ ही इंजन फेल के मामलों में उनकी गलती है. मतलब, डिजाइन की गड़बड़ी है. बाकी केस इसलिए हो रहे हैं कि विमानों की देखभाल सही से नहीं की जा रही. ये भी कि पायलट भी अच्छी तरह प्रशिक्षित नहीं हैं. वायुदूत और डोरनियर-गारनेट के बीच खूब बहस हुई. सवाल-जवाब हुए. और इन सबके बीच सारी मरम्मत का खर्च वायुदूत की जेब से होता रहा. नुकसान तो सरकार का हो रहा था. जो LTA प्रॉजेक्ट 250 करोड़ रुपये का सोचा गया था, उसकी लागत बढ़ते-बढ़ते चौगुनी हो गई थी. ये भी इतिहास है कि वायुदूत विमानों में गड़बड़ी की वजह से खुद कांग्रेस के नेताओं में नाराजगी थी. कांग्रेस के एक सांसद ने तब इसे 'यमदूत' तक कह दिया था.

मई 1991 में राजीव गांधी मारे गए. उनके जाने के दो साल बाद वायुदूत बंद हो गया. राजीव के जीते-जी भी इसके लिए कोई उम्मीद नहीं बची थी. एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइन्स भी घाटे का ही सौदा थे. वायुदूत की हालत उनसे भी खराब थी.
वायुदूत को बंद क्यों करना पड़ा? उत्तरपूर्वी राज्यों की ये एयरलाइंस सर्विस घाटे में जाने लगी. तब जाकर वायुदूत की सेवाएं देश के कई और हिस्सों में शुरू हुईं. महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, केरल, आंध्र प्रदेश. सब जगह. इन सब रूट्स पर भी वायुदूत घाटे में रही. विमान में बमुश्किल कुछ लोग आते. हताश होकर फिर रणनीति में बदलाव हुआ. एकबार फिर इसे सिर्फ नॉर्थ-ईस्ट तक सीमित कर दिया गया. मगर ढाक के वही तीन पात. घाटे पर घाटा. घाटे पर घाटा. विमान था, सर्विस थी, लेकिन सफर करने वाले लोग नहीं थे. वायुदूत बंद होने की कई वजहें हमने ऊपर बताईं आपको. एक ये वजह भी थी कि शायद वो अपने समय से आगे की योजना थी. तब कितने लोगों की आमदनी इतनी थी कि वो हवाई जहाज में सफर कर सकें. कोई बहुत इमरजेंसी हुई, तब लोग सोचते थे. ये भी चीज थी कि तब लोगों की लाइफ स्टाइल आज जैसी नहीं थी. इतना माइग्रेशन नहीं हुआ था. लोगों को बाहर, दूर-दराज के शहरों में आए दिन जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी. लोग अपने यहां पढ़ते थे. अपने यहां नौकरी करते थे. इसीलिए वायुदूत को यात्री नहीं मिलते थे. और ये प्रॉजेक्ट नाकामयाब साबित हुआ. आखिरकार 1993 आते-आते इसे बंद करना पड़ा. इसे इंडियन एयरलाइन्स में मिला दिया गया. 1995 में भारत सरकार ने इन इलाकों में पवनहंस हेलिकॉप्टर सेवा शुरू की. और अब तकरीबन 25 साल बाद अरुणाचल के लिए कर्मशल फ्लाइट सर्विस शुरू हुई है.

ये नागरिक उड्डयन मंत्रालय की एक रिपोर्ट है. एयर कनेक्टिविटी पर. 2011 में आई थी. हमने इसके एक हिस्से का स्क्रीनशॉट लगाया है यहां. आपको इसके अंदर उत्तरपूर्वी राज्यों के साथ वायुदूत का जिक्र नजर आ रहा होगा.
घाटे का पोस्टमॉर्टम: इसकी एक बड़ी वजह राजनीति भी थी वायुदूत के जिक्र से कई नेताओं का जिक्र जुड़ा है. जैसे बूटा सिंह. बूटा सिंह के बेटे ने वायुदूत से खूब कमाया. वो अपनी प्राइवेट कार और वैन को टैक्सी बताकर वायुदूत के हवाईअड्डों पर लगाते थे. कहते हैं कि इससे उनकी खूब कमाई हुई. कांग्रेस की एक नेता थीं तब. शीला कौल. महासचिव थीं. उनका पोता वायुदूत में टेक्नीशियन बन गया. तब केंद्रीय वित्तमंत्री थे एस बी चव्हाण. उनकी बहू अमिता भी फायदा कमाने वालों की लिस्ट में थीं. भोपाल में जो वायुदूत का बेस था, उसकी हैंडलिंग एजेंसी थी प्रोग्रेसिव ट्रेवल्स. इसके मालिक थे अमिताभ. जो उस समय की केंद्रीय सामाजिक कल्याण मंत्री राजेंद्र कुमारी वाजपेयी के भतीजे थे.
वायुदूत के विमानों का राजनैतिक इस्तेमाल भी खूब हुआ. कई खबरें आईं. कि फलां केंद्रीय मंत्री ने अपने विधानसभा क्षेत्रों में इन विमानों को काम पर लगा दिया है. एक ये भी वाकया हुआ कि एक कृषि मेला लगा. उसमें आए किसानों को घुमाने के लिए नटवर सिंह ने वायुदूत विमान बुला लिया. डीग में 17 घंटों तक लगातार उड़ान भरता रहा विमान. वायुदूत को एक घंटे के लिए करीब 5,000 रुपये की लागत उठानी पड़ी. बाद में जब वायुदूत सेवाएं देश के कई और हिस्सों में शुरू हुईं, तब तो और भी राजनीति होने लगी. जो नेता चाहता, अपने इलाके के लिए सर्विस शुरू करवा देता. जैसे शिवराज पाटिल. जून 1988 में वो नागरिक उड्डयन मंत्री बने. 1 अक्टूबर को उन्होंने अपने क्षेत्र अकोला के लिए वायुदूत सर्विस शुरू करवा दी. अरुण नेहरू के फुर्सतगंज भी सेवा शुरू हुई. कई बार ये विमान खाली उड़ा करता था. क्योंकि यात्री ही नहीं होते थे.

अमिताभ बच्चन ने जो किया, वो कोई अनोखी बात नहीं थी. भारत की राजनीति में ऐसी मिसालें भरी पड़ी हैं. नेता राजनैतिक फायदों के लिए एक से एक बेतुके फैसले लेते हैं. मिसाल के तौर पर भारत के रेल मंत्रियों का इतिहास उठाकर देख लीजिए. जो भी रेल मंत्री बनता, अपने राज्य और अपने क्षेत्र को तवज्जो देता. रेल बजट से पहले ये बात तय मानी जाती थी. कि नई शुरू की गई ट्रेनों में कुछ तो रेल मंत्री के इलाके को समर्पित होंगी.
अमिताभ बच्चन की मिसाल तो और भी विचित्र है एक बड़ा दिलचस्प वाकया इलाहाबाद का है. ये 1986 की बात है. तब अमिताभ बच्चन वहां के सांसद थे. 12 अप्रैल, 1986 को उन्होंने इलाहाबाद के लिए वायुदूत सेवा का उद्घाटन किया. ये बहुत बेतुकी बात थी. क्योंकि वायुदूत बनते समय ही ये तय हुआ था. कि जहां इंडियन एयरलाइन्स की सर्विस नहीं है, वहीं जाएगा वायुदूत. फिर इलाहाबाद के लिए तो इंडियन एयरलाइन्स की सर्विस थी ही. और ये कोई दूर-दराज का वीराना भी नहीं था कि देश के बाकी हिस्सों से कटा हुआ है. ये सब मिसालें हैं. कि इस एयरलाइन्स सर्विस को कैसे राजनीति के लिए दुहा गया. इसके घाटे में जाने की ये भी एक बड़ी वजह थी.

चीन पिछले दो-ढाई दशकों से लगातार अपना इंफ्रास्ट्रक्चर दुरुस्त करने पर ध्यान दे रहा है. सीमांत इलाकों में बेहतर वर्ल्ड क्लास सड़कें बनवा रहा है. इसके पीछे एक मंशा ये है कि विवाद या लड़ाई की स्थिति में वहां जल्द से जल्द संसाधन पहुंचाए जा सकें. इस लिहाज से भारत की तैयारियां बहुत पीछे और कमतर हैं.
अरुणाचल पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत क्यों है? सरकार का पहली कमर्शल फ्लाइट का बस दावा गलत है. नीयत पर सवाल नहीं है. भारत के मानचित्र में अरुणाचल जहां पर है, वो जगह बहुत संवेदनशील है. इसकी सीमा चीन से लगती है. चीन इसके ऊपर अपना दावा करता है. वैसा ही दावा, जिसकी बदौलत उसने तिब्बत पर कब्जा किया. चीन का कहना है कि अरुणाचल असल में दक्षिणी तिब्बत है. इसीलिए ये भारत का नहीं, बल्कि उसका हिस्सा है. चीन ने बॉर्डर के पास वाले इलाकों में वर्ल्ड क्लास सड़कें, हवाईअड्डे वगैरह बना लिए हैं. जंग हुई, तो उसकी स्थिति हमसे मजबूत होगी. इस लिहाज से देखिए, तो आजादी के 70 साल बाद भी अगर अरुणाचल के लिए व्यावसायिक विमान सेवा नहीं थी, तो ये भारत की बहुत बड़ी नाकामी थी.
.@drjitendrasingh
— Jayant Sinha (@jayantsinha) May 21, 2018
ji our team work under the inspiring leadership of Hon'ble PM Sh. @narendramodi
ji has brought #ArunachalPradesh
on the aviation map. We will continue to work hard to connect more regions of the state. https://t.co/6vJ3oIYRC3
पहले का मतलब पहला होता है, दूसरा नहीं इस लिहाज से मोदी सरकार का अपनी पीठ थपथपाना समझ आता है. लेकिन पहले का मतलब पहला होता है. फर्स्ट. वायुदूत सेवा को बंद हुए 25 साल बीत गए हैं. मगर तथ्य तो यही है कि अरुणाचल प्रदेश के लिए पहली व्यावसायिक विमान सेवा इंदिरा सरकार ने ही शुरू की थी. वो फर्स्ट था. अब जो शुरू हुई है, उसकी एयरलाइंस सर्विस बेहतर हो सकती है. किराया कम हो सकता है. मगर, इसे 'अरुणाचल के लिए पहली व्यावसायिक विमान सेवा' नहीं कहा जा सकता है. सिविल एविऐशन विभाग को अपनी पीठ थपथपाने के कई मौके मिलेंगे. यही बात मोदी सरकार और पेमा खांडू पर भी लागू होती है. मगर फैक्ट जांचे बिना दावा करने से और अति-उत्साह में आकर अपने किए को 'पहली-पहली बार' कह देने से विश्वसनीयता खत्म होती है.Landed safely at Pasighat airport few minutes ago flying from Guwahati on Alliance Air. Proud to be part of this historic moment. I am extremely thankful to PM @narendramodi
— Pema Khandu (@PemaKhanduBJP) May 21, 2018
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