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रेलवे स्टाफ़ की किस गलती से 400 लोगों ने गंवाई अपनी जान?

भारतीय इतिहास के दूसरे सबसे बड़े रेल हादसे की असली वजह क्या थी?

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पाइलट, स्विचमैन या असिस्टेंट स्टेशन मास्टर, इनमें से किसी ने भी अगर अपना काम सही से किया होता. तो ये हादसा टाला जा सकता था. (सांकेतिक तस्वीर: Getty)
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कमल
20 अगस्त 2021 (Updated: 19 अगस्त 2021, 04:02 AM IST) कॉमेंट्स
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आज 20 अगस्त है और आज की तारीख़ का संबंध है एक ट्रेन हादसे से.
आज ही के दिन 1995 में फ़िरोज़ाबाद में कालिंदी एक्सप्रेस और पुरुषोत्तम एक्सप्रेस की भिड़ंत हुई. जिसमें क़रीब 400 लोगों की मृत्यु हो गई थी. इसके अलावा इस ट्रेन हादसे में 393 लोग घायल हुए. 1981 में हुए बिहार ट्रेन हादसे के बाद ये भारत का सबसे बड़ा ट्रेन हादसा था. इस मामले में संसद में बयान देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने बताया कि ये ट्रेन हादसा, ‘ह्यूमन ऐरर’ यानी मानवीय भूल के चलते हुआ. तहक़ीक़ात के बाद पता चला कि दोनों ट्रेनों के पाइलट, स्विचमैन या असिस्टेंट स्टेशन मास्टर, इनमें से किसी ने भी अगर अपना काम सही से किया होता. तो ये हादसा टाला जा सकता था. नीत्शे और ईश्वर क़िस्से की शुरुआत एक शब्द से- भरोसा. भरोसा, एक इंसान का दूसरे इंसान पर. भरोसा ईश्वर पर. भरोसा ज़िंदगी का और मौत का भी. 19 वीं सदी में नीत्शे ने अपनी किताब ‘द गे साइंस’ में लिखा,
‘God is dead. God remains dead. And we have killed him.'
यानी
ईश्वर मर चुका है, वो मृत ही रहेगा. और हमने ही उसे मारा है.'
इस कथन का सामान्य अर्थ ये मान लिया जाता है कि नीत्शे ईश्वर के अस्तित्व को नकार रहे थे. लेकिन इस कथन से नीत्शे का अभिप्राय था कि आने वाले वक्त में लोगों का ईश्वर से भरोसा उठ जाएगा. उस दौर को यूरोप के इतिहास में ‘age of enlightenment’ कहा गया. यानी विज्ञान और तर्क का युग. विज्ञान प्रतिदिन ऐसे फ्रंटियर पार कर था. जिनके नज़दीक जाना भी blasphemy यानी ईश-निंदा समझा जाता था.
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महान जर्मन दार्शनिक, फ़्रेडरिक नीत्शे (तस्वीर:Getty)


21वीं सदी में नीत्शे की ये भविष्यवाणी शब्दशः सत्य साबित हुई. और समय के साथ ‘भरोसा’ और ‘फ़ेथ’ जैसे शब्द अंधविश्वास की कैटेगरी में आ गए. फिर चाहे वो लोगों का एक-दूसरे पर भरोसा हो, ‘सिस्टम’ पर भरोसा हो, या किसी का खुद पर ही भरोसा क्यों ना हो. ‘शो मी द एविडेंस’ के तीर से विश्वास और भरोसे के सारे रक्षा कवच तोड़ दिए गए. इस सबके बावजूद किसी ना किसी रूप में भरोसे की मिसाल हमारे रोज़मर्रा के जीवन में क़ायम है. एक बात है, जिस पर हम सब भरोसा करते हैं. रोज़ करते हैं.  फ़ेथ एंड बिलीफ़ वो ये कि जब हम रोज़ रात सोने जाते हैं, तो हमें ये भरोसा रहता है कि हम सुबह उठेंगे. कोई भी इस डर के साथ नहीं सोता कि शायद सुबह उठ ही ना पाए. जबकि इसकी कोई गॉरन्टी नहीं है.  इसके अलावा जब हम गाड़ी या बस में सफ़र करते हैं, तो ड्राइवर पर भरोसा रखते है. कि वो हमें सही सलामत पहुंचा देगा. अनकॉन्ससियसली ही सही, आम ज़िंदगी में कई चीजों पर हम भरोसा करते हैं. चाहे वहां कोई एविडेंस या प्रूफ़ ना हो तो भी. अब चाहे इसे ‘एवल्यूशनरी ट्रेट’ कह लीजिए, या मनुष्य की ‘इन बॉर्न’ आस्तिकता का प्रूफ़.
जिस ट्रेन हादसे के बारे में आज बात हो रही है. उसकी सेंट्रल थीम ही ‘भरोसा’ है. ग़लत बात पे भरोसा, ग़लत व्यक्ति पर भरोसा. और इसी ‘भरोसे’ के नाम पर अपनी ज़िम्मेदारी से मुंह मोड़ लेने की हमारी आदत.
फ़िरोज़ाबाद स्टेशन पर उस दिन जब दोनों ट्रेनें टकराईं, तो सुबह के 3 बज रहे थे. उस वक्त दोनों ट्रेनों के अधिकतर मुसाफ़िर सो रहे थे. इसी ‘भरोसे’ के साथ कि जब सुबह उठेंगे तो दिल्ली पहुंच चुके होंगे. लेकिन दिल्ली दूर थी और कई मुसाफ़िर अपनी नींद से फिर कभी ना जग पाए.
सुनने में बात बड़ी अटपटी लगती है. आख़िर स्टेशन पर खड़ी किसी ट्रेन को कोई दूसरी ट्रेन कैसे टक्कर मार सकती है. दोनों ट्रेन के ड्राइवर, स्टेशन मास्टर, क्या सब सो रहे थे? उत्तर है, नहीं. कोई नहीं सो रहा था. लेकिन पहली बात तो ये कि सरकारी नौकरी के साथ जो तोहमत जुड़ी हुई है, ये ट्रेन ऐक्सिडेंट इसका 'Perfect Example’ है. दूसरी बात कि जिस भरोसे की बात हम कर रहे थे, उसी का यहां दुरुपयोग हो रहा था. हर कोई इस भरोसे में चल रहा था कि उसने सही से काम नहीं भी किया तो क्या, दूसरा सम्भाल लेगा. किसी एक व्यक्ति ने भी अपनी ड्यूटी सही से निभाई होती तो ये ट्रेन हादसा नहीं होता. कैसे हुई दुर्घटना दुर्घटना के दिन कानपुर से भिवानी जाती हुई कालिंदी एक्सप्रेस क़रीब 2 बजकर 45 मिनट के आसपास फ़िरोज़ाबाद पहुंची. फ़िरोज़ाबाद स्टेशन क्रॉस किए सिर्फ़ 400 मीटर ही हुए थे कि ट्रेन ने एक नील गाय को टक्कर मार दी. नीलगाय से टकराते ही ड्राइवर एस एन सिंह. ने ब्रेक अप्लाई किया. तब ट्रेन में वैक्यूम-कंट्रोल वाले ब्रेक हुआ करते थे. जिन्हें ऐक्टिव होने में 15 मिनट का टाइम लगता है. इस दौरान ट्रेन वहीं पर खड़ी रही. ट्रेन ने तब तक 'एडवांस स्टार्टर सिग्नल’ पार नहीं किया था. एडवांस स्टार्टर वो सिग्नल होता है जिसे पार करने के बाद ट्रेन अपनी पूरी गति से चल सकती है. जैसे ही एडवांस स्टार्टर सिग्नल चेंज होता है. स्विचमैन को पता चल जाता है कि ट्रेन स्टेशन के दायरे से बाहर जा चुकी है. स्विचमैन ये बात स्टेशन मास्टर को बताता है. जिसके बाद ही कोई दूसरी ट्रेन उस स्टेशन पर आ सकती है.
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एडवांस स्टार्टर सिग्नल और होम सिग्नल की स्थिति (ग्राफ़िक्स)


नियम के मुताबिक, ड्राइवर को स्टेशन मास्टर को बताना चाहिए था कि ट्रेन रुकी हुई है. या फिर वो केबिन को भी नोटिफ़ाई कर सकते थे. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. उन्हें ‘भरोसा’ था कि केबिन में स्विचमैन को दिख ही गया होगा कि एडवांस स्टार्टर सिग्नल चेंज नहीं हुआ है. उस दिन स्विचमैन का काम कर रहे थे, गोरेलाल. 54 साल के गोरेलाल पिछले 10 साल से इस काम में थे. रूटीन काम और रूटीन ‘भरोसा’. कि ट्रेन स्टेशन से आगे बढ़ गई है तो निकल ही गई होगी.
गोरेलाल अगर एक बार बाहर झांक लेते तो उन्हें ट्रेन की बत्ती और 'एडवांस स्टार्टर सिग्नल’ दोनों दिख जाते. वो भी नहीं तो कम से कम केबिन में लगी बत्ती को देख लेते तो समझ जाते कि ट्रेन ने 'एडवांस स्टार्टर सिग्नल’ को पार नहीं किया है. आगे भी मिले मौके इसके आगे भी कई मौक़े आए जिससे ये ट्रेन हादसा टाला जा सकता था. उस दिन फ़िरोज़ाबाद स्टेशन में असिस्टेंट स्टेशन मास्टर (ASM) एस बी पाण्डेय ड्यूटी पर थे. पुरुषोत्तम एक्सप्रेस के आने का टाइम हो रहा था. सो ASM ने केबिन में गोरेलाल को फ़ोन मिलाया. उन्होंने पूछा,
‘ट्रैक खाली है? सुपरफास्ट पुरुषोत्तम एक्सप्रेस को पास होना है’.
गोरेलाल ने हां में जवाब दिया और ASM पाण्डेय ने मान भी लिया. बात फिर भरोसे की थी. जबकि नियमानुसार ASM को अगले स्टेशन यानी ‘हीरनगांव’ फ़ोन करना चाहिए था. जहां से उन्हें पता चल जाता कि कालिंदी एक्स्प्रेस पहुंची है या नहीं.  लेकिन ASM ने गोरेलाल की बात पर पूरा ‘भरोसा’ जताते हुए पुरुषोत्तम एक्सप्रेस को इजाज़त दे दी. होम सिग्नल पीला हो गया.
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21 को ट्रेन का मलबा हटाने के लिए क्रेन मंगाई गई (तस्वीर: Getty)


पुरुषोत्तम एक्सप्रेस स्टेशन पर पहुंची. जिसे दयाराम चला रहे थे. चूंकि कालिंदी एक्सप्रेस ‘एडवांस स्टार्टर सिग्नल’ पार नहीं की थी. इसलिए उससे पहले जो स्टार्टर सिग्नल था, वो रेड था. मतलब दयाराम को ट्रेन की रफ्तार धीमी कर देनी चाहिए थी. उन्हें स्टार्टर सिग्नल के पहले रेल को रोकना था. लेकिन उन्हें ‘रेड स्टार्टर सिग्नल’ पर बिलकुल ‘भरोसा’ नहीं था. होता भी क्यों, मशीन थी, कोई आदमी जो क्या था जिस पर ‘भरोसा’ किया जा सके. उन्हें लगा स्विचमैन को सिग्नल हरा करने में देरी हो गई है.
इसलिए होम सिग्नल के येलो और स्टार्टर सिग्नल के रेड होने के बावजूद दयाराम ने ट्रेन की स्पीड हल्की नहीं की. ट्रेन सिर्फ़ 300 मीटर आगे बड़ी थी कि ड्राइवर को कालिंदी एक्सप्रेस दिख गई. पर ‘अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत’. आनन-फ़ानन में ब्रेक दबाया गया. ट्रेन 100 किलोमीटर की स्पीड से चल रही थी. इस स्पीड पर ब्रेक लगाने से एक एक्सप्रेस ट्रेन कम से कम एक मील दूर जाकर ठहरती है.
पुरुषोत्तम एक्सप्रेस इसी रफ़्तार से जाकर कालिंदी एक्सप्रेस से भिड़ गई. लोहा लोहे में ऐसे गुंथ गया जैसे किसी ने हाथ से गांठ लगाई हो. दूर से देखो तो पता ही नहीं लग चलता था कि कौन सा डब्बा किस ट्रेन का है. एक ट्रेन का डब्बा दूसरे के ऊपर ऐसे चढ़ा था जैसे चूड़ियां आपस में उलझ गई हों . आयरनी ये कि फ़िरोज़ाबाद अपनी चूड़ियों के लिए ही फ़ेमस है.
दोनों ट्रेनों का मलबा खंगालने में तीन दिन लग गए. जहां देखो लाशें बिखरी पड़ी थी. इसके अलावा चारों तरफ 'बॉडी पार्ट्स’ फैले हुए थे. कहीं किसी का हाथ तो कहीं कोई पैर पड़ा हुआ था. कई लोगों की शिनाख्त तक ना हो पाई. मरे हुए लोगों की ठीक-ठीक संख्या बताना भी मुश्किल था. ट्रेन की लिस्ट को देखकर मारे गए लोगों की संख्या का पता लगाया गया. पर कई लोग ऐसे थे जो बिना टिकट चढ़े होंगे. उनकी कहीं कोई गिनती नहीं थी. जिन अंगो की शिनाख्त ना हो पाई, उन्हें उठाकर एकसाथ चिता पर रख दिया गया. कालिंदी एक्सप्रेस के जनरल कंपार्टमेंट में बस चार लोग जिंदा बचे. एपिलॉग प्लेन से यात्रा करते हुए कम से कम पहली बार सबको घबराहट होती ही है. लगता है कि 10000 फ़ीट की ऊंचाई में अगर कुछ हो गया तो क्या ही कर पाएंगे. जबकि पूरी दुनिया में हवाई यात्रा सबसे सुरक्षित साधनों में से एक है. इसके विपरीत आज़ादी के बाद से लेकर अब तक भारत में हर साल औसतन 250-300 रेल हादसे होते हैं. कई रेल मंत्रियों को रेल दुर्घटना के चलते इस्तीफ़ा भी देना पड़ा है. लेकिन ट्रेन में चढ़ते हुए कोई नहीं सोचता कि उसका ऐक्सिडेंट भी हो सकता है.
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मलबे में फ़ंसे हुए लोगों को ढूंढ़ते हुए राहतकर्मी (तस्वीर : Getty)


भारत में ट्रेन नेटवर्क की लंबाई इतनी है कि इससे धरती को इक्वेटर की सीध में डेढ़ बार लपेटा जा सकता है.
रेलवे को भारत की लाइफ़ लाइन कहा जाता है. ट्रेन का सफ़र लगभग हर भारतीय की रोज़ मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा है. ट्रेन भारत की संस्कृति में इतनी रची-बसी है कि भारत का कोई भी ख़्याल रेलवे के बिना अधूरा है. फिर चाहे वो ट्रेन की छत पर 'छैयां छैयां' गाता हुआ ‘दिल से’ का ‘अमर’ हो. या, ‘कसतो मज़ा है रेलईमा’ गाता हुआ ‘परिणीता’ का ‘शेखर’
ज़रूरत है कि रेल नेटवर्क को आधुनिक सुरक्षा मानको के हिसाब से दुरुस्त किया जाए. ताकि ऐसे हादसे बार-बार ना हों.

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