भारतीय राजनीति के शापित अश्वत्थामा हैं अमर सिंह!
अमर सिंह की मधुशाला के अच्छे दिन आ गए हैं. पढ़िए हर जगह टांग अड़ाए अमर सिंह की कहानी बयां करता ये पीस.
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फोटो - thelallantop

ऋषभ श्रीवास्तव
ये ऋषभ हैं. दी लल्लनटॉप के नए साथी. अभी इस बरस यूपीएससी में सिविल सर्विसेस का इंटरव्यू देकर आए. नहीं हुआ. कह रहे हैं कि अब नहीं बनना कलेक्टर. हमने पूछा क्यों. अभी तो दो अटैंप्ट बाकी हैं. तो बोले. इंटरव्यू में अनुभव अच्छा नहीं रहा. अंट शंट पूछते रहे. मैकेनिकल में इंजीनियरिंग किया. पर पेपर दिया सोशियोलॉजी से. फिर भी इंटरव्यू में इंजीनियरिंग के सवाल पूछते रहे. नहीं बताया, तो भी खुरेंचते रहे.
हमने कहा. जो मन करे सो करो. हर बार तो वही बोर्ड नहीं रहेगा न. और जब तक ब्रेक लेना है. हमारे लिए लिखो. तो लिखा. हमारे कहने पर. इस बार अमर सिंह पर लिखा. ताजा-ताजा सपा वालों ने राज्यसभा भेजा है. ऋषभ ने अमर सिंह को पूरा खंगाल डाला है. कहते हैं कुछ-कुछ लिखना रह गया है. पर जित्ता लिखा है, उतना भी भरपूर है. पढ़िए:
कितने तारे टूट गए, कितने तारे छूट गए सबने पी तेरी हाला.......अमर, जारी रहेगी तेरी ये मधुशाला.
कहां से शुरू करें? ख़त्म तो ये होगा नहीं!
1956 में बॉलीवुड में कुछ बेहद सफल फ़िल्में आयीं थीं. सीआईडी, एक ही रास्ता, चोरी-चोरी, बसंत बहार, भाई-भाई, फंटूश, तूफ़ान और दिया, राज-हठ और न्यू देल्ही. उसी साल गणतंत्र दिवस के अगले दिन एक इंसान पैदा हुआ था. उसने इन सारी फिल्मों को अपने जीवन में उतार दिया. या यूं कहें कि इन सारी फिल्मों ने उस के जीवन चरित का पूर्वानुमान लगाया था. इसे संयोग कहें या उस इंसान की जिद कि जिसने अपने जीवन को एक फ़िल्मी अंदाज़ में जिया है. अफ़सोस कि ये फ़िल्मी अंदाज़ असली जीवन में क्रूर, बीभत्स, लिजलिजा और छिछला भी हो सकता है. ये इस पर निर्भर करता है कि देखने वाले की आंखों में कितनी दारू है.
एक ऐसे आदमी की कहानी जिसके बारे में आप जो चाहे सोच सकते हैं और आप गलत नहीं होंगे. आप उसे गरियाते-गरियाते हंस पड़ेंगे और उसकी दिल्लगी के किस्से सुनाने लगेंगे. आप उसकी दरियादिली की कहानियां कहते कहते गुस्से से नथुने फुला लेंगे और छोड़ो यार कह कर दाढ़ी बनाने लगेंगे. अगर आप औरत हैं तो उसकी शकल पर शायद वारी ना जाएं पर याद रखियेगा सिने तारिकायें भी उस से प्राइवेट कन्वर्सेशन करती थीं. कुछ लोगों से बर्दाश्त नहीं हुआ तो बातें टेप कर बदनाम करने की साजिश कर दी. क्या वो इंसान टूट गया? मजाक कर रहे हो? दुश्मनों के लिए वो रक्तबीज है और दोस्तों के लिए हनुमान. एक आम इंसान की नज़रों में वो डिजरायली भी है और रास्पुतिन भी. वो हिन्दुस्तान की राजनीति का शापित अश्वत्थामा है. नरो वा अमरो?
ये अलग बात है कि कई लोगों के श्राप खाकर अहिल्या की तरह बरसों पत्थर बना पड़ा था. इस साल उस पत्थर ने रगड़ खा के फिर चिंगारी फेंकी है. देखते हैं क्या ये चिंगारी फिर से वही दावानल बनेगी, जिसने 2008 में हिन्दुस्तान की राजनीति को लील लिया था?उसकी कहानी शुरू करते समय आंखों के सामने वो दृश्य कौंध जाता है जब वो हेलीकॉप्टर से खाली मैदान में उतरता है और लुढ़क कर गिर जाता है. उसकी टोपी भी उसका साथ छोड़ देती है. लेकिन एक खूबसूरत औरत उसके पीछे खड़ी रहती है और उसे अपने पैरों पर खड़ा होते देखती है. बसंत बहार 27 जनवरी 1956 को अमर सिंह आजमगढ़ में पैदा हुए थे और आजम खान से उनकी कभी बनी नहीं. एक साधारण शकल सूरत का लड़का जो राजपूत है और यादवों का सेनापति बनता है. जाति प्रथा से ग्रसित यूपी में मंडल आग के बाद क्या ये उड़ने का अंदाज नवा नहीं था उस वक़्त? जी हुज़ूर! यकीनन.
अमर सिंह का बचपन बड़ा बाज़ार कलकत्ता में गुजरा. परिवार हार्डवेयर का बिज़नेस करता था वहां. फिर वो लड़का ज़ेवियर कॉलेज कलकत्ता पहुंचता है पढ़ाई के लिए. वहां पर फोको, डेरिडा, सार्त्र पढ़ने वाली लड़कियों के सामने शर्माता है, झिझकता है, हिचकता है और पढ़ाई पूरी करता है. वो बंगाली बन जाता है. उसे बंगाली अच्छी आती है. अचानक पता चलता है कि वो बंगलौर में बिज़नेस चला रहा है. आज भी वो ईडीसीएल कंपनी का मालिक है जो इंफ्रास्ट्रक्चर और पॉवर सेक्टर में है. और भी बिज़नेस हैं पर बंदे के बिज़नेस के बारे में ज्यादा बक बक करना ठीक नहीं है. सब ठीक ठाक चल रहा है. कुछ होगा तो रगेदा जाएगा. राज-हठ 1985 में लखनऊ में ठाकुर समाज कलकत्ता की तरफ से एक मीटिंग होती है और जातिगत संबंधों के आधार पर अमर सिंह को मौका मिलता है यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के सत्कार का. मुख्यमंत्री जी अमर सिंह से प्रभावित होकर लखनऊ शिफ्ट होने का न्योता देते हैं. लौंडे में बात थी! यूं ही नहीं मैं रजनीगंधा बन जाता हूं. अमर सिंह ने मौके के जिंदादिली को समझा और दादी मां के साथ आ गए. इसके बाद उनके सम्बन्ध बॉलीवुड, कॉर्पोरेट, राजनीति के लोगों से बढ़ते चले गए. तूफ़ान और दीया 1996 में मुलायम सिंह से उनकी एक यूं ही वाली मुलाक़ात हो गयी. मुलायम जी की अपनी पार्टी चार पांच साल पुरानी थी और ज्यादातर ग्रामीण परिवेश से जुडी थी. दिल्ली की सत्ता में मुलायम डिफेन्स मिनिस्टर के रूप में कदम रख चुके थे देवेगौड़ा के सरकार में. पर 40 के अमर सिंह की युवा सोच और कनेक्शंस उनको भा गए. उन्होंने अमर सिंह को अपनी गिरफ्त में ले लिया. वो समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता बन गए. राज बब्बर, आजम खान, रामगोपाल यादव, बेनी प्रसाद वर्मा ( हाँ, यही वाले जो राज्यसभा जा रहे हैं) सबको पछाड़कर और दुखी कर अमर सिंह मुलायम के चहेते बन गए. फिर क्या, समाजवादी पार्टी ग्रामीण परिवेश से निकल कर बॉलीवुड, कॉर्पोरेट और न जाने किस किस से ताल्लुकात बढ़ाती चली गयी. अमर सिंह सुपर स्टार बन गए. और मुलायम रजनीकांत. सैफई वाली इन्द्रसभा उसी नास्टैल्जिया का रूमानी अंदाज है. न्यू देल्ही 2008 में अमर सिंह का कद बढ़ा देश की राजनीति में जब उन्होंने कांग्रेस की सिविल न्यूक्लिअर डील के तूफ़ान में उड़ते खप्पर को बचा लिया. इंटरवल ध्यान में रहे 45 की उम्र तक अमर सिंह अमिताभ बच्चन, केतन पारीख, सहारा श्री, शोभना भरतिया, चंद्रशेखर, अम्बानी, माधवराव सिंधिया, बिड़ला सबके जिगरी यार बन चुके थे. अमिताभ बच्चन के जुहू वाले घर में उनके लिए एक कमरा होता था और श्री बच्चन के गाड़ी में वो घूमते थे. यही वो दिन थे जब अमिताभ बच्चन एक बार फिर से केबीसी के बाद सिनेमा की दुनिया का फिर से ध्रुव तारा बन चुके थे. कहा जाता है कि अमर सिंह ही इस तारे के सप्तर्षि थे उस वक़्त. आम जनता के लिए भाई भाई थे दोनों. मणिशंकर अय्यर ने कहा था एक बार- इस आदमी को देखो! न तो ये अमिताभ है न ऋतिक. न ही इसके पास ऑक्सफ़ोर्ड की डिग्री है. पर इसका कॉन्फिडेंस देखो. कहां से लाता है ये कॉन्फिडेंस? सीआईडी 2008 में जब उन्होंने सरकार बचाई. उसी वक्त बीजेपी के तीन सांसद अशोक अर्गल, महावीर भगोरा, फग्गन सिंह कुलस्ते ने नोट लहराते हुए संसद में अपनी फोटो खिंचवाई थी. सांसदों की खरीद फरोख्त का आरोप अमर सिंह पर ही लगा था. बाद में एक टेप और सामने आया जिसमे वो एक जज को सेट करने की बात कर रहे थे. मतलब डेमोक्रेसी को उन्होंने कहीं का नहीं छोड़ा. अपनी तरफ से पूरी कोशिश की. तिहाड़ में भी कुछ समय बिताना पड़ा था. गौरतलब है कि अमर सिंह राज्य सभा के सांसद रहते हुए संसद की कई सारी कमिटियों जैसे विजिलेंस, मनी लॉन्डरिंग की रोक वगैरह पर काम कर चुके थे. पूरे कंटास आदमी हैं. कोई मोरल नहीं. फंटूश फिर एक ऐसा वाकया हुआ जिसने किसी को पानी पानी कर दिया तो किसी को चटकारे ले लेकर बोलने का मौका दे दिया. एक कथित टेप आया, जिसमें बॉलीवुड की अभिनेत्री बिपाशा बासु और अमर सिंह की बाते थीं. बिटवीन दी लेग्स टाइप की. अमर सिंह ने हमेशा इस बात को नकारा. पर कहीं कहीं ये भी कहते पाए गए कि मेरी वाली आवाज मेरी है पर बिपाशा वाली किसी और की है. कि मैं अपने दोस्तों से ऐसी बातें करता हूं. कौन नहीं करता यार. पर दामन में लगा दाग ऐसे नहीं छूटता. वो भी हमारी सोसाइटी में. हालांकि ये गलत था. जिसने भी टेप किया गलत किया. दूसरे से जल भुन के ऐसी हरकत क्यों करनी यार? तुम भी करो. सबका अधिकार है.
पर एक हरकत इन्होंने अपनी तरफ से भी की. बटाला हाउस एनकाउंटर में शहीद हुए इंस्पेक्टर मोहन शर्मा के परिवार को इन्होंने दस लाख का चेक दिया, जो कि बाउंस कर गया. बाद में इन्होंने मोहन शर्मा को ही कुसूरवार ठहराया और मामले की जांच की मांग की. अमर बिन तुगलक. भाई-भाई फिर एक वक़्त आया. बुरा वक़्त. अमर सिंह को समाजवादी पार्टी से बाहर कर दिया गया. जातिगत राजनीति, पार्टी के खिलाफ काम, समाजवादी सोच के खिलाफ काम. और भी कई सारे आरोप थे. उनके साथ जया प्रदा को भी बाहर किया गया. जया बच्चन ने अपना निर्णय लिया और समाजवादी पार्टी में बनी रहीं. यहीं से बच्चन परिवार के साथ उनकी खटास शुरू गयी. सच तो ये है कि उनकी खटास जीवन के हर क्षेत्र में आ चुकी थी. यह वही जया प्रदा उनके साथ थीं, जिन्होंने इनको हेलीकॉप्टर से गिरते और उठते देखा था इनके जीवन की तरह.
सारे के सारे सितारे अमर सिंह की जिंदगी से बाहर हो गए और इनके खुद के सितारे गर्दिश में आ गए. बच्चन साहब इनके बड़े भाई से अमितजी हो गए और बच्चन साहब ने अमर सिंह के बारे में हर सवाल पर मौन साध लिया. हालांकि शाहरुख़ खान ने जरूर एक बार कहा था कि अमर सिंह की आंखों में मुझे शैतान नज़र आ रहा है. ये भी कोई अच्छी बात नहीं थी. एक अच्छी खबर भी आई थी जब ये क्लिंटन कैश (सिविल न्यूक्लिअर डील में अमेरिका की क्लिंटन फाउंडेशन को पैसे खिलाने का आरोप) मामले से बरी हो गए. पर इस खबर की कोई औकात नहीं भाई भाई के रिश्तों के टूटन में.
एक और भाई के साथ दुश्मनी इनकी थी पहले से. आजम खान साहब से. बाद में ये और बढ़ गयी. जया प्रदा, जिनको आजम खान अपनी बहन बताते थे, अमर सिंह के साथ चली गयीं. फिर आजम खान के इलाके रामपुर में जया प्रदा की खराब खराब तस्वीरें लगाई गयीं और वाहियात बातें लिखी गयीं. वही, हर दुश्मनी में औरतों को झेलना पड़ता है बिलावजह. हालांकि अमर सिंह और जया प्रदा के रिश्ते बेहतर होते गए हैं वक़्त के साथ. एक ही रास्ता अमर सिंह ने 2011 में राष्ट्रीय लोक मंच नाम से पार्टी बनायी और हर चुनाव हारे. फिर उन्होंने एक तरह से संन्यास ले लिया. कहते थे ऐसा. सच ये था कि उनको दे दिया गया था. पर खिलाड़ी हार मान ले तो खिलाड़ी कैसा! अमर सिंह दांव चलते रहे. चलते रहे. अमिताभ बच्चन का नाम प्रेसिडेंट के लिए प्रस्तावित किया मीडिया में. साथ ही सिलसिला की कहानी को सच्ची भी बताते थे. पनामा वाले मामले में कुछ कुछ बोलते रहे जिसको किसी ने सुना नहीं. फिर एक आईआरएस महिला ऑफिसर से माफी भी मांगी, जिसको इन्होंने अमिताभ की हेल्प के लिए परेशान किया था और उसने रिजाइन कर दिया था. कभी इन्होंने नरेन्द्र मोदी को बहुत ही अच्छा आदमी बताया. कभी सोनिया गांधी को.
फिर मुलायम को बताने लगे. आजम खान से खाने पर भी मिलने गए. शिवपाल यादव से काफी कुछ संबंध सुधार कर लिया. पता नहीं कैसे? कैसे कर लिया यार? पाकिस्तान भेजा जाए क्या इनको दूत बनाकर?
अब वो समाजवादी पार्टी के राज्यसभा के सांसद हैं बेनीप्रसाद वर्मा के साथ. जी हां! उन्हीं के साथ. ये कहानी जारी रहेगी. अमर सिंह जब तक इस धरती पर रहेंगे. उनकी मधुशाला चलती रहेगी निशिदिन. राजनीतिज्ञ, सितारे, व्यापारी, पत्रकार, जनता और हमारे जैसे लोग इस मधुशाला में आते रहेंगे. सही और गलत का फैसला इनकी मधुशाला के पियक्कड़ नहीं कर सकते. वो या तो जज करेंगे या ऊपरवाला. या खुद अमर सिंह.वैसे अमर सिंह बॉलीवुड में शैलेन्द्र पाण्डेय की फिल्म जेडी में एक पॉलिटिशियन का किरदार निभा रहे हैं. ये फिल्म 5 अगस्त 2016 को रिलीज़ हो रही है. अमर सिंह की मधुशाला के अच्छे दिन आ गए हैं, लगता है.
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