The Lallantop
Advertisement

जब दस हजार राजपूतों ने शेरशाह सूरी को लोहे के चने चबवा दिए थे

आज बरसी है.

Advertisement
Img The Lallantop
राव मालदेव और शेरशाह सूरी
22 मई 2021 (Updated: 22 मई 2021, 05:44 IST)
Updated: 22 मई 2021 05:44 IST
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

1540 से 1545 के बीच दिल्ली सल्तनत में एक अफगान शेरशाह सूरी का उरूज किसी करिश्मे से कम ना था. उनके पिता हरियाणा की छोटी सी जागीर नारनौल के जागीरदार थे. बचपन में उनका नाम फरीद खान था. एक शिकार के दौरान बिहार के मुगल गवर्नर बहार खान पर शेर ने हमला कर दिया था. नौजवान अफगान फरीद ने उस शेर को मार गिराया और उसे नया नाम मिला, 'शेरशाह'. शेर शाह ने दिल्ली का तख़्त अपनी बदौलत हासिल किया था. दिल्ली के तख़्त पर कब्जे के महज चार साल के भीतर एक कांटे की जंग में उसकी बादशाहत जाते-जाते बची थी.

साल था 1544. जगह थी मारवाड़ का छोटा सा गांव गिरी-सुमेल. यह गांव फिलहाल राजस्थान के पाली जिले की जैतारण तहसील में पड़ता है. पहले बंगाल और फिर मालवा जीतने के बाद शेरशाह ने मारवाड़ की तरफ रुख किया. अपनी सल्तनत को टिकाए रखने के लिए उसका मारवाड़ पर कब्जा जरूरी था. 1543 के साल में उसने मारवाड़ की तरफ कूच किया.

1460 में मारवाड़ के शासक राव जोधा ने चिड़िया 'चिड़िया टूंक' की पहाड़ी पर महरानगढ़ का किला बनवाया और किले के अगल-बगल नया शहर बसाया - जोधपुर. इससे पहले मारवाड़ की राजधानी मंडोर हुआ करती थी. मंडोर के साथ दिक्कत ये थी कि ये किला समतल जमीन पर था. पहाड़ी किले सुरक्षा के लिहाज से काफी बेहतर होते हैं. अगर आप पहाड़ी के ऊपर हैं तो नीचे से आ रही दुश्मन की दस गुणा बड़ी फ़ौज से मुकाबला कर सकते हैं. शेरशाह भी ये बात जनता था. उसने जोधपुर को जीतने के लिए नई तरकीब अपनाई. वो अपनी 80 हजार घुड़सवारों की सेना और 40 तोपों के साथ जोधपुर से 90 किलोमीटर दूर गिरी-सुमेल में डेरा डालकर बैठ गया.


मेहरानगढ़ का किला
मेहरानगढ़ का किला

शेरशाह के आने की खबर पाकर मारवाड़ का शासक राव मालदेव राठौड़ भी अपनी 50 हजार घुड़सवार सेना के साथ गिरी-सुमेल पहुंच गया. एक महीने तक दोनों सेनाएं डेरा डालकर बैठी रहीं. एक महीने बाद शेरशाह को परेशानी पैदा होने लगी. इतनी बड़ी सेना को खिलाने के लिए राशन जुटा पाना बहुत मुश्किल हो गया. ये जगह दिल्ली से बहुत दूर थी. राशन की सप्लाई लाइन ठीक से खड़ी नहीं हो पा रही थी. शेरशाह ने आखिरी चाल चली.

शेरशाह ने अपने नाम से एक खत लिखा. इस खत में उसने मालदेव के कुछ सरदारों को वफ़ादारी बदलने के लिए शुक्रिया अदा किया था. शेरशाह ने ये खत मालदेव के डेरे के पास फिंकवा दिया ताकि ये उसके हाथ लग जाए. शेरशाह की चाल कामयाब रही. मालदेव भितरघात की अफवाह से परेशान हो गया. अब उसे जोधपुर खोने का डर सताने लगा और उन्होंने जोधपुर की तरफ कूच करने का फैसला कर लिया.

एक पणिहारी ने मारवाड़ की लाज बचा ली

कहते हैं कि युद्ध क्षेत्र से पीछे हटने के फैसले के बाद मालदेव के दो सेनापति जेता और कुम्पा पास ही के कुएं से पानी पीने गए. इस समय वहां पर दो महिलाएं भी पानी लेने आई हुई थीं. इसमें से एक महिला ने चिंता जताते हुए दूसरी से कहा कि अफगान सैनिक बहुत खूंखार हैं. अगर वो आ गए तो हमारा क्या होगा? जवाब में दूसरी महिला ने कहा कि जब तक जेता और कुम्पा मौजूद हैं तब तक डरने की कोई बात नहीं.

जेता और कुम्पा मारवाड़ के आसोप ठिकाने के सरदार थे. कुम्पा रिश्ते में जेता का चाचा लगता था. दोनों लोग मालदेव की सेना में सेनापति थे. इन्होंने अजमेर के शासक विरमदेव को हराकर अजमेर, मेड़ता और डीडवाना के इलाके पर मारवाड़ का पंचरंगी झंडा लहराया था. महिला की बात सुनने के बाद जेता और कुम्पा मालदेव के डेरे में गए. उन्होंने मालदेव से कहा कि वो गिरी-सुमेल छोड़कर नहीं जाना चाहते. समझाइश के बाद मालदेव दस हजार घुड़सवारों की सेना को जेता और कुम्पा के नेतृत्व में पीछे छोड़कर जोधपुर चले गए.


राव जेता की तस्वीर
राव जेता की तस्वीर

4 जनवरी 1544 के रोज मालदेव के जोधपुर चले जाने के बाद कुम्पा और जेता ने शेरशाह की सेना पर हमला कर दिया. शेरशाह को उम्मीद थी कि उसकी 80,000 की घुड़सवार सेना कुछ ही घंटों में 10,000 राजपूतों को पीटकर रख देगी. लेकिन कुछ भी वैसा नहीं हुआ, जैसा शेरशाह ने सोचा था. कुम्पा और जेता के नेतृत्व में राजपूतों ने मुकाबले की शक्ल बदल कर रख दी. कुछ ही घंटों में बादशाह की आधी सेना खेत रही.

हालत यहां तक पहुंच गई कि शेरशाह ने मैदान छोड़ने की तैयारी कर ली. उसने वापिस दिल्ली लौटने के लिए अपने घोड़े पर जीन कसने के निर्देश भी दे दिए. इस बीच उसके सेनापति खवास खान ने आकर खबर दी कि कुम्पा और जेता मारे गए हैं और उसकी सेना ने भयंकर नुकसान झेलकर आखिरकार ये जंग जीत ली है. तब जाकर कहीं शेरशाह ने राहत की सांस ली. तारीख-ए-दाउदी में जिक्र मिलता है कि जेता और कुम्पा की बहादुरी के बारे में सुनकर शेरशाह ने खवास से कहा, "मैं मुट्ठीभर बाजरे के लिए दिल्ली की सल्तनत गवां देता."

इस युद्ध में कुम्पा और जेता के मरने के बाद शेरशाह मारवाड़ के एक बड़े हिस्से पर कब्जा करने में कामयाम रहा. अजमेर से लेकर आबू तक का हिस्सा दिल्ली सल्तनत का भाग बन गया. कुम्पा की बहादुरी के किस्से राजस्थानी लोक परम्परा का हिस्सा बन गए और इस तरह दर्ज किए गए-


बोल्यो सूरी बैन यूँ, गिरी घाट घमसाण, मुठी खातर बाजरी, खो देतो हिंदवाण.



 यह भी पढ़ें 

जयराम ठाकुर: एक किसान के बेटे का मुख्यमंत्री बनना

केएल सहगल से कुमार सानू तक को गवाने वाले इकलौते म्यूज़िक डायरेक्टर की कहानी

जब केमिकल बम लिए हाईजैकर से 48 लोगों को बचाने प्लेन में घुस गए थे वाजपेयी

thumbnail

Advertisement

election-iconचुनाव यात्रा
और देखे

Advertisement

Advertisement

Advertisement