अंग्रेज़ चाय के शौकीन न होते तो आज हॉन्ग कॉन्ग न जल रहा होता
अंग्रेज़ों ने चीन को अफीमची बना दिया, फिर लड़ाई में भारत को खींच लिया.
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प्रो-डेमोक्रेसी प्रोटेस्ट करते हुए हॉन्ग कॉन्ग के लोग (फोटो: एपी)
चाय. पीने वाले शौक से पीते हैं. पिलाने वाले शौकीन निकलें तो कहां तक पहुंच सकते हैं, सीमा नहीं. लेकिन क्या हो अगर आपको बताया जाए कि चाय के चक्कर में एक बात इतनी बिगड़ गई कि 17 लाख लोगों को भरी बरसात में प्रदर्शन करने निकलना पड़ा. ये 17 लाख लोग हॉन्ग कॉन्ग की आधी आबादी थे. वही शहर जहां महीनों से चीन के खिलाफ प्रदर्शन चल रहा है. रविवार, 18 अगस्त को भी विशाल प्रदर्शन हुआ. गनीमत है कि हिंसा नहीं हुई. वर्ना पिछले 2 महीनों से पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच जमकर मारपीट हुई है. लोग सड़क पर निकलते हैं, आज़ादी मांगते हैं. पुलिस लाठी भांजती है. चीन के आगे पूरी दुनिया नतमस्तक है तो कोई कुछ कहता नहीं. लेकिन हम कहेंगे. हॉन्ग कॉन्ग की कहानी. कि ऐसा क्या पहाड़ टूटा है कि चीन का हिस्सा होकर भी हॉन्ग कॉन्ग उसके खिलाफ खड़ा है. इस बात का चाय से क्या कनेक्शन है. साथ में ये भी कि इस सब का इंडिया कनेक्शन क्या है. ये सबकुछ आसान भाषा में.हॉन्ग कॉन्ग और चाय का इंडिया कनेक्शन
सबसे पहले आपको यही बताते हैं कि हॉन्ग कॉन्ग और चाय का इंडिया कनेक्शन क्या है. चक्कर ये है कि अंग्रेज़ हिंदुस्तान पर राज करते हुए पीते थे खूब सारी चाय. ये चाय होती थी चीन में. तब भारत और श्रीलंका में चाय के इतने बागान नहीं रोपे गए थे कि इंपोर्ट न करना पड़ता. तो व्यापारी चीन से चाय लाते, बदले में कीमत चुकाते चांदी में. कभी-कभी सोने में. दिक्कत ये थी कि चीन चाय बेचता तो था लेकिन कुछ खरीदता नहीं था. तो ब्रिटेन चाय पीते पीते कंगाल होने लगा. सारा पैसा चीन जाने लगा. पैसे की इस गंगा को उलटा बहाने के लिए अंग्रेज़ों ने चीन के लोगों को अफीमची बना दिया. चीन में एक तटीय शहर था कैंटन. यहां बंदरगाह था. जहां से जहाज़ पर चाय लदती थी. यहीं से अंग्रेज़ चीन में अफीम भेजने लगे. और इस अफीम का बड़ा हिस्सा उगाया जाता था भारत में. इसे कहते थे ट्राएंगुलर ट्रेड. तीन कोण थे. चीन-भारत-ब्रिटेन. चाय ब्रिटेन को मिलती थी और ब्रिटेन के गुलाम भारत से अफीम चीन पहुंचती थी.
लेकिन अफीम का नशा ठीक नहीं होता. चीन के शासक भी यही मानते थे. तो उन्होंने चीन में अफीम पर प्रतिबंध लगाने शुरू किए. नतीजे में अंग्रेज़ों ने अफीम की स्मगलिंग करना शुरू कर दी. चीन ने कुछ दिन इंतज़ार किया. फिर अफीम ले जा रहे जहाज़ों को रोका. अफीम को पानी में बहा दिया. व्यापारियों को गिरफ्तार कर लिया. अंग्रेज़ इसके बाद लड़ने आ गए. 1839 में अफीम को लेकर ब्रिटेन और चीन के बीच पहली लड़ाई शुरू हुई जो तीन साल चली. 1856 में चार साल के लिए फिर से जंग हुई. दोनों बार ब्रिटेन जीता और जीत के बदले में चीन की ज़मीन गिरवी रख लेता था. कैंटन बरबाद हो गया. पास की कुछ पहाड़ी द्वीपों पर मछुआरों के गांव थे. वो इलाका पहली लड़ाई के बाद अंग्रेज़ों की कॉलोनी बन गया. भारत की तरह. यही इलाका आज हॉन्ग कॉन्ग है. लेकिन चूंकि ब्रिटेन को व्यापार चीन के साथ ही करना था, तो उसने हॉन्ग कॉन्ग को हमेशा के लिए नहीं रखा. 1898 में एक संधि करके कहा कि 99 साल तक लीज़ पर ले रहे हैं. उसके बाद इलाका आपका, लोग भी आपके. राज भी आपका.

चीन ब्रिटेन के बीच लड़े गए अफ़ीम युद्ध (फोटो: opiumwarexhibition | Wordpress)
अपने कहे के मुताबिक ब्रिटेन 1997 में वापस हो लिया. लेकिन इतने समय में हॉन्ग कॉन्ग ने अपनी एक अलहदा पहचान बना ली थी. रहन सहन, भाषा और नियम कायदे कानून तक. मिसाल के लिए चीन मैंडरिन में बात करता है. हॉन्ग कॉन्ग कैंटनीज़ में. चीन में चाय में दूध नहीं पड़ता. हॉन्ग कॉन्ग में पड़ता है. चीन में एक पार्टी है - कम्यूनिस्ट पार्टी. हॉन्गकॉन्ग में कई पार्टियां हैं. तो ब्रिटेन ने वादा लिया कि 50 साल तक चीन हॉन्ग कॉन्ग के लोगों को छूट देगा. उनके मूल्यों की हिफाज़त होगी. 2047 में हॉन्गकॉन्ग पूरी तरह चीन का हिस्सा होगा. और तब तक चलेगा वन कंट्री - टू सिस्टम्स. माने हॉन्ग कॉन्ग में अभिव्यक्ति की आज़ादी रहेगी, प्रेस पर बंदिश नहीं होगी और लोग लोकतांत्रिक ढंग से अपनी पसंद नापसंद ज़ाहिर कर सकेंगे. पार्टियां होंगी और चुनाव भी.
हिस्ट्री की क्लास के बाद आते हैं हालिया प्रदर्शनों पर. क्या हुआ, कैसे हुआ, सवाल जवाब की शैली में जानिए
सवाल - जब वन कंट्री टू सिस्टम में छूट थी तो हॉन्ग कॉन्ग वाले चीन से कट क्यों गए?
जवाब - एक शब्द में जवाब - वादाखिलाफी. चीन 2047 का इंतज़ार कर नहीं रहा. लगातार हॉन्ग कॉन्ग पर अपनी पकड़ मज़बूत कर रहा है. लोगों में डर पसर गया है कि जब छूट की मियाद बाकी है, तब ही इतना दमन है तो आगे जाकर क्या होगा. कैसा दमन - 2003 में हॉन्ग कॉन्ग में एक कानून बनने को हुआ कि चीन के खिलाफ बोले तो जेल जाना होगा. तब प्रदर्शन हुए और कानून वापस लिया गया. 2014 में हॉन्ग कॉन्ग ने एक मांग की कि उसे अपने लेजिस्लेटिव काउंसिल माने संसद को लोकतांत्रिक ढंग से चुनने दी जाए. इसमें चीन का दखल न हो. लोग सड़कों पर उतरे. पुलिस ने आंसू गैस और पानी की बौछार की. लोगों ने छाते खोल लिए. ये कहलाया अंब्रेला रेवलूशन. लेकिन दमन थमा नहीं. 2016 में चीन के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले एक प्रकाशन से जुड़े लोग एक एक कर गायब हो गए. तो हॉन्ग कॉन्ग को चीन के हाथों अनहोनी का डर रहता है.

अम्ब्रैला मूवमेंट (फोटो: एपी)
सवाल - हालिया प्रदर्शन क्यों शुरु हुए?
जवाब - हॉन्ग कॉन्ग में प्रदर्शनों का इतिहास रहा है. लेकिन हालिया प्रदर्शन सबसे बड़े हैं. रोज़ लाखों लोग सड़क पर आते हैं. ये सब शुरु हुआ एक कत्ल के साथ. हॉन्ग कॉन्ग से फरवरी 2018 में कपल छुट्टी मनाने ताइवान गया. लेकिन लौटा सिर्फ लड़का. आकर उसने बताया कि उसने ताइवान में ही अपनी गर्लफ्रेंड का कत्ल कर दिया था. लड़के को हॉन्ग कॉन्ग से ताइवान भेजा जाना था. ताकि उसे कानून सज़ा सुना सके. लेकिन ताइवान और हॉन्ग कॉन्ग के बीच प्रत्यर्पण संधि नहीं थी. तो 2019 में हॉन्ग कॉन्ग के लेजिस्लेटिव काउंसिल में एक प्रत्यर्पण संधि का प्रस्ताव आया. इसके तहत लड़के को ताइवान भेजा जा सकता था. लेकिन इसी संधि का एक हिस्सा हॉन्ग कॉन्ग के लोगों को प्रत्यर्पण के रास्ते चीन भी भेजता था. चीन में कानूनी प्रक्रिया अपारदर्शी है. वहां ठीक से सुनवाई नहीं होती. प्रत्यर्पण संधि के विरोधी कहते हैं कि इसके बहाने चीन हॉन्ग कॉन्ग के हक के लिए लड़ने वाले लोगों को अपनी जेलों में ले जाकर ठूंस देगा. जब संधि के लिए बिल हॉन्ग कॉन्ग की संसद गया तो वहां मारपीट हो गई. लोग विरोध कर ही रहे हैं. इसके चलते बिल को कुछ वक्त के लिए सस्पेंड करने की बात भी हुई. लेकिन प्रदर्शनकारी चाहते हैं कि बिल पूरी तरह वापस हो.
सवाल - चीन क्या कर रहा है?
जवाब - हॉन्ग कॉन्ग के समर्थन में दुनिया भर में प्रदर्शन हो रहे हैं. वहां चीन के लोग भी प्रदर्शन करने पहुंच रहे हैं. दोनों के बीच विवाद हो रहा है. चीन की सरकार कह रही है कि हॉन्ग कॉन्ग में जो लोग लोकतंत्र की बात कर रहे हैं, वो विदेशी एजेंट हैं. चीन में हॉन्ग कॉन्ग के प्रदर्शनों के खिलाफ रैप भी बन रहे हैं.

हॉन्ग कॉन्ग का प्रोटेस्ट जारी है (फोटो: एपी)
सवाल - आगे क्या होगा?
जवाब - तकनीकी रूप से चीन के लिए ये कानून बनवाना संभव है. लेकिन हॉन्ग कॉन्ग ने इसे प्रतीकों की लड़ाई बना लिया है. वो एक कानून के विरोध के बहाने अपनी आज़ादी का कौल बुलंद कर रहे हैं. 2047 में हॉन्ग कॉन्ग चीन का हिस्सा बने न बने, हॉन्ग कॉन्ग आज उसके साथ जाने से इनकार कर रहा है. वो अपनी आवाज़ के लिए लड़ रहे हैं. और इतिहास उसे दर्ज कर रहा है. नतीजा उनके लिए गौण है.
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