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आंबेडकर ने हिंदू धर्म छोड़कर बुद्ध धर्म क्यों चुना?

आज बाबा साहब भीम राव आंबेडकर की पुण्यतिथि है

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नागपुर में जन धर्मांतरण समारोह के दौरान भाषण देते हुए आंबेडकर (फ़ाइल फोटो)
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कमल
6 दिसंबर 2021 (Updated: 5 दिसंबर 2021, 05:14 AM IST) कॉमेंट्स
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एक थॉट एक्सपेरिमेंट से शुरुआत करते हैं.
मान लीजिए एक बच्चा मां के पेट में है. आगे जाकर इसका नाम सोनू पड़ेगा. सोनू में एक ख़ास बात है. सोनू ने मां के पेट में ही समझ विकसित कर ली है. उसे दुनिया के बारे में सब पता लग गया है. जैसे समाज में अमीर-गरीब का भेद, आदमी-औरत का भेद. धर्म का भेद, जाति का भेद.
सोनू के लिए अब बड़ी दिक़्क़त है. क्योंकि उसके लिए पैदा होना लॉटरी है. अगर वो अगड़ी जाति में पैदा हुआ तो फ़ायदा, पिछड़ी में पैदा हुआ तो दिक़्क़त सहनी होगी. लड़का पैदा हुआ तो समाज में लड़की के मुक़ाबले ज़्यादा ताक़त. लड़की बना तो मुसीबत. अमीर पैदा हुआ तो बल्ले-बल्ले, गरीब पैदा हुआ तो सालों की मशक़्क़त, शायद उम्र भर की ही.
इस समस्या से निपटने के लिए सोनू को एक ताक़त दी जाती है. सोनू से कहा जाता है, समाज को अपने हिसाब से बना लो. किसे ताकतवर बनाना है, किसे कमजोर. किसे अमीर बनाना है, किसे गरीब, सब तुम्हारे हिसाब से. लेकिन एक शर्त है. समाज का हिसाब-किताब तय करने के बाद तुम किस हिस्से में पैदा होगे, इसका निर्णय तब भी तुम नहीं करोगे. वो अभी भी लॉटरी के हिसाब से होगा. सोचिए सोनू क्या करेगा? एक और थॉट एक्सपेरिमेंट ज़रा ज़मीन के नज़दीक वाला. घर में पिज़्ज़ा आया है. मम्मी-पापा, सोनू और रिंकी के लिए. पापा कहते हैं, सोनू पिज़्ज़ा के हिस्से कर. रिंकी शिकायत करती है, पापा ये अपने लिए सबसे बड़ा हिस्सा काटेगा. पापा कहते हैं, अच्छा रिंकी. तो फिर तू हिस्से कर दे.
लाज़मी था, सोनू ने वही शिकायत पापा के सामने दोहराई. अब रिंकी अपने लिए सबसे बड़ा हिस्सा काटेगी. इससे पहले कि पिज़्ज़े के लिए घर में कोहराम मचता, मम्मी एक तरकीब बताती है. पिज़्ज़ा के हिस्से सोनू करेगा. इससे पहले कि सोनू के चेहरे पर मुस्कुराहट आती. मम्मी एक शर्त साथ में रख देती है, हिस्से तो सोनू करेगा लेकिन मिलेगा उसे लास्ट वाला हिस्सा.
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वकालत की पढ़ाई के दौरान और पूरी कर लेने के बाद आंबेडकर (फ़ाइल फोटो)


अब सोनू क्या करेगा. इसका जवाब कमोबेश आसान है. सोनू को बराबर हिस्से ही करने होंगे. उसके पास और कोई चारा नहीं है. पहले जो थॉट एक्सपेरिमेंट बताया था. उसमें भी सोनू को यही करना पड़ेगा. और सोनू क्या हम सब यही करेंगे. ऐसी दुनिया कोई नहीं चाहेगा जिसमें थोड़े से लोग सारी ताक़त इकट्ठा किए बैठे रहें और बाकी लोग निचले पायदान पर रह जाएं.
ये जो थॉट एक्सपेरिमेंट हमने बताया, ये दार्शनिक जॉन रॉल्ज़ का बनाया हुआ है. नाम है ‘वेल ऑफ़ इग्नोरेंस’. यानी एक ऐसा पर्दा जिसके बाहर खड़े होकर आप समाज के किसी एक हिस्से को विशेषाधिकार नहीं दे सकते. क्योंकि आप नहीं जानते कि आप समाज में कहां जाकर खड़े होंगे. जब एक लॉटरी के हिसाब से तय होता हो कि आप किस पायदान पर बैठेंगे तो समाज में सबसे बेहतर व्यवस्था ये होगी कि निचले स्तर पर पैदा हुए लोगों को सबसे बेहतर मौक़े दिए जाएं. आंबेडकर और धर्म 1923 में जब बाबा साहब भीमराव आंबेडकर भारत लौटे तो जाति के संदर्भ में यही सवाल उनके सामने भी था. शुरुआत में उन्होंने समाजवाद और मार्क्सवाद में इस सवाल का हल खोजा. लेकिन अंत में उत्तर पाया धर्म में. कैसे? आइए जानते हैं.
14 अक्टूबर 1956 को डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने नागपुर में लाखों दलितों के साथ मिलकर बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था. ऐसा उन्होंने क्यों किया, ये जानने के लिए आज़ादी के पहले के भारत में जाना होगा.
1947 में भारत में अंग्रेजों से आज़ादी के समांतर एक और मांग उठी. जाति प्रथा से आज़ादी की. आंबेडकर ने कहा, दलितों को सदियों से चले आ रहे शोषण से आज़ादी नहीं मिलती तो ये आज़ादी उनके लिए खोखली साबित होगी.
समस्या का हल ढूंढने के लिए आंबेडकर समस्या की जड़ में गए. उनके हिसाब से समस्या की जड़ थी, हिंदू धर्म में चार वर्णों का विभाजन. जिसके कितने ही वाजिब कारण दिए जाएं, एक बात तो तय है, एक चीज़ को चार में बंटवारा किया गया तो मानव मस्तिष्क को उसमें श्रेणियां ढूंढनी ही थीं.
सबसे नीचे का पायदान आया दलितों के हिस्से. और ये सब तर्क के चलते तो हुआ नहीं था जो तर्क से इसकी काट दी जाती. ये देन थी धर्म की. इसलिए आंबेडकर को लगा कि बिना धर्म के सवाल को हल किए, दलितों की समस्या का हल नहीं हो सकता. एक तरीक़ा तो था कि रबड़ उठा कर जाति वाला कॉलम ही मिटा दिया जाए. लेकिन जाति सिर्फ़ रिकॉर्ड में तो दर्ज़ थी नहीं कि मिटा दी जाती. वो हिंदू समाज के रोम-रोम में बसी थी. हिंदू धर्म छोड़ने की घोषणा बचपन से जाति प्रथा का दंश झेल चुके आंबेडकर ने 13 अक्टूबर 1935 को नासिक में एक घोषणा की. जिसमें उन्होंने कहा कि वो हिंदू धर्म छोड़ने का निर्णय ले चुके हैं. इसके अगले साल यानी 1936 में उन्होंने महार सम्मेलन के दौरान एक और भाषण दिया. जो ‘मुक्ति कोण पथे’ यानी ‘मुक्ति का मार्ग क्या है’ इस नाम से छपा. इस भाषण में उन्होंने सिलसिलेवार रूप से तर्क दिए कि दलितों को अपना धर्म बदलने की ज़रूरत क्यों है.
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25 नवंबर 1949 को राजेंद्र प्रसाद को भारतीय संविधान का अंतिम मसौदा प्रस्तुत करते हुए आंबेडकर (फ़ाइल फोटो)


उनका कहना था कि हिंदू धर्म में जाति का कॉन्सेप्ट धर्म शास्त्रों से आया है (स्मृति और पुराण). इसलिए जब तक इनको नष्ट नहीं किया जाएगा, तब तक जाति प्रथा ख़त्म नहीं होगी. उन्होंने हिंदू धर्म शास्त्रों को दो हिस्सों में बांटा. सिद्धांत और नियम. सिद्धांत और दर्शन की बात उपनिषदों में की गई है, लेकिन असलियत में उपनिषद हिंदू जीवन शैली में कहां बैठते हैं, इसके लिए किसी सर्वे की आवश्यकता नहीं है.
हिंदुओं की जीवन शैली, उनके त्योहार सब पुराणों और स्मृतियों से आते हैं. और धर्म भी ऐसा कि जिसे सनातन कहा गया है. जो सदा-सदा से है, उसमें बदलाव कैसे आएगा. बाहरी तौर पर बदलाव आ भी गया तो जाति प्रथा जो धर्म के मूल में है, कभी नष्ट नहीं होने वाली. 'मुक्ति कोण पथे' इन्हीं सब तर्कों के साथ बाबा साहब ने दलितों से कहा कि अगर वो सदियों की बेड़ियों को तोड़ना चाहते हैं, तो हिंदू धर्म छोड़ने के सिवाय कोई चारा नहीं है. ‘मुक्ति कोण पथे’ में आंबेडकर धर्म बदलने के दो कारण बताते हैं. पहला सांसारिक और दूसरा आध्यात्मिक.
सांसारिक कारण बताते हुए उन्होंने दलितों और सवर्ण जातियों के बीच संघर्ष को क्लास स्ट्रगल का नाम दिया. वो कहते हैं,
“यह दो व्यक्तियों या दो समूहों के बीच का संघर्ष नहीं बल्कि दो वर्गों के बीच का संघर्ष है. यह एक आदमी पर दूसरे के प्रभुत्व या अन्याय का सवाल नहीं. यह एक वर्ग का दूसरे वर्ग पर प्रभुत्व का, एक वर्ग द्वारा दूसरे के साथ किए गए अन्याय का प्रश्न है.
दो वर्गों का संघर्ष तब पैदा होता है, जब आप उच्च वर्गों के साथ समानता पर जोर देते हैं. उनके गुस्से का एक ही कारण है. और वह है समानता की मांग करने वाला आपका व्यवहार, जो उनके सम्मान को ठेस पहुंचाता है.”
इसके बाद एक दूसरा सवाल खड़ा हुआ. हिंदू धर्म को छोड़ दें तो जाएं कहां? इसके लिए बाबा साहब ने उसी पर्दे का सहारा लिया जिसके बारे में हमने शुरुआत में बताया था. उन्होंने सोचा कि एक समाज का शुरू से निर्माण किया जाए तो कौन सी व्यवस्था बेहतर होगी. उन्होंने समाजवाद और मार्क्सवाद में इस सवाल का हल खोजा. आंबेडकर का अनुभव था कि भारतीय समाज की परिकल्पना धर्म के बिना नहीं हो सकती. सिर्फ़ राजनैतिक ढांचे में परिवर्तन से दलितों का उद्धार नहीं होने वाला.
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फरवरी 1934 में राजग्रह में आंबेडकर अपने परिवार के सदस्यों के साथ. बाएं से - यशवंत (पुत्र), अम्बेडकर, रमाबाई (पत्नी), लक्ष्मीबाई (उनके बड़े भाई, बलराम की पत्नी), मुकुंद (भतीजे) और आंबेडकर का पसंदीदा कुत्ता, टोबी (फ़ाइल फोटो)


दलित कौन सा धर्म चुने. इस सवाल के जवाब में आंबेडकर कहते हैं चूंकि जाति का संघर्ष एक धर्म के अंदर का मामला है इसलिए इसे आंतरिक मामला बताकर बाहरी हस्तक्षेप को रोक लिया जाता है. इसके बरअक्स यदि किसी मुस्लिम पर कोई अन्याय हो तो पूरे भारत के मुस्लिम उसका साथ देते हैं. दलितों में संगठन का अभाव है. इसलिए उन्हें एक ऐसे धर्म को चुनना होगा जो संख्या में अधिक हों और अन्याय का विरोध कर सके.
आंबेडकर के शुरुआती लेखों और भाषणों में उनका झुकाव इस्लाम की ओर दिखता है. 1929 में ‘बहिष्कारी भारत’ के एडिटोरियल लेख ‘नोटिस टू हिंदूइज़्म’ में वो लिखते हैं,
‘धर्म परिवर्तन करना है तो मुसलमान बनो’
तब हिंदूवादी संगठनों को इससे ख़तरा लगा तो उन्होंने आंबेडकर के सामने आर्य समाज या सिख धर्म चुनने का प्रस्ताव रखा. लेकिन कुछ ही सालों में आंबेडकर को समझ आया कि सिख धर्म भी जाति प्रथा से अनछुआ नहीं है. इसलिए उन्होंने इसका विचार त्याग दिया. 1936 में अपनी घोषणा के अगले 20 सालों तक आंबेडकर सही धर्म के सवाल पर जूझते रहे. बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य सांसारिक तौर पर मुस्लिमों की अच्छी ख़ासी संख्या के कारण उन्हें इस्लाम धर्म उचित लग रहा था. लेकिन धर्म बदलने का एक दूसरा कारण भी था, आध्यात्मिक. उनके लेख ‘बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य’ में वो इस बारे में तर्क देते हैं. उनका कहना था
‘व्यक्ति का जन्म समाज की सेवा के लिए नहीं, उसकी अपनी मुक्ति के लिए होता है’
उनके हिसाब से एक व्यक्ति के विकास के लिए तीन चीजों की आवश्यकता होती है- करुणा, समानता और स्वतंत्रता. उनके मतानुसार जाति प्रथा के चलते हिंदू धर्म में इन तीनों का ही अभाव था. सांसारिक पक्ष के लिए आंबेडकर को इस्लाम और ईसाई धर्म में ये तीनों चीज़ें दिखाई दी. लेकिन उनके लिए धर्म का आध्यात्मिक पक्ष भी बहुत ज़रूरी था. धर्म के आध्यात्मिक पक्ष के बारे में लिखते हुए वो चारों धर्मों की तुलना करते हैं. उनका कहना था,
ईसाई धर्म की स्थापना ईसा मसीह ने की है जो खुद को ईश्वर का बेटा कहते हैं. और ऐसा माने बिना कोई भी ईश्वर के दरबार में प्रवेश नहीं कर सकता. इस्लाम के संस्थापक मुहम्मद ना सिर्फ़ खुद को पैग़म्बर घोषित करते हैं, बल्कि जन्नत में जाने के लिए ये मानना भी ज़रूरी है कि वो आख़िरी पैग़म्बर हैं. उनके बाद और कोई पैग़म्बर नहीं पैदा हो सकता. हिंदू धर्म के बारे में आंबेडकर कहते हैं, हिंदू धर्म में कृष्ण ने ईसा मसीह और मुहम्मद से भी आगे जाकर खुद को ईश्वर घोषित कर दिया.
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14 अक्टूबर 1956 को धम्म दीक्षा लेते हुए आंबेडकर (तस्वीर: wikimedia commons)


अंत में आंबेडकर इन तीनों की तुलना गौतम बुद्ध से करते हैं. बुद्ध एक साधारण इंसान थे. उन्होंने कभी भी ईश्वर होने का दावा नहीं किया. कोई चमत्कार नहीं किया. उन्होंने खुद को मुक्ति देने वाला ना कहकर मुक्ति का मार्ग दिखाने वाला कहा.
तर्क और विज्ञान के विद्यार्थी रहे आंबेडकर के लिए धर्म पारलौकिक नहीं हो सकता था. उनका कहना था कि धर्म इंसान के लिए हैं ना कि भगवान के लिए. और जाति का सवाल ही जब बराबरी का सवाल था, तो ऐसी किसी धर्म की जगह कहां बचती थी, जिसमें एक व्यक्ति बाक़ियों से ऊपर हो जाए. अप्प दीपो भव अगले चरण में आंबेडकर चारों धर्मों के तार्किक पक्ष की तुलना करते हैं.
उनके अनुसार हिंदू, इस्लाम और ईसाई धर्म का आधार आस्था है. इन धर्मों में एक व्यक्ति ने जो कह दिया, वो पत्थर की लकीर था. उस पर ना सवाल उठाया जा सकता है, ना ही कोई तर्क किया जा सकता है. इसके मुक़ाबले बुद्ध अपनी शिक्षा के अंतिम सत्य होने का दावा नहीं करते. उनकी दीक्षा थी, अप्प दीपो भव. यानी खुद अपने दीपक बनो. स्वयं सत्य को जानो.
‘महापरिनिर्वाण-सूत्र’ में बुद्ध आनन्द से कहते हैं कि उनका धर्म तर्क और अनुभव पर आधारित है. उनकी कही बात सिर्फ़ इसलिए सही नहीं है कि वो बुद्ध ने कही है. जो सत्य है, उसके लिए आस्था की ज़रूरत क्यों है. पानी सत्य है. क्योंकि वो है, इसलिए नहीं कि आप उसमें आस्था रखते हैं. आंबेडकर के लिए धर्म का तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण पक्ष था, बदलाव.
‘बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य’ नाम के अपने लेख में वो कहते हैं कि बुद्ध का धर्म एक जीवित धर्म है. उस पर भूतकाल का बोझ नहीं है. इसीलिए बुद्ध की शिक्षाओं को काल और परिस्थितियों के हिसाब से ढाला जा सकता है. बुद्ध ने स्वयं इसकी स्वीकार्यता दी है. जबकि दूसरे किसी भी धर्म में इसका सवाल ही नहीं पैदा होता. समानता का प्रश्न आंबेडकर के लिए धर्म का विज्ञान और तर्क की कसौटी पर खरा उतरना भी ज़रूरी था. उनका कहना था कि धर्म तभी कार्य कर सकता है अगर वो बुद्धि और तर्क पर आधारित हो. जो धर्म विज्ञान के विरोध में हो, वो कैसे कार्य कर सकता है. नैतिकता के सवाल पर आंबेडकर लिखते हैं कि धर्म में सिर्फ़ नैतिकता होना ही पर्याप्त नहीं है. मायने ये रखता है कि वो नैतिकता क्या कहती है. एक सच्चे धर्म की नैतिकता में स्वतंत्रता और समानता जैसे जीवन के मूलभूत सिद्धांत शामिल होने ही चाहिए.
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2 मई 1950 को बुद्ध जयंती पर बोलते हुए डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर (तस्वीर: Wikimedia Commons)


बौद्ध धर्म में स्त्रियों की स्थिति को आंबेडकर समानता का सबसे बड़ा सबूत मानते हैं. उन्होंने कहा कि और धर्मों ने बुद्ध को सिर्फ़ अहिंसा के सिद्धांत तक सीमित कर दिया. जो वास्तव में एक महान सिद्धांत है लेकिन बुद्ध ने अहिंसा के साथ-साथ समानता की शिक्षा भी दी है. उन्होंने न केवल पुरुष और पुरुष के बीच समानता, बल्कि पुरुष और स्त्री के बीच समानता की भी शिक्षा दी.
हिंदू धर्म से इसकी तुलना करते हुए उन्होंने कहा कि हिंदुओं में शूद्र और स्त्रियां धर्म उपदेशक नहीं हो सकते. जबकि बुद्ध ने शूद्रों को अपने बराबर बिठाया और संघ में स्त्रियों को भिक्षु बनने का अधिकार दिया. कर्म का सिद्धांत आंबेडकर के विरोध में तर्क दिया गया कि दोनों धर्म कर्म के सिद्धांत पर आधारित हैं और इसलिए दोनों में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं है.
आंबेडकर ने इसका जवाब देते हुए कर्म के सिद्धांत को नए सिरे से परिभाषित किया. उन्होंने कहा कि विज्ञान के अनुसार बच्चा, माता और पिता के गुण लेकर पैदा होता है. जबकि हिंदू धर्म के अनुसार बच्चा पिछले जन्मों के कर्मों का फल साथ लेकर पैदा होता है. इसी सिद्धांत के आधार पर दलितों के शोषण के लिए खुद उन्हें ही दोषी ठहरा दिया गया. ये कहकर कि ये उनके पूर्व जन्म के कर्मों का फल है. बुद्ध ने कर्म के इस सिद्धांत को कभी नहीं माना. बुद्ध ने जब आत्मा को ही नहीं माना तो आत्मा के पुनर्जन्म का बुद्ध धर्म में कोई स्थान हो ही नहीं सकता. बुद्ध का ‘कर्म’ तात्कालिक है. अभी इसी जीवन में है. उसके लिए अगले जन्म का इंतज़ार नहीं करना पड़ता.
बौद्ध धर्म स्वीकार करने के दो महीने बाद ही आंबेडकर की मृत्यु हो गई. लेकिन इस कृत्य ने भारत में दलित और बुद्ध समाज पर गहरा प्रभाव डाला.
उनकी मृत्यु के बाद भी विद्वानों ने आंबेडकर के धर्मांतरण के उद्देश्यों पर बहस करना जारी रखा. लेकिन यह निश्चित था कि इसने भारत में दलित आंदोलन और बौद्ध धर्म दोनों को गति दी. 1950 की जनगणना के अनुसार भारत में बौद्धों की संख्या डेढ़ लाख से कुछ कम थी. आंबेडकर के बाद दलितों के बड़े पैमाने पर धर्मांतरण के परिणामस्वरूप केवल 10 साल में ये संख्या बढ़कर 32 लाख से ज़्यादा हो गई.

(इस आर्टिकल की रिसर्च में हमारे साथ इंटर्नशिप कर रहे शुभ आर्यन ने मदद की है.)


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