The Lallantop
X
Advertisement

जब एक भारतीय को मंत्री बनाकर पछताए पाक राष्ट्रपति!

ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो 1973 से 1977 तक पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रहे, इससे पहले वो अय्यूब ख़ान के शासनकाल में विदेश मंत्री रहे. 1958 तक भुट्टो खुद को एक भारतीय नागरिक क्यों बताते थे?

Advertisement
Bhutto & Ayub Khan
पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को साल 1979 में फांसी दी गई थी (तस्वीर-tv9hindi.com/Wikimedia commons)
pic
कमल
20 दिसंबर 2022 (Updated: 20 दिसंबर 2022, 08:16 IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

सयेदा हमीद पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो(Zulfikar Ali Bhutto) की बायोग्राफी में एक किस्से में जिक्र करती हैं, ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो एक रोज़ एक मीटिंग में पहुंचे. आर्मी जनरल जिया उल हक़(Zia-ul-Haq) ने उठकर उनके लिए कुर्सी खींची. भुट्टो बड़े खुश हुए और मुड़कर अपने एक सहायक से पूछा, राव राशिद, हमने जनरल के पद के लिए जिया को कैसे चुना ?
राव रशीद ने जवाब दिया,

“अमेरिका से एक टीम आई थी.उन्हें एक लिस्ट दी गई.

लिस्ट में जिया का नाम काटते हुए उन्होंने लिखा, बेकार आदमी”. भुट्टो कहते हैं.

‘हां इसी कारण हमने जिया को चुना था.’

एक और किस्सा है. एक रोज़ भुट्टो चाय पी रहे थे. चाय छलकी और उनके जूतों पर गिर गई. जिया ने देखा तो अपना रुमाल निकाला और भुट्टो के जूते साफ़ करने शुरू कर दिए. ये देखकर भुट्टो ने अपना पैर कुर्सी में रख दिया. मानो कह रहे हों, सही से साफ़ करो. भुट्टो ने कई लायक उम्मीदवारों को छोड़कर जिया को आर्मी चीफ बनाया था. और इन्हीं जिया ने मौका मिलते ही भुट्टो को फांसी पर चढ़ा दिया. लेकिन यहां हम कहानी में आगे निकल रहे हैं. आज पहले इस कहानी का पहला पार्ट जानेंगे.जब अयूब खान को लगा एक इंडियन को मंत्री बनाकर उन्होंने बड़ी गलती कर दी. इंडियन यानी जुल्फिकार अली भुट्टो.

यहां पढ़ें-जब संजय गांधी के चक्कर में नौसेना अध्यक्ष इस्तीफ़ा देने को तैयार हो गए!

Bhutto with Ayub Khan & Yahya Khan
पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो अयूब खान और याहया ख़ान के साथ (तस्वीर-Twitter)

अयूब खान(Muhammad Ayub Khan) ने भुट्टो को अपना शागिर्द बनाया था. लेकिन मौका मिलते ही भुट्टो में अयूब को किनारा लगा दिया. सत्ता के अपने आख़िरी दिनों में अयूब भुट्टो को भारत का एजेंट कहने लगे थे. भारत पाकिस्तान में अपने राजनैतिक प्रतिद्वंद्वियों को एजेंट बताने का शगल है. हमारे यहां ये कुछ नया है. पाकिस्तान इसमें काफी पहले तरक्की कर चुका था. हालांकि इस केस में अयूब यूं ही नहीं बक रहे थे. उनके हाथ सच में कुछ ऐसे दस्तावेज़ लगे थे, जिससे पता चलता था कि 1958 तक भुट्टो अपने आप को भारतीय कहा करते थे. उसी देश का नागरिक जिसे आगे चलकर उन्होंने 1 हजार साल का युद्ध लड़ने की चुनौती दी थी. क्यों कह रहे थे भुट्टो खुद को भारत का नागरिक? और चूंकि बात पाकिस्तान की हो रही है, तो किस्सा यहीं पर सिमटेगा नहीं. इस किस्से से तार जुड़े हैं, पाकिस्तान की मादर-ए-मिल्लत, मुहम्मत अली जिन्ना की बहन फातिमा जिन्ना की संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मौत से. क्या थी पूरी कहानी?

यहां पढ़ें-कैसे बीता स्वामी विवेकानंद की जिंदगी का आख़िरी दिन?

ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने खुद को भारतीय क्यों कहा?

शुरुआत उस किस्से से जब जुल्फिकार अली भुट्टो ने खुद को भारतीय कहा. मुहम्मद अली जिन्ना(Muhammad Ali Jinnah) जब पाकिस्तान गए, तो अपना एक हिस्सा भारत में ही छोड़ गए थे . मरते दम तक उनका बॉम्बे से लगाव बना रहा. कुछ ऐसा ही हाल ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो का था. बॉम्बे में रहकर उन्होंने स्कूलिंग और कॉलेज किया. आजादी के कुछ वक्त पहले भुट्टो के पिता, शाह नवाज़ भुट्टो जूनागढ़ के दीवान नियुक्त हुए. और वहां के नवाब महाबत खान को पाकिस्तान का हिस्सा बनने के लिए राजी कर लिया. हालांकि शाह नवाज़ भुट्टो की ये चाल कामयाब नहीं हुई. जूनागढ़ के लोगों ने विद्रोह कर डाला. नतीज़तन महाबत खान को पाकिस्तान भागना पड़ा. जाते-जाते वो शाहनवाज़ को भी अपने साथ ले गए. ज़ुल्फ़िकार भुट्टो की उम्र तब 19 साल के आसपास रही होगी. मुम्बई उनको बहुत प्यारा था. यहां सुन्दर क्लब से खेलते हुए उन्होंने दाएं हाथ का उम्दा बल्लेबाज़ बनने के सपने देखे थे. यहीं रहते हुए स्कूल में उनकी दोस्ती पीलू मोदी से हुई थी. जो आगे जाकर सांसद और स्वतन्त्र पार्टी के संस्थापक बने.

भुट्टो 15 अगस्त, 1947 यानी बंटवारे के बाद भी मुम्बई में बने हुए थे. लेकिन फिर मुम्बई में भड़के दंगों ने उन्हें भागने के लिए मजबूर कर दिया. 8 सितम्बर 1947 को भुट्टो ने अमेरिका के लिए उड़ान भरी. इस समय उनके पास भारतीय पासपोर्ट था. मुम्बई में उनकी कई प्रॉपर्टीज छूट गई थी. पाकिस्तान जाते हुए शाहनवाज़ भुट्टो मुम्बई की अपनी जायदाद अपने बेटे के नाम कर गए थे. इनमें से दो प्रॉपर्टीज से भुट्टो का खास लगाव था. एक चर्च गेट पर स्थित एस्टोरिया होटल. और 4A वर्ली एस्टेट वाला बॉम्बे हाउस, जिसे शाहनवाज़ ने 25 हजार 344 रूपये लीज और 1 रूपये सालाना किराए पर बॉम्बे म्युनिसिपल कारपोरेशन से लिया था.

Bhutto with Ziaul Haq
ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो आर्मी जनरल जिया उल हक़ के साथ (तस्वीर-Flickr)

एस्टोरिया होटल को 1951 में नीलाम कर दिया गया. वहीं भुट्टो के घर के लिए एक संरक्षक नियुक्त किया गया. संभव था कि इसे भी नीलाम कर दिया जाता. लेकिन भुट्टो कोर्ट पहुंच गए. समिति के सामने दाखिल किए अपने शपथ पत्र में भुट्टो ने लिखा,

“कैम्ब्रिज का एंट्रेंस पास करने के बाद मैं अमेरिका चला गया था. इससे पहले मैं मुम्बई का स्थाई नागरिक था. जब मैं अमेरिका गया, तब मेरे पास भारत का पासपोर्ट था”

आगे शपथ के दौरान भुट्टो ने कहा,

“मुझे नहीं पता मेरी बहनों ने मुम्बई कब छोड़ा. लेकिन मेरी पढ़ाई बॉम्बे में हुई थी. और मैं कराची का रहने वाला भी नहीं हूं”.

यानी भुट्टो कह रहे थे कि वो पाकिस्तान के नागरिक नहीं है. इसलिए उनकी प्रॉपर्टी उनको वापस मिल जानी चाहिए.

भुट्टो की इन दलीलों का कोई असर न हुआ. भुट्टो ने सुप्रीम कोर्ट में पिटीशन डाली. ये जानकारी हमें बार एंड बेंच वेबसाइट में लिखे संजय घोष के आर्टिकल से मिली है. पेशे से वकील संजय बताते हैं कि भुट्टो ने 11 सितंबर, 1957 को सुप्रीम कोर्ट में अपील डाली थी. जिसकी अपील संख्या थी 489. हालांकि ये केस आगे नहीं बढ़ा. बल्कि कहें कि शुरू ही नहीं हुआ. क्यों? क्योंकि उधर पाकिस्तान में भुट्टो एक नई पारी की शुरुआत करने वाले थे. वहां ये खुलासा होता तो भुट्टो का करियर शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो सकता था. भुट्टो का ये भेद पाकिस्तान में काफी बाद में खुला. लेकिन जब तक खुला, तब तक भुट्टो अपना काम कर चुके थे.

अयूब खान और भुट्टो 

भुट्टो की राजनैतिक पारी को पनाह मिली मिलिट्री तानाशाह अयूब खान के अंदर. दरअसल भुट्टो के पिता पाकिस्तान जाकर सिंध में लरकाना में बस गए थे. भुट्टो की मां लरकाना से ही आती थी. शादी से पहले वो हिन्दू थी. और उनका नाम लखी बाई था. शादी के बाद उन्होंने अपना नाम बदलकर खुर्शीद बेगम कर लिया था. लरकाना में भुट्टो परिवार खासा रसूख रखता था. जिसके चलते उनकी पाकिस्तान के गवर्नर जनरल और बाद में राष्ट्रपति बने इस्कंदर मिर्ज़ा से अच्छी खासी दोस्ती थी. इस्कंदर मिर्ज़ा अक्सर लरकाना में शिकार खेलने आते थे. ऐसे ही एक दौरे में इस्कंदर मिर्ज़ा जनरल अयूब खान को अपने साथ लेकर आए. ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो अब तक विदेश से पढ़ाई कर पाकिस्तान लौट आए थे. 1957 में उन्हें UN में पाकिस्तानी डेलीगेशन का मेंबर बनाकर भेजा गया. 1958 में पहला तख्तापलट हुआ.

Bhutto with Nixon
ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के साथ (तस्वीर-Wikimedia commons)

26 और 27 अक्टूबर की दरमियानी रात अयूब खान ने राष्ट्र्पति भवन में फौज भेजी और इस्कंदर मिर्ज़ा को प्लेन में बिठाकर लन्दन रवाना कर दिया गया. संविधान भंग हो चुका था. और जिन्ना के सपने पर कुंडली मारकर बैठ गए, नए राष्ट्रपति अयूब खान. अयूब ने अपने मंत्रिमंडल में एक नए चेहरे को जोड़ा. जुल्फिकार अली भुट्टो को वित्त मंत्रालय की कमान मिली. विदेशों में पढ़े भुट्टो डिप्लोमेसी में माहिर थे. 1960 में भारत के साथ हुई इंडस वॉटर ट्रीटी में भुट्टो ने अहम् भूमिका निभाई. साथ ही वो पाकिस्तान और सोवियत संघ के बीच एक तेल खनन संधि करवाने में भी कामयाब रहे. भारत के साथ सोवियत संघ की नजदीकी के चलते ये संधि पाकिस्तान के लिए बड़ी जीत थी. भुट्टो का कद रातों रात ऊंचा हो गया. 16 अप्रैल 1965 की CIA की एक डीक्लासिफाएड रिपोर्ट बताती है कि अयूब खान भुट्टो पर पूरी तरह निर्भर रहने लगे थे. 1963 में भुट्टो वो विदेश मंत्रालय का कार्यभार सौंपा गया. भुट्टो से पहले पाकिस्तान पूरी तरह से अमेरिका के पाले में था. लेकिन 1962 के युद्ध में चीन के हाथों हार मिलने के बाद अमेरिका ने भारत को मिलिट्री मदद देना शुरू कर दिया. इसके नतीजे में भुट्टों ने चीन की तरफ हाथ बढ़ाया.

भुट्टो यूं भी सोशलिस्ट सोच वाले नेता थे. इसलिए अमेरिका के प्रति उनके दिन में ज्यादा हमदर्दी भी नहीं थी. भुट्टो के इन कदमों ने उन्हें काफी ताकतवर बना दिया. और अब वो अयूब को आंखें दिखाने लगे थे. लेकिन कहानी आगे बढ़े, उससे पहले इस खेल में एंट्री होनी थी जिन्ना की. वो कैसे? 

फातिमा जिन्ना का चुनाव लड़ना और मौत 

1962 में अयूब खान में एक नया संविधान लागू किया. जिसमें चुनाव शामिल थे. लेकिन आम लोगों को वोट की ताकत नहीं थी. नए संविधान में इलेक्टोरल कॉलेज की व्यवस्था थी. जिसमें सिर्फ 60 से 80 हजार पाकिस्तानियों को वोट का हक़ था. 1965 में अयूब ने खुद को फील्ड मार्शल घोषित किया. विरासत का हक़दार उनका बेटा था. लेकिन अयूब थोड़ा डेमोक्रैसी भी चखना चाहते थे. हालांकि ज्यादा नहीं. बस खाने में नमक बराबर.

1965 में चुनाव हुए. अयूब को लगा निर्विरोध जीतेंगे. उनके सामने लालटेन लेकर जिन्ना का भूत खड़ा हो गया. कहने का मतलब जिन्ना की बहन फातिमा जिन्ना(Fatima Jinnah) ऑपोजिशन की संयुक्त उम्मीदवार बन गयी. और उन्होंने अपना चुनाव चिन्ह लालटेन को बनाया. फातिमा जिन्ना ने अपनी आंखो से अपने भाई को कराची की गर्मियों में बीच सड़क पर खड़ी एक एम्बुलेंस में भिनभिनाती मक्खियों के बीच मरते देखा था. जिन्ना की मौत के दो साल बाद तक उन्हें किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में बोलने की इजाजत नहीं दी गई. 1951 में जिन्ना की तीसरी बरसी आई. तब जाकर फातिमा को इजाजत मिली कि वो पाकिस्तान के नाम एक रेडियो संदेश दे. अपने रेडियो संदेश में जैसे ही फातिमा ने जिन्ना की मौत वाले दिन ऐम्बुलेंस के रुकने का जिक्र करना शुरू किया, प्रसारण काट दिया गया. फातिमा को ताउम्र शक रहा. कि उस दिन यूं ही नहीं ऐम्बुलेंस का पेट्रोल खत्म हुआ था. बल्कि ये शायद कोई साजिश थी.

Fatima Jinnah
मोहम्मद अली जिन्ना कि बहन जिन्ना की बहन फातिमा जिन्ना (तस्वीर-jammukashmirnow.com)

अपने अनुभवों के चलते फातिमा जिन्ना का पाकिस्तान से विश्वास उठ गया था. इसलिए जब 1958 में अयूब खान तानाशाह बने. फातिमा ने कहा, जो हुआ ठीक हुआ. हालांकि उनका ये भ्रम भी चंद सालों में ही जाता रहा. 1965 में उन्होंने खुद मैदान में उतरने की ठानी. इस बात से अयूब इतने आगबबूला हुए कि उन्होंने सड़कों पर गले में लालटेन लटकाए कुत्ते घुमा दिए. चुनावों में खूब धांधली हुई. इसके बावजूद फातिमा जिन्ना ढाका और कराची जीतने में कामयाब रही. हालांकि अब वो अयूब की आंख का नासूर बन चुकी थी. जुलाई 1967 में वो अपने होटल के कमरे में मृत पाई गई. यही हाल कुछ 1963 में बंगाल के कसाई सुहरावर्दी का हुआ था, जब उन्होंने अयूब को ललकारने की कोशिश की थी. कई लोगों ने बाद में बताया कि फातिमा जिन्ना के शरीर और गले पर निशान थे. हालांकि सुहरावर्दी की तरह उनका भी पोस्टमार्टम नहीं करवाया गया.

अयूब का इस्तीफ़ा और भुट्टो की गलती  

1965 में ही एक और घटना हुई. अयूब ने ऑपरेशन जिब्राल्टर के तहत भारत पर हमला किया. लेकिन कामयाबी नहीं मिली. इस घटना ने और फातिमा जिन्ना की मौत ने अयूब के खिलाफ बगावत के बीज बो दिए. और इस मौके का फायदा जिस शख्स ने उठाया, वो थे ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो. भुट्टो अब तक लोकप्रिय हो चुके थे. ताशकंद समझौते का ठीकरा अयूब के सर फोड़ने के बाद उन्होंने जून 1966 में इस्तीफ़ा सौंप दिया. अयूब भुट्टो की इस बगावत से बौखलाए हुए थे. संजय घोष अपने आर्टिकल में लिखते हैं कि इसी बीच अयूब के हाथ भुट्टो के कुछ दस्तावेज़ लगे. जिनका ब्यौरा अयूब ने अपनी डायरी में लिखा है.

3 मार्च 1967 को लिखी अपनी डायरी एंट्री में अयूब लिखते हैं,

“भारत से आए कुछ दस्तावेज़ मेरे हाथ लगे हैं. जिनसे पता चलता है कि 1958 तक भुट्टो खुद को भारतीय बताते थे ”

30 जून की एंट्री में अयूब ने लिखा है,

“मुम्बई की 50 लाख की प्रॉपर्टी के लिए ये आदमी अपनी आत्मा बेचने के लिए तैयार हो गया था”

उधर भुट्टो ने पूर्वी पकिस्तान में मुजीब-उर-रहमान की आवामी लीग से साथ मिलकर अयूब की नाक में दम कर दिया. सड़कों पर प्रदर्शन होने लगे. 1969 में अयूब ने पूर्वी पाकिस्तान का दौरा किया. जहां उन पर जानलेवा हमला हुआ. जब अयूब को पता चला कि कॉलेज में प्रदर्शन कर रहे छात्र उन्हें ‘कुत्ता’ बुला रहे हैं. उन्होंने गद्दी छोड़ने का फैसला कर लिया. और याह्या खान को अगला राष्ट्रपति नियुक्त कर खुद नेपथ्य में चले गए. याह्या खान की छाया में 1970 में चुनाव हुए. भुट्टो की पाकिस्तान पीपल्स पार्टी और मुजीब की आवामी लीग आमने-सामने थी. चुनावों में आवामी लीग को पूर्ण बहुमत मिला. ये भुट्टो के लिए सदमे के समान था. उन्होंने ऐलान किया, अगर आवामी लीग के किसी मेंबर ने नेशनल असेंबली में घुसने की कोशिश की तो उसकी टांगे तोड़ दी जाएंगी.

Zulfikar Ali Bhutto
20 दिसंबर 1971 के दिन जुल्फिकार अली भुट्टो पाकिस्तान के चौथे राष्ट्रपति बने (तस्वीर-Wikimedia commons)

भुट्टो की जिद की कीमत पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बंटकर चुकानी पड़ी. भुट्टो ने इस हार का ठीकरा भी याह्या खान के सर फोड़ दिया और अपना पॉलिटिकल करियर बचाने में कामयाब रहे. 20 दिसंबर 1971, जुल्फिकार अली भुट्टो पाकिस्तान के चौथे राष्ट्रपति बने. 1973 में चुनाव हुए और आखिरकार उनका प्रधानमंत्री बनने का सपना साकार हुआ. PM बनने के बाद भुट्टो ने काफी सारे सुधार किए. उन्होंने भूमि सुधार क़ानून लागू किए. पाकिस्तान में हेवी इंडस्ट्रीज़ की शुरुआत की. और पाकिस्तान का न्यूक्लियर प्रोग्राम भी शुरू किया, जिसके लिए उनका बयान फेमस हुआ था कि,

‘हम घासफूस खाकर जिन्दा रह लेंगे लेकिन परमाणु शक्ति हासिल करके रखेंगे’.

भुट्टो का नारा था ‘रोटी, कपड़ा और मकान’. गरीबों के बीच वो दिनों दिन लोकप्रिय होते जा रहे थे. लेकिन अभी उनके साथ वही खेल होना था, जैसा सुहरावर्दी, फातिमा जिन्ना और अयूब खान के साथ हुआ था. भुट्टो ने वरीयता और काबिलियत में कमजोर होने के बावजूद जिया उल हक़ को अपना आर्मी चीफ बनाया. जिया की चापलूसी के किस्से हमने आपको शुरुआत में ही बता दिया था. जिया ने मौका पाते ही भुट्टो को फांसी पर चढ़ा दिया. अपने आखिरी दिनों में भुट्टो को जेल में नर्क जैसे दिन गुजारने पड़े थे. उनके पूरे शरीर पर फफोले हो गए थे. फिर भी उन्हें अस्पताल नहीं जाने दिया गया. भुट्टो ने खुद अपनी जान तो गंवाई ही, उनकी गलती का खामियाज़ा पाकिस्तान को 10 साल तक भुगतना पड़ा. जिया उल हक़ एक हवाई हादसे में मारे गए. उसके आगे की कहानी भी कमोबेश वैसी ही है. बेनजीर प्रधानमंत्री बनी. नवाज शरीफ के वक्त भी लोकतंत्र बरक़रार रहा. फिर परवेज़ मुशर्रफ ने एक बार फिर तख्तापलट कर दिया. इस बीच बेनजीर भी एक फिदायीन हमले में मारी गई. इस सारी मौतों का कभी कोई हिसाब नहीं हुआ. बाकी पाकिस्तान कहने को अभी भी है. लेकिन ये जिन्ना के सपनों का पाकिस्तान है या नहीं, ये पाकिस्तान को खुद तय करना है.

Benazir Bhutto
जुल्फिकार अली भुट्टो की बेटी बेनजीर भुट्टो (तस्वीर-Wikimedia commons)
 जब बेनजीर ने पाकिस्तानी  कैप्टन को भारतीय फौज की याद दिलाई

अंत में आपको जुल्फिकार अली भुट्टो की बेटी बेनजीर(Benazir Bhutto) का एक किस्सा सुनाते हैं. इस किस्से का जिक्र बेनजीर ने अपनी आत्मकथा में किया है. भुट्टो की फांसी के बाद भी जिया उल हक़ ने उनके परिवार को नजरबन्द रक्खा. बेनज़ीर अपनी मां के साथ 6 महीने तक एक घर में नजरबन्द थीं. एक रोज़ उनकी बहन उनसे मिलने आई. साथ में सेना के एक कैप्टन इफ्तिकार भी थे. बेनजीर ने उनसे गुजारिश की कि किसी महिला गार्ड को भेज दें. लेकिन इफ्तिकार नहीं माने. बेनजीर अपनी बहन को लेकर घर के अंदर गई. पीछे-पीछे इफ्तिकार भी आए. तब बेनजीर ने उनसे कहा,

“जेल में भी केवल महिला गार्डों को महिलाओं के कमरे में घुसने की इजाजत होती है”

इफ्तिहार ने कहा, “मैं यहीं खड़ा रहूंगा”. बेनजीर ने जवाब दिया,  ‘तब कोई मीटिंग नहीं होगी’. और अपने बहन को लेने अंदर कमरे में जाने लगी. इफ्तिकार यहां भी पीछे-पीछे घुस आए. 
बेनजीर ने गुस्से में कहा,”कहां घुस रहे हैं? आप अंदर नहीं आ सकते” 

इफ्तिकार ने जवाब दिया, ‘क्या तुम जानती हो मैं कौन हूं? मैं पाकिस्तानी फौज का कप्तान हूं. बेनजीर बोलीं,

‘क्या तुम जानते हो मैं कौन हूं?. मैं उस शख्स की बेटी हूं जो तुम्हारे शर्मनाक आत्मसमर्पण के बाद तुम्हें ढाका से वापस लाया था.'

इफ्तिकार ने गुस्से में हाथ उठा लिया. बेनजीर उबल कर बोलीं,

“तुम बद्तमीज़ आदमी, तुम्हारी इस घर में हाथ उठाने की हिम्मत कैसे हुई. वो भी उस इंसान की कब्र के पास, जिसने तुम्हारी जान बचाई. तुम और तुम्हारी आर्मी तो भारतीय सेना के पैरों में गिर गई थी. ये मेरे पिता थे जिन्होंने तुम्हारी इज्जत लौटाई.”

इफ्तिकार ने आंखें तरेरते हुए कहा,

“देखना आगे क्या होता है!”.

इसके बाद उसने वहीं पर थूका और जूते पटकते हुए बाहर चला गया.

तारीख: 1987 में भारत ने ऐसा क्या किया कि चीन घबरा उठा!

Comments
thumbnail

Advertisement

Advertisement