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भारत की पहली फांसी किस मामले में हुई थी?

महाराजा नंदकुमार को वारेन हेस्टिंग्स ने एक झूठे मुक़दमे में फांसी पर चढ़ा दिया था.

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Maharaja Nandkumar
महाराजा नंदकुमार दाएं और उन्हें फांसी की सजा सुनाने वाले जज का कार्टून (तस्वीर: ब्रिटिश म्यूजियम)
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कमल
5 अगस्त 2022 (Updated: 5 अगस्त 2022, 10:34 AM IST) कॉमेंट्स
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फरवरी 13, 1788. सेन्ट्रल लन्दन के वेस्टमिनिस्टर हॉल में खड़ा एक शख्स सोच रहा है भारत के बारे में. बंगाल और अवध की शानो-शौकत के बारे में. लेकिन आज ये सब गायब है. सामने सभा लगी है. बायीं तरफ हाउस ऑफ कॉमन्स (भारत के हिसाब से लोकसभा) और दायीं तरफ हाउस ऑफ लॉर्ड्स (राज्यसभा) के सदस्य बैठे हैं. कौतुहल से भरे लोगों की भीड़ लगी है. एक महाभियोग की कार्रवाई शुरू होने वाली है.

एडमंड बर्क खड़े होकर एक तहरीर पढ़ते हैं. पहले दिन शुरू होकर तहरीर चौथे दिन जाकर ख़त्म होती है. क्या था इस तहरीर में? बंगाल प्रेसिडेंसी के पहले गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के काले कारनामों का कच्चा चिट्ठा था. वारेन हेस्टिंग्स के ऊपर मुकदमे की कार्रवाई 7 साल चली. और जब तक ये केस ख़त्म हुआ. हेस्टिंग्स दिवालिया हो चुके थे. आज के हिसाब से उन पर 62 करोड़ रूपये का कर्ज चढ़ चुका था. वारेन हेस्टिंग्स (Warren Hastings) कठघरे तक कैसे पहुंचे? 
किसने खोला उनका कच्चा चिटठा? 
इसका जवाब है एक भारतीय. जिसने पहली बार वारेन हेस्टिंग्स के काले कारनामे का खुलासा किया. लेकिन इसके बदले उसे फांसी दे दी गई. आधुनिक इतिहास में मुकदमा चलाकर दी गई ये पहली फांसी थी. कौन था ये भारतीय? और क्या है पूरी कहानी? चलिए जानते हैं.

अवध की बेगम 

बात बक्सर की लड़ाई से शुरू करते हैं. 1764 में हुई इस लड़ाई में एक तरफ ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी थी तो दूसरी तरफ बंगाल के नवाब, मीर कासिम, अवध के नवाब शुजा उद-दौला और मुग़ल बादशाह शाह आलम की तिकड़ी थी. इस जंग में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी की जीत हुई और बंगाल, बिहार, उड़ीसा के इलाके पर उनका कब्ज़ा हो गया. 1775 में इलाहबाद के समझौते के तहत कंपनी को अवध में भी कारोबार की इजाजत मिल गई. कंपनी अधिकारियों की मौज हो गई थी.

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अवध के नवाब शुजा उद-दौला और बहू बेगम (तस्वीर: Wikimedia Commons)  

जमींदारों से लूट खसूट कर सबने मोटा पैसा बनाया. वारेन हेस्टिंग्स इस वक्त मुर्शिदाबाद में ब्रिटिश अधिकारी के रूप में तैनात थे. वो भी कहां पीछे रहने वाले थे. शुजा उद-दौला   कंपनी के रहमोकरम पर थे. हेस्टिंग ने उनसे पैसे की मांग की.  शुजा उद-दौला नहीं दे पाए तो हेस्टिंग्स की नजर पड़ी अवध की बेगमों पर. शुजा उद-दौला   की मां, नवाब बेगम बड़े रसूख वाली औरत थी. उनके पास जेवरात समेत कुल 9 करोड़ की जायदाद थी. वहीं शुजा उद-दौला   की पत्नी, बहू बेगम के पास 4 करोड़ की मालकिन थी. हेस्टिंग्स ने शुजा उद-दौला   की सलामती के बदले उनसे पैसे ही मांग की. कहते हैं बहू बेगम ने तब शुजा उद-दौला   के लिए पहने हुए जेवर भी उतार कर दे दिए थे.

खूब दौलत कमाकर हेस्टिंग्स ने दिसंबर 1764 में इस्तीफ़ा दिया और वापिस ब्रिटेन लौट गए. ब्रिटेन पहुंचकर हेस्टिंग्स ने कुछ साल खूब ऐश किए. आलीशान घरों में रहे, अपनी पेंटिंग बनवाई. और इसी चक्कर में सारा माल उड़ा दिया. पैसे की कमी हुई तो भारत की याद आई. दुबारा कंपनी में अर्जी दी. और 1769 में भारत लौट आए.

वारेन हेस्टिंग्स की लूट-खसोट 

1769 से 1773 के बीच बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा. बंगाल की एक तिहाई आबादी इसका शिकार हुई. इस अकाल में एक हाथ ब्रिटिश ईस्ट इंडिया के करप्शन का भी था. कंपनी भी कमा रही थी और कंपनी के अधिकारी भी. इसलिए 1771 में मांग उठी कि बंगाल, मद्रास और बॉम्बे प्रेसिडेंसी को एक रूल के अंदर लाया जाए, ताकि करप्शन पर लगाम लगे. 1773 में ब्रिटिश सरकार ने एक नया कानून पास किया, रेगुलेटिंग एक्ट ऑफ 1773. तय हुआ कि बंगाल प्रेसिडेंसी सिरमौर होगी और यहां एक काउंसिल के जरिए कंपनी का कामकाज चलेगा. 1773 में हेस्टिंग्स को बंगाल प्रेसिडेंसी का पहला गवर्नर जनरल बनाया गया.

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बनारस के महाराजा चैत सिंह और वारेन हेस्टिंग्स (तस्वीर: Wikimedia Commons)

हेस्टिंग्स के आने के बाद भी करप्शन ज्यों का त्यों रहा. बंगाल में अकाल पड़ा था. और ऐसे में कंपनी अधिकारी जमींदारों को टैक्स चुकाने को कह रहे थे. राजशाही नाम का एक इलाका था. आज के बांग्लादेश में पड़ता है. रानी भबानी यहां की जमींदार थी. चूंकि सारी फसल बाढ़ में बर्बाद हो गई इसलिए उस साल रानी भबानी कंपनी को टैक्स नहीं दे पाई. हेस्टिंग्स ने रानी भबानी के महल को घेरकर उनसे 22 लाख रूपये उगाहे और जमींदारी भी छीन ली. रानी भबानी ने इसकी शिकायत कलकत्ता काउंसिल में की. पैसा तो उन्हें वापिस नहीं मिल पाया लेकिन उनकी ज़मींदारी बहाल कर दी गई.

इसके बाद साल 1774 में ऐसा ही कुछ बर्धमान रियासत के साथ भी हुआ. यहां महाराजा तिलक चंद्र राय की मौत के बाद जमींदारी का काम महारानी बिष्टु कुमारी के पास आ गया था. उनका एक 6 साल का बेटा था. ये देखकर हेस्टिंग्स ने ब्रजकिशोर नाम के एक आदमी को बेटे का गार्डियन बना दिया. रानी ने इसकी शिकायत काउंसिल में की. तब पता चला कि ब्रजकिशोर हेस्टिंग्स तक सीधा पैसा पहुंचा रहा था. ये पैसा कंपनी का नहीं, बल्कि हेस्टिंग्स के अकाउंट में जा रहा था. एक साल में हेस्टिंग्स ने बर्धमान से 50 हजार की कमाई की. हेस्टिंग्स का काम बेरोकटोक चल रहा था. वो भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के सबसे ऊंचे ओहदे पर थे. पैसा सब तक पहुंच रहा था इसलिए ब्रिटेन में किसी को कोई खबर नहीं थी. हेस्टिंग्स की गाड़ी पर ब्रेक लगा साल 1775 में. कैसे? 

 वारेन हेस्टिंग्स का कच्चा चिट्ठा खोला 

महाराजा नंदकुमार कंपनी के लिए टैक्स कलेक्टर का काम करते थे. उनेक जिम्मे बर्धमान, नदिया और हुगली का इलाका आता था. 1 मार्च, 1775 के रोज़ नंदकुमार ने कलकत्ता काउंसिल को एक खत लिखा. इस खत में नंदकुमार ने बताया कि हेस्टिंग्स ने मीर जाफर की विधवा मुन्नी बेगम से ढाई लाख की उगाही की है. हेस्टिंग्स ने मुन्नी बेगम को उनके बेटे का गार्डियन बनाने के लिए ये रकम घूस के तौर पर ली थी.

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एलिजाह इम्पी और फिलिप फ्रांसिस (तस्वीर: Wikimedia Commons)

कलकत्ता काउंसिल के एक मेंबर हुआ करते थे, फिलिप फ्रांसिस. फ्रांसिस भारतीयों के प्रति हमदर्दी रखते थे. इसलिए उन्होंने नंदकुमार की मदद की. और उनका खत काउंसिल में पेश किया. खत देखते ही हेस्टिंग्स का चेहरा लाल हो गया. उन्होंने मामले को रफा-दफा करने की कोशिश की. लेकिन काउंसिल के बाकी मेंबर ने कहा, नंदकुमार को बुलाकर पूरी बात सुनी जाए. जैसे ही ये बात हुई, हेस्टिंग्स वहां से उठकर चले गए. इसके कुछ रोज़ बाद नंदकुमार काउंसिल के आगे पेश हुए.

नंदकुमार ने काउंसिल के सामने मुन्नी बेगम की चिठ्ठी पेश की. और बताया कि हेस्टिंग्स का मुंशी चार महीने पहले ये खत लेने आया था. इसके बाद हेस्टिंग्स के मुंशी कंटू बाबू को बुलाया गया. कंटू बाबू की गवाही से सारी बात साफ़ हो गई. काउंसिल मेंबर्स ने तय किया कि हेस्टिंग्स को साढ़े तीन लाख रूपये कंपनी के पास जमा कराने होंगे. हेस्टिंग्स के लिए ये बड़ी शर्मिंदगी की बात थी. उन्होंने बदला लेने की ठानी.

महाराजा नंदकुमार की फांसी 

ठीक चार महीने बाद नंदकुमार को एक साजिश के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. इसके बाद उन पर एक और मुक़दमा चलाया गया, जाली दस्तावेज़ का. आरोप लगा कि 10 साल पहले जमा कराई गई एक रसीद जाली थी और इसे नंदकुमार ने बनाया था. ब्रिटेन का क़ानून तब जाली दस्तावेज़ के लिए मौत की सजा देता था. 8 जून 1775 को कलकत्ता सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई शुरू हुई. केस 10 साल पुराना था. जब सुप्रीम कोर्ट बना भी नहीं था.

इसके अलावा ब्रिटिश क़ानून भारतीयों पर लागू भी नहीं होता था. भारतीयों पर मुक़दमा चलाने के लिए तब अलग फौजदारी अलादत होती थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के जज एलिजाह इम्पी ने ये सब किनारे रख दिया. “इत्तेफाक” था कि वो हेस्टिंग्स के पुराने दोस्त थे. मामले में जो गवाह पेश किए गए उनमें से एक हेस्टिंग्स का मुंशी था, जिसे बाद में इसका इनाम भी मिला. नंदकुमार को बचाव के लिए दो वकील दिए गए. लेकिन इन वकीलों को बांग्ला नहीं आती थी, और ना ही नंदकुमार को अंग्रेज़ी. कैसा मुक़दमा चला होगा आप खुद समझ सकते हैं. 

8 दिन तक मुकदमा चलने के बाद महाराजा नंदकुमार को फांसी की सजा सुनाई गयी. कलकत्ता में खबर फ़ैली तो हंगामा हो गया. एक ब्राह्मण को फांसी, ये किसी ने न कभी देखा था, न सुना था. इसके बाद आज यानी 5 अगस्त 1775 की तारीख आती है. सुबह के 8 बजे महाराजा नंदकुमार गेट से बाहर आते हैं. पालकी तैयार थी. कहार पालकी उठाते हैं और नंदकुमार अपनी आख़िरी यात्रा पर निकल जाते हैं. उन्हें कुली बाजार, फोर्ट विलियम तक ले जाया जाता है. नन्द कुमार एक आख़िरी ख्वाहिश बताते हैं. उनका अपना नौकर उनकी आंखो पर पट्टी बांधता है. 70 साल के नंदकुमार के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी. लिवर खींचता है और नंदकुमार फांसी पर झूल जाते हैं. सामने गंगा बह रही थी.

ऐसे भागा वारेन हेस्टिंग

नंदकुमार केस के बाद भी हेस्टिंग्स ने अपने तौर-तरीके जारी रखे. 1775 की संधि के बाद बनारस रियासत भी अंग्रेज़ों के कंट्रोल में आ गए थी. यहां के महाराजा चेत सिंह थे. संधि के तहत चेत सिंह कंपनी को पैसा चुकाते थे. लेकिन वारेन हेस्टिंग्स का लालच दिन पर दिन बढ़ता जा रहा था. उन्होंने चेत सिंह से 5 लाख अतिरिक्त राशि की मांग की. एक लोककथा भी चलती है, जिसके अनुसार हेस्टिंग्स ने सन्देश भेजा था, या तो एक सेर चींटी के सर का तेल दो, या 10 हजार सोने की मुहरें. चेत सिंह ने इंकार कर दिया. तब हेस्टिंग्स अपनी फौज लेकर बनारस पहुंच गए. यहां हुई जंग में हेस्टिंग्स के 200 सिपाही मार डाले गए और उन्हें भी कैद कर लिया गया. लेकिन हेस्टिंग्स किसी तरह औरतों के कपड़े पहनकर भाग निकले. कहावत चली,

'हाथी पर हौदा और घोड़े पर जीन 
ऐसे भागा वारेन हेस्टिंग'

आगे चलकर हेस्टिंग ने बनारस के विद्रोह को दबा दिया. लेकिन इस घटना से उनके तौर तरीकों पर सवाल भी उठे. 

वारेन हेस्टिंग्स के खिलाफ महाभियोग 

इसके बाद कहानी पहुंचती है सीधे लन्दन. भारत से हेस्टिंग्स की रुखसती के बाद. 1788 में ब्रिटिश संसद में हेस्टिंग्स के ऊपर महाभियोग की कार्रवाई शुरू होती है.

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वारेन हेस्टिंग्स के महाभियोग की कार्रवाई (तस्वीर: Wikimedia Commons)

इतिहासकार मीठी मुखर्जी के अनुसार ये मुकदमा ब्रिटिश कोलोनियल साम्राज्य के दो धड़ों के बीच की लड़ाई थी. फिलिप फ्रांसिस और एडमंड कर्क जैसे लोग मानते थे कि ब्रिटिश कॉलोनियों के मूल निवासियों के पास भी मानवाधिकार हैं. वहीं दूसरा धड़ा था जो मानता था कि ब्रिटिश राष्ट्र का भला उनकी पहली प्राथमिकता है. 7 साल तक चले इस महाभियोग में हेस्टिंग्स के खिलाफ तमाम आरोप लगे. इस दौरान रानी भबानी वाले केस से लेकर चेत सिंह केस को हेस्टिंग्स के खिलाफ सबूत के तौर पर पेश किया गया. नंदकुमार की फांसी का मुद्दा भी उठा. फ्रांसेस फिलिप ने तब उनके खिलाफ गवाही देते हुए कहा कि नंदकुमार को सजा नहीं मिली बल्कि अदालत का इस्तेमाल कर उनका खून किया गया.

हेस्टिंग्स के मुकदमे के बीच ही फ़्रांस की क्रांति हो गई. इसलिए ब्रिटिश संसद का ध्यान उस तरफ मुड़ गया. हेस्टिंग्स के खिलाफ महाभियोग फेल रहा. लेकिन तब तक उन पर इतना क़र्ज़ चढ़ चुका था कि मुकदमे के बाद उन्होंने कहा, “ज्यादा बेहतर होता अगर मैं अपने अपराध पहले ही स्वीकार कर लेता”. हेस्टिंग्स को अपने आगे के दिन मुफलिसी में गुजारने पड़े. सरकार ही तरफ से उन्हें हर्जाना भी दिया गया लेकिन जिंदगी के आख़िरी वक्त तक वो अपना कर्ज़ा नहीं चुका पाए.

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