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भारत में राज्यों का विभाजन भाषा के आधार पर क्यों हुआ?

जवाहर लाल नेहरु और वल्लभ भाई पटेल जैसे बड़े नेता भाषा के आधार पर विभाजन के ख़िलाफ़ थे.

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आजादी के बाद जब राज्यों के विभाजन का मुद्दा उठा तो नेहरु और पटेल दोनों भाषा को आधार बनाने के ख़िलाफ़ थे (तस्वीर: wikimedia commons)
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कमल
1 नवंबर 2021 (Updated: 1 नवंबर 2021, 08:58 AM IST) कॉमेंट्स
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तारीख़ के 14 सितंबर के एपिसोड में हमने भाषा के बारे में बात की थी. और समझा था कि कैसे एक ही शब्द और वाक्य के अलग-अलग मतलब हो सकते हैं. ऐसा ही एक शब्द है डिविज़न. हिंदी में कहें तो ‘विभाजन’. यूं तो गणित का कॉन्सेप्ट है जिसका उपयोग चीजों को बांटने में किया जाता है. लेकिन जब यही कॉन्सेप्ट बेजान चीजों से हटकर इंसानों पर उतरता है तो गणित बहुत पीछे छूट जाती है.
यहां देखें- हिंदी को भारत में राष्ट्रभाषा का दर्जा क्यों नहीं मिला?

1947 में भारत आज़ाद हुआ तो इस एक शब्द के व्यापक मायने ज़ाहिर हुए. इतने व्यापक कि आज भी इस एक शब्द से लाखों दर्दनाक यादें ताज़ा हो जाती हैं. हालांकि शब्दों के सिर्फ़ अर्थ ही अलग नहीं होते. अलग-अलग कॉन्टेक्स्ट में एक ही अर्थ अलग-अलग फ़ीलिंग भी पैदा कर सकता है. जैसे 1971 में पाकिस्तान और बांग्लादेश का विभाजन जिसे एक सुखद घटना की तरह देखा जाता है.
भारत में विभाजन सिर्फ़ इन दो घटनाओं तक सीमित नहीं है. आजादी के बाद भारतीय राज्यों का भी 'विभाजन’ ही हुआ था. हालांकि कॉन्टेक्स्ट अलग होने के चलते इसे विभाजन न कहकर पुनर्गठन कहा जाता है. और इस पुनर्गठन का कारण भी भाषा ही थी. इससे पहले कि आपको इन्सेप्शन सरीखा कंफ़्यूजन हो. चलिए, बात सरल करते हैं. सवाल सिर्फ़ इतना है कि भारत में राज्यों का पुनर्गठन हुआ तो उसका आधार ‘भाषा’ क्यों बनी?
आप अगर इसे ग़लत मानते हैं तो आप अकेले नहीं है. नेहरू और पटेल सरीखे नेता भी भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के ख़िलाफ़ थे. और नेहरू के धुर विरोधी, जनसंघ के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी भाषा को आधार बनाने के ख़िलाफ़ थे. फिर ऐसा क्यों हुआ? इसके क्या कारण रहे? चलिए जानते हैं. मोनू! इतना तो हम जानते ही हैं कि राज्यों का पुनर्गठन भाषा के आधार पर हुआ था. लोगों के इस पर अलग-अलग मत हैं. और धर्म की ही तरह भाषा भी एक ऐसा सब्जेक्ट है, जो लोगों की भावना के साथ जुड़ा है. इसलिए सही ग़लत का निर्धारण करना पब्लिक का हक़ है. अपनी कोशिश सिर्फ़ इतनी रहेगी कि इस पूरे मुद्दे को गहराई से समझा जाए.
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धर्म के आधार पर भारत का विभाजन हुआ था इसलिए राज्यों का पुनर्गठन धर्म के आधार पर किसी हालत में नहीं हो सकता था (तस्वीर: Getty)


शुरुआत एक किस्से से करते हैं.
दशहरे की छुट्टी के बाद स्कूल खुला है. असेंबली ख़त्म हो चुकी है और स्टूडेंट क्लास में टीचर के आने का इंतज़ार कर रहे हैं. दोस्त आपस में गप मार रहे हैं और इनमें दो जिगरी यार सोनू और मोनू भी शामिल हैं. शोर के बीच सोनू कुछ कहने के इरादे से चिल्लाता है, मोनू!
और मोनू अपना नाम सुनकर कहता है, क्या?
इससे पहले कि मोनू जवाब दे पाता, टीचर एंटर होती है. अटेंडेंस का रजिस्टर खोला जाता है, शुरुआती कुछ नामों के बाद टीचर पुकारती है, मोनू!
अबकी मोनू, ‘क्या' नहीं पूछता. हाथ उठाकर कहता है, ‘प्रेज़ेंट टीचर’.
क्लास ख़त्म होती है और सोनू को किसी कारण प्रिन्सिपल ऑफ़िस बुलाया जाता है. वहां सोनू बाकी बच्चों के पीछे अपनी बारी के इंतज़ार में खड़ा हो जाता है. कुछ देर बार प्रिन्सिपल पुकारती है, मोनू!
अबकी ना ही मोनू 'क्या’ पूछता है. और ना ही ‘प्रेज़ेंट टीचर’ कहता है. इन फ़ैक्ट वो कुछ भी नहीं कहता. चुपचाप प्रिन्सिपल के सामने जाकर खड़ा हो जाता है. आपने ध्यान दिया होगा कि तीनों बार एक ही शब्द के रिएक्शन में मोनू ने अलग अलग प्रतिक्रिया दी. आप कहेंगे, भाई इसमें ऐसा क्या ख़ास है. ये तो आम बात है. मैं नहीं ‘नहीं जानता’ आम बात इसलिए नहीं है क्योंकि भाषा को सिखाने के लिए ग्रामर का उपयोग किया जाता है जिसमें उस भाषा के नियम सिखाए जाते हैं. और उन रूल्स में ये कहीं नहीं लिखा होता कि अलग-अलग कॉन्टेक्स्ट में किसी शब्द का अर्थ क्या होगा.
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लुडविग विट्गेंस्टाइन (तस्वीर: wikimedia commons)


कॉन्टेक्स्ट हम सीखते हैं पैदा होने के बाद से ही. समाज और अपने परिवार को देखकर. जर्मन दार्शनिक लुडविग विट्गेंस्टाइन ने इन्हें 'लैंग्वेज गेम्स' का नाम दिया था. भाषा के खेल जिनके नियम हम रोज़मर्रा के जीवन में सीखते हैं. और इसीलिए ‘मूल भाषा’ के कॉन्टेक्स्ट को तो हम इंट्यूटिवली समझ लेते हैं. लेकिन किसी दूसरी भाषा का ग्रामर रट लेने के बावजूद उसमें वो सहजता महसूस नहीं हो सकती जो मूल भाषा में होती है.
हम सब हिंदुस्तानी भाषा के इस लैंग्वेज गेम को समझते हैं. इसलिए मोनू के उदाहरण में हमें कुछ विशेष नहीं लगा. अब मान लीजिए मोनू की क्लास में एक पेन चोरी हो जाता है. इस बारे में पूछे जाने पर मोनू जवाब देता है, मैं नहीं ‘नहीं जानता’. अटपटा सा जवाब है, जिसका कोई अर्थ नहीं निकल रहा, ना समझ में आता है. लेकिन अमेरिका में अगर कोई बच्चा इसी सवाल के जवाब में कहे,
'I don't know nothing'
तो ग्रामर ग़लत होने के बावजूद इसका मतलब आसानी से समझ आ जाता है. अब देखते हैं क्या होगा अगर यही अमेरिकन स्टूडेंट सोनू की क्लास में फ़ॉरेन कॉरेस्पोंडेंस के तहत पहुंच जाए. एक दिन टीचर मोनू से कहती है, 'अपनी कॉपी लाओ'. बहुत सम्भव है कि सेंटेंस ना समझ आने के बावजूद अमेरिकन स्टूडेंट कॉपी शब्द को पहचान जाए. क्योंकि ये उसकी अपनी भाषा का शब्द है. लेकिन अगर टीचर पूरी क्लास से कहे कि अपनी कॉपियां लाओ. तो अमेरिकन स्टूडेंट कुछ भी समझ नहीं पाएगा. क्योंकि उसके लिए कॉपियां जैसे कोई शब्द होता ही नहीं जबकि हमारे लिए कॉपियां सिर्फ़ कॉपी शब्द का बहुवचन है.
जो लैंग्वेज गेम हम खेल रहे हैं. उसके नियम अमेरिकन बच्चे को नहीं समझ आ सकते क्योंकि हिंदुस्तानी उसकी मूल भाषा नहीं है. और शब्द अंग्रेज़ी का होने के बावजूद हमने ‘कॉपी’ पर अपनी भाषा का नियम लगा दिया है. मूल भाषा के महत्व को अगर हम समझ जाएं तो हमें भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की मांग़ का कारण शायद कुछ समझ आएगा. पट्टाभि सीतारमैया भाषा के आधार पर राज्यों की गठन की बात सबसे पहले 1936 में उठी. जब 1936 में अंग्रेजों ने बंगाल और बिहार के कुछ हिस्से को मिलाकर उड़ीसा राज्य बना दिया. आजादी के बाद 571 रियासतें भारत में शामिल हुई जिन्हें राज्यों के रूप में बांटा जाना ज़रूरी था.
Potti Sreeramulu

सवाल था कि इसका आधार क्या हो. धर्म तो क़तई नहीं हो सकता था. उसका ख़ामियाज़ा भारत पहले ही भुगत रहा था. इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए 1948 में केंद्र सरकार ने जस्टिस SK धर की अध्यक्षता में एक कमीशन का गठन किया. कमीशन ने भी भाषा की बजाय प्रशासनिक सुविधा को आधार बनाने की बात की. इसके बाद दिसम्बर 1948 में JVP कमेटी बनी. इसमें शामिल थे जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और पट्टाभि सीतारमैया. इस कमेटी ने अपनी सिफारिश में साफ़-साफ़ कहा,
‘भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की मांग अनुचित है और इसे स्वीकार नही किया जाएगा. राज्यों का गठन प्रशासनिक सुविधा को ध्यान में रखकर ही किया जाएगा.’
आम्बेडकर भाषा के आधार पर विभाजन के समर्थक थे. लेकिन कुछ शर्तों के साथ. उनका कहना था कि राज्य में सरकारी कामकाज की भाषा वही होनी चाहिए, जो केंद्र की हो. 1951 तक दक्षिण भारत में भाषा के आधार पर अलग राज्यों की मांग ज़ोर पकड़ने लगी थी. मद्रास में तेलगु-भाषियों का आंदोलन इनमें प्रमुख था. शुरुआत में केंद्र सरकार इसे इग्नोर करती रही. लेकिन1952 में आंदोलन के नेता, पोट्टू श्रीरामुलू ने आमरण अनशन की शुरुआत कर दी.
56 दिन के आमरण अनशन के बाद 15 दिसंबर, 1952 को रामुलू की मृत्यु हो गई और पूरे मद्रास में हिंसक प्रदर्शन शुरू हो गए. तब प्रधानमंत्री नेहरू को अपने पर्सनल मत के विपरीत जाकर अलग राज्य की मांग स्वीकार करनी पड़ी. इसके बाद 1 अक्टूबर, 1953 को आंध्र प्रदेश, भाषा के आधार पर गठित होने वाला पहला राज्य बना.
आंध्र प्रदेश बनते ही भारत के बाकी हिस्सों में भी भाषा के आधार पर अलग राज्य की मांग ज़ोर पकड़ने लगी. मसले के हल के लिए 22 दिसम्बर 1953 को एक नए आयोग का गठन किया गया जिसकी अध्यक्षता जस्टिस फ़ज़ल अली कर रहे थे. 2 साल बाद इस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट पेश की. रिपोर्ट में प्रस्ताव दिया गया कि भाषा के आधार पर भारत में 16 राज्यों का पुनर्गठन किया जाए. स्टेट रिऑर्गनाइजेशन एक्ट इसके बाद अगस्त 1956 में स्टेट रिऑर्गनाइजेशन एक्ट (SRA) पास हुआ. और आज ही दिन दिन यानी 1 नवंबर 1956 को SRA लागू किया गया. भारत को 14 राज्यों और 6 केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया गया. दक्षिण में चार नए राज्यों का गठन किया गया. आंध्र प्रदेश, केरल, मद्रास और मैसूर. बाद में, 1969 में मद्रास का नाम बदलकर तमिलनाडु और 1973 में मैसूर का नाम बदलकर कर्नाटक कर दिया गया.
दक्षिण का मसला सुलझा तो बॉम्बे, पंजाब और उत्तर पूर्वी राज्यों में बखेड़ा शुरू हो गया. तब गुजरात अलग राज्य नहीं हुआ करता था. मराठी और गुजराती भाषियों की डिमांड थी कि उनके लिए अलग राज्य बने. पंजाब में भी सिख अपने लिए अलग राज्य चाहते थे.
महाराष्ट्र का मुद्दा कॉम्प्लिकेटेड था. और इसका कारण था बॉम्बे. तीन तरह की मांगें सामने आ रही थीं. एक धड़ा मांग कर रहा था कि बॉम्बे गुजरात में शामिल किया जाए. संयुक्त महाराष्ट्र परिषद का कहना था कि बॉम्बे शहर, बाकी राज्य से अलग नहीं हो सकता. एक तीसरा धड़ा भी था, बॉम्बे सिटिज़न्स कमेटी. जिसमें जेआरडी टाटा जैसे दिग्गज शामिल थे. इनकी मांग थी कि बॉम्बे शहर को अलग राज्य बनाया जाए. उनकी दलील थी कि बॉम्बे में पूरे भारत के लोग रहते हैं और सिर्फ़ 43 फ़ीसदी ही मराठी भाषी है.
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1 मई, 1960: पंडित नेहरू, वाईबी चव्हाण और श्री प्रकाश ने राजभवन, मुंबई में महाराष्ट्र के नए राज्य के मानचित्र का अनावरण किया (तस्वीर : wikimedia commons)


जनवरी 1956 में इस मसले पर संयुक्त महाराष्ट्र परिषद ने एक बड़ा आंदोलन शुरू किया. बड़े पैमाने पर गिरफ़्तारियां हुईं. नेहरू और तत्कालीन मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई के पुतले फूंके गए. हालात बिगड़ते देख केंद्र ने निर्णय लिया कि विदर्भ और बॉम्बे को एक कर दिया जाए. इस तरह बॉम्बे शहर बॉम्बे राज्य का हिस्सा बन गया. आगे चलकर 1960 में गुजरात को भी अलग राज्य बना दिया गया. पंजाब में तब तक अकाली दल सिखों के लिए अलग राज्य की मांग कर रहा था.
भाषा के आधार पर राज्यों का गठन हुआ तो अकाली दल ने ‘सिखों’ के बदले ‘पंजाबी भाषा’ बोलने वालों के लिए अलग राज्य की मांग करना शुरू कर दी. इस स्ट्रेटेजी को बड़ी सफलता मिली जब 1 नवंबर, 1966 में उस वक्त के पंजाब को भाषा के आधार पर विभाजित करके पंजाब (पंजाबी भाषा) एवं हरियाणा (हिंदी भाषी) बना दिया गया. आगे चलकर अलग राज्यों की मांग समय-समय पर उठी. जिसका हालिया उदाहरण 2014 में आंध्र से अलग हुआ तेलंगाना राज्य है. भाषा के आधार पर राज्यों का बंटवारा सही था या ग़लत? इसका कोई आसान जवाब तो नहीं है लेकिन कुछ उदाहरणों से इसे समझा जा सकता है. 1971 में बांग्लादेश अलग होने में भाषा एक बड़ा कारण रही. पूर्व पाकिस्तान के निवासी मानते थे कि उन पर उर्दू थोपी जा रही है जबकि उनकी मूल भाषा बंगाली थी. श्रीलंका में तमिल-सिंहल संघर्ष आज भी क़ायम है. जिसकी जड़ में भी मेन मुद्दा भाषा ही है. इसके लिए 29 जुलाई के एपिसोड में हमने बात की थी.
यहां पढ़ें- फैमली मैन में तमिल संघर्ष देखा, पर वो पूरा सच नहीं है

भारत में भाषा के आधार पर राज्यों के गठन के फ़ायदे नुक़सान हो सकते हैं. लेकिन एक आशंका बिल्कुल ग़लत साबित हुई है. वो ये कि इससे राज्यों की राष्ट्रीय पहचान में कोई कमी आई हो. एक बंगाली भी उतना ही भारतीय महसूस करता है जितना कि एक मराठी या गुजराती. बाकी भाषा चूंकि व्यक्तिगत पहचान से जुड़ा है इसलिए इसे लेकर लोगों का पैशनेट होना तो लाज़मी है ही.

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