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भगत सिंह के पंडित नेहरू और नेताजी सुभाष के बारे में क्या विचार थे?

लाला लाजपत राय की हत्या के बाद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की दिशा बदल गई थी

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जुलाई 1928 में लिखे एक लेख में भगत सिंह ने पंडित नेहरू और नेताजी बोस को लेकर अपने विचार रखे (तस्वीर: wikimedia commons)
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कमल
17 नवंबर 2021 (Updated: 17 नवंबर 2021, 11:58 AM IST)
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मार्वल के किसी पैरलल यूनिवर्स सरीखी बात करें तो एक सवाल से शुरुआत करते हैं. भगत सिंह अगर न होते तो क्या होता? 1920 तक कांग्रेस में जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस का उदय नहीं हुआ था. बागडोर महात्मा गांधी और मोतीलाल नेहरू जैसे नेताओं के हाथ में थी. कांग्रेस पार्टी में मॉडरेट धड़े का प्रभुत्व हुआ करता था, जो डोमिनीयन रूल की बात करता था, वैसे ही जैसे कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में था. ऑल इंडिया होम रूल लीग और मुस्लिम लीग भी डोमिनीयन स्टेटस की बात कर रही थीं. तो फिर वो चेन ऑफ इवेंट्स क्या थे, जिनसे डोमिनीयन रूल की मांग पूर्ण स्वराज की मांग में तब्दील हो गई. और भगत सिंह कैसे इस मांग के पुरोधा साबित हुए? साइमन कमीशन अधिकतर क्रांतिकारियों को जेल या फांसी दे दी गई थी. पूर्ण स्वराज की मांग तब मुख्यधारा में नहीं आई थी. तब भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद नए सिरे से क्रांतिकारियों को संगठित करने में जुटे हुए थे.
1928 में भारत में स्वायत्ता की मांग पर ब्रिटिश सरकार ने साइमन कमीशन का गठन किया. साइमन कमीशन का काम था भारत के राजनैतिक हालात का जायजा लेना. और उसकी रिपोर्ट को ब्रिटिश संसद में पेश करना. कांग्रेस और बाकी भारतीय राजनैतिक पार्टियों ने इसका विरोध किया. कारण ये कि साइमन कमीशन के सात सदस्यों में से एक भी भारतीय नहीं था. 30 अक्टूबर 1928 के दिन साइमन कमीशन के सदस्य लाहौर पहुंचे. रेलवे स्टेशन में लोगों की भीड़ उमड़ी, विरोध प्रदर्शन के लिए. ये लोग शांतिपूर्ण प्रदर्शन करते हुए, ‘साइमन गो बैक’ का नारा लगा रहे थे. प्रदर्शन को लीड कर रहे थे, लाला लाजपत राय.
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साइमन कमीशन का देशभर में विरोध हुआ (तस्वीर: Getty)


जेम्स स्कॉट उस समय लाहौर पुलिस अधीक्षक हुआ करता था. उसने प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज का ऑर्डर दिया. स्कॉट ने खुद लाला लाजपत राय के सिर पर डंडे बरसाए. लाला लाजपत राय गंभीर रूप से घायल हुए. इसके बावजूद उन्होंने वहां मौजूद सभा को संबोधित करते हुए कहा,
‘मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी अंग्रेजी साम्राज्य के ताबूत में आखिरी कील साबित होगी’
ठीक 17 दिन बाद, आज ही के दिन यानी 17 नवंबर 1928 को लाहौर में लाला लाजपत राय का निधन हो गया. उसी शहर में , जो 1880 से उनका घर था. और जहां के गवर्नमेंट कॉलेज में लॉ की पढ़ाई करने के लिए उन्होंने कभी दाखिला लिया था. लाला लाजपत राय की मौत का बदला डॉक्टर ने उनकी मृत्यु की वजह हार्ट अटैक बताई. लेकिन असली वजह कुछ और थी. लाहौर रेलवे स्टेशन पर स्कॉट के बरसाए डंडों ने उन्हे गंभीर रूप से घायल किया था. और यही उनकी मौत की बड़ी वजह बनी. ब्रिटिश पार्लियामेंट में जब ये मुद्दा उठा तो ब्रिटिश सरकार ने पुलिस के रोल की बात को खारिज कर दिया. जब लाला जी पर हमला हुआ, भगत सिंह भी वहीं मौजूद थे.
लाला लाजपय राय की मौत से क्रांतिकारियों में गुस्सा भर गया. यूं तो भगत सिंह और लाला लाजपत राय के विचारों में जमीन-आसमान का अंतर था. लालाजी आर्य समाज के सदस्य थे. जबकि भगत खुद को नास्तिक बताते थे. मतभेदों के बावजूद भगत सिंह और उनके साथियों को लगा कि देश के इतने बड़े नेता की हत्या का बदला जरूर लिया जाना चाहिए.
भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और चंद्रशेखर आजाद समेत कई क्रांतिकारियों ने मिलकर जेम्स स्कॉट को मारकर लालाजी की मौत का बदला लेने का फैसला किया. इसके लिए 17 दिसंबर 1928 का दिन तय किया गया. लेकिन ऐन मौके पर निशानदेही में थोड़ी सी चूक हो गई. स्कॉट की जगह असिस्टेंट सुप्रीटेंडेंट ऑफ पुलिस जॉन पी सांडर्स क्रांतिकारियों का निशाना बन गए. सांडर्स जब लाहौर के पुलिस हेडक्वार्टर से निकल रहे थे, तभी भगत सिंह और राजगुरु ने उन पर गोली चला दी.
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लाला लाजपत राय (तस्वीर: Wikimedia Commons)


ये घटना सिर्फ बदला लेने के लिए अंजाम नहीं दी गई थी. क्रांतिकारियों की मंशा थी कि उनका संदेश लोगों तक पहुंचे ताकि क्रांति की अलख जगाई जा सके. लेकिन इस घटना का वैसा असर नहीं हुआ जैसी क्रांतिकारियों को उम्मीद थी. सभी बड़े नेताओं और लीडर्स ने इस घटना की निंदा की. जनता में भी इस घटना को लेकर ज्यादा हमदर्दी नहीं थी.
क्रांतिकारियों ने एक संगठन बनाया हुआ था, नौजवान भारत सभा. उसकी मीटिंग में आने वाले लोगों की संख्या भी घट चुकी थी. यहाँ तक कि लाला लाजपत राय द्वारा शुरू किए गए अखबार, द पीपल ने भी इस घटना को 'डेसपेरेट एक्शन' का नाम दिया. भगत सिंह और उनके साथियों ने तब सोचा कि लोगों में क्रांति की चेतना जगाने के लिए इससे कहीं साहसी कदम उठाना होगा. एक ऐसा कदम जो बहरी अंग्रेज सरकार को सुनने पर मजबूर कर देगा. असेंबली पर बम फेंकना अंग्रेज सरकार दो नए बिल ला रही थी. पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल. बिल के आने से क्रांतिकारियों के दमन की तैयारी थी. ये अप्रैल 1929 का वक्त था. तय हुआ कि असेंबली में बम फेंका जाएगा. किसी की जान लेने के लिए नहीं, बस सरकार और लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए. प्लानिंग के दौरान भगत सिंह ने कहा कि सिर्फ बम फेंकने से काम नहीं चलेगा. गिरफ़्तारी देनी भी जरूरी है. उनका तर्क था कि सरकार इसे एक और आतंकी घटना का रूप देगी. इसलिए जरूरी है कि वो अपनी गिरफ़्तारी दें और कोर्ट के जरिए अपनी बात सभी लोगों तक पहुंचाए.
बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह ने इस काम के लिए अपना नाम आगे किया. 8 अप्रैल 1929 को जब दिल्ली की असेंबली में बिल पर बहस चल रही थी, तभी असेंबली के उस हिस्से में, जहां कोई नहीं बैठा हुआ था, वहां दोनों ने बम फेंककर इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाने शुरू कर दिए. पुलिस ने दोनों को गिरफ्तार कर लिया. ये घटना भी राजनेताओं के निशाने पर आई. मोतीलाल नेहरू ने कहा कि अब ये देश को चुनना है कि वो गांधी के दिखाए रास्ते पर चलते हैं या क्रांतिकारियों के. जेल में भूख हड़ताल 12 जून 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को इस मामले में सजा सुनाई गई. फैसले के बाद दोनों को लाहौर ले जाया गया. ट्रेन के लाहौर पहुंचने से कुछ स्टेशन पहले भगत को बटुकेश्वर से मिलने दिया गया. वहां भगत और बटुकेश्वर के बीच आगे की प्लानिंग हुई. भगत सिंह ने बटुकेश्वर से कहा कि जेल पहुंचते ही भूख हड़ताल शुरू कर दें.
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भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव (फाइल फोटो)


असल में वो चाहते थे कि सरकार उनके साथ राजनैतिक बंदियों की तरह बर्ताव करे. जेल की स्थितियां बेहतर करे. कैदियों को अच्छा खाना मुहैया कराए. कैदियों की सेहत का भी ख्याल रखा जाए. जिसको जो किताब चाहिए हो, उसे वो किताब उपलब्ध कराई जाए. मगर सरकार ने इनमें से किसी भी मांग को मानने से इनकार कर दिया था. उसी के विरोध में भूख हड़ताल की प्लानिंग की गई थी. दोनों ने 14 जून, 1929 को ये अनशन शुरू किया था.
जेल में हुई अनशन का नतीजा था कि भगत सिंह और बाकी साथियों के साथ जनता की हमदर्दी जुड़ी. रातोंरात भगत सिंह पब्लिक में हीरो बन गए. 63 दिन की भूख हड़ताल के बाद जतिन दा की मृत्यु हुई तो क्रांतिकारियों का नाम घर-घर पहुंच गया. भगत सिंह तब महात्मा गांधी के बराबर पॉपुलर हो चुके थे. कांग्रेस में बदलाव इसी दौरान इंडियन नेशनल कांग्रेस भी परिवर्तन से गुजर रही थी. संगठन में नेताजी सुभाष चंद्र बोस और जवाहर लाल नेहरू जैसे लीडर उभरे. दोनों पक्के राष्ट्रवादी थे और पुराने कांग्रेस के नेताओं की मुखालफत किया करते थे. डोमिनीयन रूल की मांग को लेकर नेहरू गांधी के कहने पर समर्थन कर रहे थे. लेकिन जब लाहौर जेल में क्रांतिकारियों ने भूख हड़ताल शुरू की तो युवा लोगों में कॉंग्रेस का प्रभाव घटने लगा.
जवाहर लाल नेहरू भी भगत सिंह से मिलने गए. कांग्रेस के बुलेटिन में भगत सिंह और उनके साथियों का डिफेंस स्टेटमेंट छापा गया. वो भी तब जब गांधी ने इसकी निंदा की थी.
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1929 में नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए और पूर्ण स्वराज का आह्वान किया (तस्वीर: Wikimedia Commons)


भगत सिंह और क्रांतिकारियों के बढ़ते रुतबे को देखते हुए कांग्रेस को अपनी कार्यशैली में बदलाव लाना पड़ा. नेहरू डोमिनीयन रूल के खिलाफ खुलकर बोलने लगे. मद्रास और अमृतसर में दिए भाषणों में उन्होंने पूर्ण स्वराज की बात की. नेताजी बोस भी पूर्ण स्वराज की मांग कर रहे थे. दोनों तब कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे. लेकिन दोनों का तरीका और विचार अलग-अलग था. भगत सिंह के विचार में नेहरू और बोस जुलाई 1928 को भगत सिंह का एक लेख 'कीरती' नामक अखबार में छपा, जिसमें वो पंजाब के नौजवानों को नेहरू को फॉलो करने की बात करते हैं. राहुल फाउंडेशन की किताब 'भगत सिंह और उनके साथियों के संपूर्ण उपलब्ध दस्तावेज' में इस लेख को छापा गया है. जिसके अनुवाद का एक हिस्सा ‘आज तक’ की वेबसाइट पर उपलब्ध है. इस लेख में सुभाष चंद्र बोस के लिए भगत सिंह लिखते हैं,
‘वह बहुत भावुक बंगाली हैं. उन्होंने अपने भाषण में एक बार फिर वेदों की ओर लौट चलने की बात की. यह एक छायावाद है और कोरी भावुकता है. साथ ही उन्हें पुरातन युग पर बहुत विश्वास है, वह प्रत्येक बात में अपने पुरातन युग की महानता देखते हैं'
इसी लेख में भगत सिंह जवाहर लाल नेहरू के लिए लिखते हैं,
'लेकिन जवाहरलाल नेहरू के विचार इससे बिल्कुल अलग हैं. उन्होंने अपने एक संबोधन में कहा कि प्रत्येक नौजवान को विद्रोह करना चाहिए, राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक क्षेत्र में भी. मुझे ऐसे व्यक्ति की कोई आवश्यकता नहीं है, जो आकर कहे कि फलां बात कुरान में लिखी हुई है, कोई बात जो अपनी समझदारी की परख में सही साबित ना हो उसे चाहे वेद कहें या फिर पुराण नहीं माननी चाहिए. यह एक युगांतकारी के विचार हैं और सुभाष के विचार एक राज परिवर्तनकारी के हैं. एक के विचार में पुरानी चीजें बहुत अच्छी हैं और दूसरे के विचार में उनके विरुद्ध विद्रोह कर देना सही है. एक को भावुक कहा जाता है और एक को युगांतकारी और विद्रोही'
लेख में आगे भगत सिंह पंजाब के नौजवानों से कहते हैं,
'इस समय पंजाब को मानसिक भोजन की सख्त जरूरत है. और यह पंडित जवाहरलाल नेहरू से ही मिल सकता है. इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके अंधे पैरोकार बन जाएं. लेकिन जहां तक विचारों का संबंध है वहां इस समय पंजाबी नौजवानों को उनके साथ लगना चाहिए ताकि वे इंकलाब के वास्तविक अर्थ, हिंदुस्तान में इंकलाब की आवश्यकता और दुनिया में इंकलाब का स्थान क्या है आदि के बारे में जान सकें.'
भगत सिंह के कहने पर नौजवान जनता में नेहरू का कद ऊंचा हुआ. कांग्रेस  की धारा में भी परिवर्तन हुआ. 28 सितंबर 1929 को जवाहर लाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए. इसके सिर्फ दो महीने बाद नए साल की संध्या में रावी के किनारे तिरंगा लहराया गया.  कांग्रेस अब पूर्ण स्वराज के नारे के साथ आगे बढ़ रही थी. भगत सिंह का ही प्रभाव था कि देश का राजनैतिक परिदृश्य बदला. जिसे देखते हुए कांग्रेस में भी बदलाव हुआ और पूर्ण स्वराज की मांग मुख्यधारा से जुड़ पाई.

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