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क्या अब कसाब जैसे आतंकियों को भी फांसी नहीं दी जाएगी? सुप्रीम कोर्ट में नया केस आ गया है!

फांसी की सज़ा ख़त्म होने वाली है?

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सांकेतिक तस्वीर - न्यूज़मिनट
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24 मार्च 2023 (Updated: 24 मार्च 2023, 08:30 IST)
Updated: 24 मार्च 2023 08:30 IST
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फांसी. कैपिटल पनिशमेंट. लंबी बहसें हैं कि ये कितना सही है, कितना ग़लत. एक पक्ष ये है कि किसी ने दरिंदगी के स्तर का अपराध किया, तो उसे सूली पर चढ़ा दो. न्याय के लिए उसका गला घोट दो. दूसरा तर्क ये है कि अगर कोई अदालत जान दे नहीं सकती, तो जान ले भी नहीं सकती.

कीवर्ड यही है: सज़ा-ए-मौत. कई लोगों का मानना है कि अपराधी को सज़ा तो मिलनी चाहिए, लेकिन फांसी नहीं. इन तमाम दलीलों के बीच एक अपडेट है. ये अपडेट सुप्रीम कोर्ट से आई है. सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट ऋषि मल्होत्रा ने एक जनहित याचिका दायर की. गुहार लगाई कि मौत की सज़ा पाए दोषियों को फांसी की जगह दर्द रहित मौत दी जानी चाहिए.

दलील ये दी गई कि गरिमापूर्ण तरीक़े से मृत्यु मिलना भी मौलिक अधिकार है. हमने ऋषि मल्होत्रा से बात की. उन्होंने अपनी दलील की बुनियाद हमें बताई. कहा,

"जब से हमारा संविधान बना है, तब से एक ही चीज़ चली आ रही है कि सज़ा-ए-मौत का मतलब फांसी. और फांसी देने की जो पूरी प्रक्रिया है, वो अपने आप में बहुत दर्दनाक है. मिसाल के तौर पर जिसको फांसी की सज़ा सुनाई गई होती है, उससे पहले कुछ दस्तख़त करवाए जाते हैं. फिर जेल के छह वार्डन उसे फांसी की जगह पर ले जाते हैं. दोनों हाथ बंधे होते हैं, टांगें बंधी होती हैं. फिर उसे पोडियम पर खड़ा किया जाता है. मुंह ढका जाता है. इशारा होता है और जल्लाद लीवर खींच देता है.

यहां तक भी बात समझ में आती है कि एक प्रक्रिया है. इसमें कुछ बहुत क्रूर नहीं है. लेकिन इसके बाद जो होता है, वो अमानवीय है. फांसी आधे घंटे से 45 मिनट की होती है. आधे घंटे बाद डॉक्टर आता है. लटके हुए शरीर को चेक करता है. जब तक डॉक्टर ये पुष्ट न कर दे, तब तक वो शरीर को नीचे नहीं उतारते."

ऋषि ने हमें ये भी बताया कि उन्हें इस पिटिशन पर अलग-अलग तरीक़ों की प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं. अपने सहकर्मियों से, जान-पहचान वालों से. लोग उनसे पूछ रहे हैं कि वो जघन्य अपराधियों के लिए रहम क्यों मांग रहे हैं? इसपर उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि एक अपराधी को भी गरिमापूर्ण मौत का अधिकार है. जीवन का हक़ और बाइज़्ज़त मौत का हक़.

इस याचिका के बाद सुप्रीम कोर्ट अब फांसी के विकल्प पर विचार करने वाला है. ये पता लगाने की कोशिश की जानी है कि क्या फांसी की सज़ा की जगह मौत की सज़ा देने का कोई और विकल्प हो सकता है? कोर्ट ने एम्स समेत कुछ बड़े अस्पतालों से साइंटिफ़िक डेटा जुटाने को भी कहा है. सुप्रीम कोर्ट ने ये संकेत भी दिया कि वो इस मामले में एक्सपर्ट कमिटी बना सकता है. अब इस पूरे मामले में अगली सुनवाई 2 मई को होगी.

फांसी के अलावा मौत की और क्या सज़ा है?

BBC की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, दुनिया में 58 देशों में सज़ा-ए-मौत का मतलब है फांसी. लेकिन सबसे ज़्यादा मौत सज़ा के लिए गोली मारी जाती है. 73 देशों में.

भारत सहित 33 देशों में फांसी मृत्युदंड का एकमात्र तरीक़ा है. मसलन, मलेशिया, बारबाडोस, बोत्सवाना, तंजानिया, जाम्बिया, जिंबाब्वे और दक्षिण कोरिया. वहीं छह देशों में स्टोनिंग यानी पत्थर मारकर ये दंड दिया जाता है. जबकि पांच देशों में इंजेक्शन दिया जाता है. तीन देशों में सिर क़लम कर मौत की सजा को अंजाम दिया जाता है.

यहां भी पढ़ें - वो केस जिसने फांसी की सजा पर ही सवाल खड़े कर दिए थे

अमेरिका में गैस, फांसी और फ़ायरिंग तीनों से ही मौत की सज़ा सुनाई जाती है. हालांकि, अमेरिका के 36 राज्यों में फांसी की सजा ख़त्म हो चुकी है. चीन में मौत की सजा देने के लिए इंजेक्शन और फ़ायरिंग का इस्तेमाल होता है.

विदेश की बात बहुत हुई. अब ज़रा हिंदुस्तान के इतिहास में झांकते हैं और जानने की कोशिश करते हैं कि मौत की सजा देने के लिए किन-किन तरीक़ों का इस्तेमाल होता था. इसके लिए हमने इतिहासकार रूचिका शर्मा से बात की. उन्होंने बताया,

"पहला संदर्भ मिलता है अशोक के समय में. अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाने के बाद लिखवाया है कि जिन लोगों को सज़ा-ए-मौत क़रार हुई है, उन्हें भी अपनी मृत्यु के दिन से 3 दिन पहले की मोहलत मिलनी चाहिए. ताकि वो अपनी माफ़ी मांग सके. इससे हमें ये पता चलता है कि बौद्ध धर्म अपनाने के बाद भी कैपिटल पनिशमेंट यानी मृत्यु दंड का प्रावधान था. कौटिल्य की 'अर्थशास्त्र' में भी इसका ज़िक्र मिलता है. कौटिल्य ने कैपिटल पनिशमेंट को दो भागों में बांटा है. पहला, शुद्ध वध. जो कम तकलीफ़देह और त्वरित तरीक़ा है. ये उन लोगों को दिया जाता था, जिन्होंने अपराध तो बड़ा किया हो, लेकिन ग़ैर-इरादतन. दूसरा कौटिल्य ने लिखा है: चित्र वध. जो कि जघन्य अपराधों की सज़ा के तौर पर दिया जाता था. कई तरीके होते थे- डूबा कर मार देना, ज़िंदा जलाना, वग़ैरह.

सज़ा को दर्ज करना, राज्य की आंतरिक व्यवस्था और सुरक्षा के लिए आंकड़े जुटाना. ये सब मुग़लों के समय आया है. जैसे हमें पता है कि उनकी कितनी जेलें थीं. उस समय अगर कोई रणथंबोर क़िले में है, मतलब उसने बहुत बड़ा अपराध किया है. सज़ा सुनाने के महीने भर में उन्हें मार देते थे. तरीक़ा क्या होता था? क्योंकि रणथंबोर का क़िला ऊंचाई पर था, तो दोषियों को वहां से धक्का दे देते थे."

रुचिका ने बताया कि ये सब तब बदला, जब अंग्रेज़ आए. वहां से भारत में शुरू हुई फांसी की सज़ा. फ्रांस के एक क़ानूनविद थे ड्रेको. इन्हीं के नाम से बना है अंग्रेज़ी का शब्द 'ड्रैकोनियन'. हिंदी में इसका अर्थ होता है वीभत्स. ड्रेको ने ही मृत्युदंड के कॉन्सेप्ट को पुख़्ता किया. उन्होंने जो सिस्टम तब बनाया, लगभग वही आज तक चलता है. 

आज 23 मार्च है. शहीद दिवस. आज ही के दिन ब्रितानी हुकूमत ने क्रांतिकारियों भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी दे दी थी. हमारे जस्टिस सिस्टम में बहुत हद तक ब्रितानी हुक़ूमत की छाप है. कई क़ानून और प्रक्रियाएं अभी तक जस की तस हैं. लेकिन अब फांसी की सज़ा बहुत ही चुनिंदा मामलों में ही दी जाती है. अपराध का नेचर बहुत क्रूर हो, तब ही सज़ा-ए-मौत सुनाई जाती है. फांसी की सजा पर आपकी कोई राय है, तो कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं.

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