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दिलफेंक बहादुर 1: एक्स हो चुकी लाड़ी ने गले तो लगाया, पर वो कसावट नहीं थी

हमारे दिलफेंक बहादुर का पहला किस्सा: दिलफेंक बहादुर और कर्क रेखा के नजदीक वाला शहर.

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28 दिसंबर 2016 (Updated: 27 नवंबर 2017, 04:12 AM IST) कॉमेंट्स
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दिल की तहों के भीतर रखीं वो बातें, जिनके हमराज सिर्फ हम ही होते हैं, अक्सर कही नहीं जातीं. क्यों? क्योंकि उन्हें कहेंगे, तो हमारी पहचान जाहिर हो जाएगी. हमारी शक्ल, हमारा नाम जाहिर हो जाएगा. बड़े तकल्लुफ करने पड़ते हैं उजाले में सच बोलते हुए. लेकिन जब हम अपनी पहचान को स्टैंड पर टिकाकर एक किनारे खड़ा कर देते हैं, तो हमारा एक्सप्रेशन आजाद हो जाता है. फिर आसमान भी हमारी आवाज सुनने के लिए कान एक तरफ टिका लेता है.

कुछ कहने की इसी चाहत में एक शख्स अपना नाम 'दिलफेंक' रखकर बहादुर हो गया है. ये 'दिलफेंक बहादुर' आपसे कुछ कहना चाहता है. कुछ किस्से सुनाना चाहता है. मुस्कुराहट, उदासी, लतीफे, रसिया... हर मिजाज के किस्से. तो दिलफेंक बहादुर के मजमून की आरजू छोड़कर आप उसकी ईमानदार लिखाई की तरफ कूच कीजिए. मजा आएगा.


दिलफेंक बहादुरदिलफेंक बहादुर और कर्क रेखा के नजदीक वाला शहर

शॉर्ट इंट्रो... बोले तो एकदम संक्षिप्त

डायवॉर्स पेपर के ड्राफ्ट को घूरते हुए बहादुर ने स्टोर 99 से खरीदे हुए व्हिस्की ग्लास में ओल्ड मॉन्क का पेग बनाया. वो सर्दी की रात थी. कर्क रेखा के नजदीक बसे उस शहर की सर्दी, जिसकी मिसालें गुरदासपुर और मेरठ की सर्दी के सामने फीकी पड़तीं, दोनों ही जगहों पर बहादुर ने सेमी-मेच्योर जवानी के दिन गुजारे थे. 9 टू 9 वाले सो-कॉल्ड प्रोफेशनल ऑफिस से लौटते हुए उसने पुलिया वाले अहाते-कम-ठेके से अद्धा खरीदा था. बैग की पिछली जेब में डायवॉर्स पेपर के ड्राफ्ट के साथ.

बगल में कोल्ड-ड्रिंक की बोतल ठूंसी, खुल्ले पैसों का चखना पैक कराया और जैकेट की अंदर वाली जेब में 5 क्लासिक मेंथॉल. हालांकि, लौंडियों की चुम्मी तक न ले पाने वाले बहुतों ने उसे समझाइश दी थी कि मेंथॉल मत पिया करो, जवानी का जलवा नहीं रहेगा. लेकिन, तमाम नसीहतों के बाद भी मेंथॉल की लत न छूटी. घर पहुंचा तो देखा कि कोल्ड-ड्रिंक की ठंडक से डायवॉर्स ड्राफ्ट का एक हिस्सा गीला हो चुका है और तीन मेंथॉल इस कदर टेढ़ी, जैसे उसकी जिंदगी इन दिनों. टेंशन कुछ यूं कम हुई, 'अभी पेपर्स फाइनल थोड़ी न हैं. फाइनल वाले तो लेमिनेशन कराकर रखूंगा.'

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इत्ते में कैरेक्टर तो बुझा गए होंगे बहादुर का...चलो छड्डो पाजी... आगे बढ़ते हैं...

तो बंदा यानी बहादुर दिलफेंक, दुनियावालों की तीसरी नज़र में महाठरकी. दफ्तर में एक ठौ लौंडिया न छोड़ी होगी, जिसे अपनी नजरों से छेदा न हो. जिस दौर में लौंडे बगल से गुजर रही लौंडिया की छाती देखकर गदराए घूमते थे, बहादुर ने ब्याह कर लिया. वो भी घना क्रांतिकारी टाइप. लाड़ी उम्र और समझ, दोनों में सात बसंत आगे थी. आगे जो हुआ, वो किसी 90 के दशक की बॉलीवुड फिल्म के क्लाइमैक्स की तरह सर्वविदित था.

मोहल्ले की घोष आंटी ने रोसुगुल्ला पेलते हुए जब ये कहा था कि 'ऐ न चॉलबे', मां कसम... बगल के स्टॉल पर कढ़ाही पनीर ढूंढते दूल्हे के हाथ से प्लेट छूटते-छूटते बची. खैर... सात बसंत से पहले ही ठीक साढ़े सत्रह महीने में लाड़े का चंचल मन कुंलांचे मारने लगा. चूंकि, भारतीय समाज में लाड़ी हमेशा पवित्र होती है, इसलिए लाड़े के मन का कुंलाचे मारना स्क्रिप्ट की डिमांड थी. वरना कहानी बायस्ड हो जाती. (कम से कम कहानी की पहली लाइन पढ़कर ही लाड़े का नाम घोषित करने वाले इंटेलेक्चुअल भद्रजनों के लिए).

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लाड़े की जिंदगी में रंग कई थे...

यूं तो लाड़े की जिंदगी का एक हिस्सा सर्दियों सा खुश्क था, लेकिन कहीं न कहीं दिल अब भी चेरापूंजी (अब जो नंबर वन बन गई, उस जगह का नाम गूगल कर लेना, याद नहीं आ रहा) बना हुआ था. बहादुर अपनी बंजर होती जमीन में (इसमें मेंथॉल का भी थोड़ा सा रोल है) हर दिन कोई न कोई बीज बोता और उसे सींचता, लेकिन कर्क रेखा वाले इलाके में पड़ने वाली तीखी धूप उसे पनपने न देती. ग़म दिनों-दिन बढ़ते गए और जिस्मानी ख्वाहिशें उफान मारती रहीं.

बीच-बीच में लाड़ा मौसमी तितलियों से दिल बहला लेता, लेकिन जिस्म की ख्वाहिश पूरी न होती. तितलियां भी तो वफादार ढूंढती होंगी. वो बहादुर की जिंदगी के रंग देखतीं, तो ठगा सा महसूस करतीं. दिन यूं ही महीनों में बदले और बहादुर की ख्वाहिशें दम तोड़ती गईं. आखिरकार तारीख मिली. नवंबर की. ये वो दौर था, जो बहादुर की जिंदगी का सबसे मुश्किल वक्त था. ओल्ड मॉन्क का अद्धा अब भी अद्धा ही रहा, लेकिन मेंथॉल 5 की जगह 7 हो गई थीं. 2 बैकअप में रखता था. जाने कब तलब उफान मारने लगे.

वो सीन फिल्मी था. कुमुदबाला की अदालत.

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तुम्हारी उम्र ही कितनी है? हमें देखो. नौकरी भी करते हैं और घर भी चलाते हैं. लेडी जज ने कहा. दोनों सामने खड़े थे. बगल में इकलौती वकील खड़ी थी. म्युचुअल वाली. साढ़े चार फेरे भी करवाए और तलाक के वक्त भी साथ खड़ी थी. हां, फीस दोनों बार नहीं ली. लाड़ी की खास थी. चड्डी-बड्डी. गृहस्थी को संभालने की जद्दोजहद में एक दिन बहादुर बिदक गया. तब लाड़ी ने उसी को बुलाया था, समझाइश के लिए. बहादुर म्युचुअल वाली के सीने से लिपटकर रोया था. म्युचुअल वाली ने सिर पर हाथ फेरते हुए उसे चुप कराया था.


...तो जज साहिबा के सवाल का जवाब यही था. 'अब नहीं रह सकते साथ.' जज ने बगल में बैठे असिस्टेंट से कड़क आवाज में कहा, 'लिखो... फलाना सिंह... पत्नी फलाना... आवेदकगण का अभिवचन है कि उनका विवाह ***** अक्टूबर **** को **** में हिंदू रीति रिवाज से हुआ और विवाह का पंजीयन भी हुआ. विवाह के साढ़े सत्रह महीने बाद से दोनों पृथक-पृथक रह रहे हैं, क्योंकि उनकी विचारधारा में मतभेद है और उनके स्वभाव आदि को देखते हुए अब उनका एक साथ रहना संभव नहीं है. अतः आवेदक श्रीमती लाड़ी तथा आवेदक बहादुर के मध्य दिनांक *** अक्टूबर **** को हुआ विवाह आज दिनांक **** से विघटित किया जाता है. उभयपक्ष अपना वहन स्वंय वहन करेंगे.-प्रधान न्यायाधीशकुमुदबाला


क्लाइमैक्स अभी बाकी है मेरे यार...

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दिलफेंक बहादुर आंसू पोंछते हुए जज के कमरे से बाहर आया. एक्स लाड़ी (हो ही चुकी थी वो एक्स) के पास आया और एक दफा आखिरी बार उसे बाहों में भर लिया. एक्स लाड़ी ने भी फॉर्मेलिटी निभाते हुए उसे बाहों में भर लिया, लेकिन कसावट पहले जैसी नहीं थी. चूंकि, लाड़ी पहले ही रो चुकी थी, इसलिए सिसकियों की आवाज केवल एकतरफा थी. आखिरी पलों की मुलाकात खत्म भी नहीं हुई थी कि जज साहिबा का अर्दली आया और मुस्कुराते हुए बोला, 'बधाई हो! काम ठीक से हो गया साहब. कुछ खर्चा-पानी दीजिए.'

बहादुर ने 300 रुपए निकाले और 200 एक्स लाड़ी से मांगे. कुल मिलाकर 500 रुपए अर्दली की हथेली पर रखे और मन ही मन चार गालियां दीं. किसी के दुखों की कीमत 500 रुपए तक सिमट गई थी. बहादुर सिसकते हुए कोर्ट से बाहर निकला और पहला फोन मां को किया. दोनों तरफ फूट-फूटकर रोने की आवाजें थीं. एक और बात... कोर्ट पहुंचने से पहले ही बहादुर ने अपनी सास का नंबर 'एक्स सास' नाम से सेव कर लिया था.


दिल की बात: चूंकि एक्स लाड़ा यानी बहादुर बेहद संवेदनशील और भावुक किस्म का है, शुरुआत में सोचा कि व्यंग्य लिखे, लेकिन आखिर में भावुक हो गया.

कुछ सुने-सुनाए शब्द: लाड़ा यानी दूल्हा. पंजाबी में. लाड़ी यानी दुल्हन. और एक बात. पंजाबी शादियों में फेरे साढ़े चार ही होते हैं.

-दिलफेंक बहादुर

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