एक कविता रोज़ - पाश की कविता 'दो और दो तीन'
'कचहरियों, बस-अड्डों और पार्कों में/सौ-सौ के नोट घूमते फिरते हैं.'
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क्रांति. ये शब्द अगर आप सुनकर अपनी आंखें मूंदें तो आमतौर पर जो तस्वीरें आपके ज़हन में तैरेंगी वो कुछ इस प्रकार होंगी -
आगजनी के बीच नारे लगाते कुछ नकाबपोश 'लड़के'या हिंसा में डूबे किसी मुच्छड़ पुरुष की आंखेंलेकिन जो मैं कहूं कि क्रांतिकारियों की तस्वीर किसी तानाशाह की कब्र पर खिले फूल भी हो सकते हैं, तो आपको कैसा लगेगा? या किसी कॉलेज जाती लड़की का अपने प्रेमी का सरेबाज़ार हाथ पकड़ना भी एक क्रांतिकारी तस्वीर है. यकीनन इन घटनाओं को आप क्रांति नहीं मानते होंगे. कैसे मानेंगे? आपके इर्द-गिर्द जो कोहरा बारीकी से बुना गया है, वो आपके अंतर्मन को प्रेम से लबरेज़ और मुहब्बत से भरपूर दृश्यों को क्रांति मानने से रोकता है. ख़ैर, लब्बोलुआब ये है कि क्रांति और प्रेम एक दूसरे का हाथ थामे चलते हैं. ऐसे ही एक क्रांतिकारी प्रेमी कवि को आज ही के दिन गोलियों से छलनी कर दिया गया था. नाम था - पाश. अवतार सिंह संधू 'पाश'. अपने जीवन के अनुभवों के बारे में पाश कहा करते थे -
'मैं जो सिर्फ आदमी बना रहना चाहता था, यह क्या बना दिया गया हूं'पाश को जीने की इतनी चाह थी कि वो गले तक ज़िन्दगी में डूब जाना चाहते थे. बेशक पाश पंजाबी कवि थे, मगर उनकी कविताओं को हिंदी में बाहें पसारे स्वीकारने वाले इतने लोग हैं कि उन्हें किसी हिंदी कवि से कम प्रसिद्धि प्राप्त नहीं. क्रांति का इत्तेफ़ाक़ ऐसा था कि पाश की हत्या ठीक उसी दिन की गई जिस दिन तीनों महान क्रांतिकारी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई थी. क्रांतिकारियों को फांसी के तख्ते पर झुला देना या गोलियों से भून डालना कोई नई बात नहीं. जैसा कि फैज़ कहते हैं -
यूंही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़न उन की रस्म नई है ,न अपनी रीत नईयूंही हमेशा खिलाए हैं, हम ने आग में फूलन उन की हार नई है ,न अपनी जीत नईइसी सबब से फ़लक का गिला नहीं करतेतिरे फ़िराक़ में हम दिल बुरा नहीं करतेआज अवतार सिंह संधू 'पाश' की बरसी पर 'एक कविता रोज़' में उनकी एक कविता पढ़िए जिसका शीर्षक है - दो और दो तीन.