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परवीन शाकिर: वो शायरा जिन्होंने एग्ज़ाम दिया, तो उसमें उन्हीं पर सवाल आया था

जिनका कलाम लड़कियां अपने मंगेतर को तोहफ़े में देती हैं.

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इक नाम क्या लिखा तिरा साहिल की रेत पर / फिर उम्र भर हवा से मेरी दुश्मनी रही
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26 दिसंबर 2018 (Updated: 25 दिसंबर 2018, 04:16 AM IST) कॉमेंट्स
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शामिख फ़राज़ शामिख फ़राज़

शामिख फ़राज़ उन खुशनसीब लोगों में से हैं जिन्होंने अपनी ज़िंदगी में दो सदियों का संगम देखा. बचपन बीसवीं सदी में बीता और जवान इक्कीसवीं सदी में हुए. कंप्यूटर इंजीनियरिंग की डिग्री और प्रोफेशन भी उसी से जुड़ा लेकिन शौक के चलते  हिंदी और बहुत से विदेशी लेखकों को पढ़ा. फिर ब्लॉग, अख़बार में कॉलम लिखे. आइए आज परवीन शाकिर की बरसी के अवसर पर इनका लिखा एक लेख आपको पढ़वाते हैं.




आपने किसी शायरा के बारे में सुना है कि उसने कोई लिखित परीक्षा दी हो और उस परीक्षा में उन्हीं पर एक सवाल पूछा गया हो. जी हां ऐसा पाकिस्तान की मशहूर शायरा परवीन शाकिर के साथ हुआ था, जब उन्होंने 1982 में सेंट्रल सुपीरियर सर्विस की परीक्षा दी थी.
उन्होंने इस दुनिया को 1994 में ही अलविदा कह दिया था. लेकिन एक फनकार कभी मरता नहीं. वह भी अपनी शायरी के अल्फ़ाज़ में छुपकर हमारे बीच हमेशा रहेंगी. इस शायरा के बारे में लिखने के लिए जब कलम उठाई तो इक़बाल का एक शे'र याद आ गया.
हज़ारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती हैबड़ी मुश्किल से होता है चमन में एक दीदावर पैदा
शायरी की दुनिया पर मर्दाना हुकूमत हमेशा रही. हमारी गुफ्तुगू में जब कभी कोई बात हुई तो मीर, ग़ालिब, इकबाल, फैज़, मजाज़, जोश, साहिर जैसे नामों का ही बोलबाला रहा. औरत की बात भी मर्द ही करते रहे. मजाज़ का एक मशहूर शे'र जो उन्होंने औरत को संबोधित करते हुए लिखा-
तुम्हारे तन पे ये आंचल बहुत ही ख़ूब है, लेकिनतुम इस आंचल से एक परचम बना लेतीं तो अच्छा था.
परवीन शाकिर की पैदाइश जैसे मजाज़ की मुराद कुबूल हुई. एक लड़की ने जनम लिया और 70 व 80 के दशक की औरतों के एहसासात को शायरी बनाकर पेश किया.
काश मेरे पर होतेकाश मैं हवा होतीमैं नहीं मगर कुछ भीसंग-दिल रिवाजों केआहिनी हिसारों मेंउम्र-कैद की मुल्ज़िमसिर्फ़ एक लड़की हूँ*आहिनी हिसारों में (लोहे की चारदीवारी में)
अक्स-ए-ख़ुशबू हूं बिखरने से न रोके कोई /// और बिखर जाऊं तो मुझ को न समेटे कोई
अक्स-ए-ख़ुशबू हूं बिखरने से न रोके कोई / और बिखर जाऊं तो मुझ को न समेटे कोई

परवीन शाकिर वो पहली शायरा थीं, जिसने ‘लड़की’ शब्द को उर्दू शायरी का एक हिस्सा बना दिया.
लड़कियों के सुख अजब होते हैं और दुःख भी अजीबहँस रही हैं और काजल भीगता है साथ-साथ
परवीन शाकिर एक उर्दू शायरा, शिक्षिका और प्रशासनिक अधिकारी थी. उनका जन्म पाकिस्तान के सिंध प्रान्त के कराची शहर में 24 नवंबर 1952 को हुआ था. परवीन शाकिर ने 1966 में अपनी मैट्रिकुलेशन, 1968 में इंटरमीडिएट, 1970 में बीए (ऑनर्स) और 1972 में कराची विश्वविद्यालय से एमए (अंग्रेजी) किया. 1982 में उन्होंने सीएसएस पास किया और पूरे पाकिस्तान में दूसरी रैंक हासिल की. परवीन शाकिर ने दो स्नातक डिग्री हासिल की, एक अंग्रेजी साहित्य में और दूसरी भाषा विज्ञान में. उन्होंने अतिरिक्त रूप से बैंक प्रशासन में डिग्री ली. वह सिविल सेवा में शामिल होने से पहले सीमा शुल्क विभाग में लंबे समय तक प्रशिक्षक थीं. 1986 में उन्हें इस्लामाबाद में फेडरल ब्यूरो ऑफ राजस्व के दूसरे सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था. परवीन शाकिर ने नागरिक प्रशासन में शामिल होने से पहले कराची के अब्दुल्ला कॉलेज में लंबे समय तक अंग्रेजी लेखन पढ़ाया. उनकी प्रशासनिक सेवा के दौरान उन्हें छात्रवृत्तियां मिलीं और उन्होंने हॉवर्ड विश्वविद्यालय में अध्ययन किया.
अब्र बरसे तो इनायत उस की / शाख़ तो सिर्फ़ दुआ करती है
अब्र बरसे तो इनायत उस की / शाख़ तो सिर्फ़ दुआ करती है

परवीन शाकिर की शादी डॉक्टर नसीर अली से हुई. इनका एक बेटा मुराद अली भी है.डॉक्टर नसीर अली से बाद में उन्होंने तलाक ले लिया. उनका निधन 26 दिसंबर 1994 को एक रोड एक्सीडेंट में हुआ. परवीन शाकिर इस दुनिया में सिर्फ़ 42 साल तक ही रह सकीं. इस्लामाबाद में जिस सड़क पर उनका निधन हुआ था, उसको उन्हीं का नाम दिया गया, 'परवीन शाकिर रोड'. उनके निधन पर, परवीन शाकिर ट्रस्ट उनकी एक खास दोस्त परवीन कदीर की तरफ से बनाया गया, जो हर साल एक सालाना जलसा करता है और 'अक्स-ए-खुशबू' सालाना जलसे के लिए हर मुमकिन सहूलत मुहैया कराता है.
2013 में, पाकिस्तान सरकार की तरफ से परवीन शाकिर की पुण्यतिथि पर 10 रुपये का एक डाक टिकट भी छापा गया. अपनी मौत से पहले '1971 की जंग में जरा ए ब्लॉक का किरदार' नाम के शीर्षक पर काम कर रही थी, यह अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी में पेश किया जाना था.
डाक टिकट.
डाक टिकट.

उन्होंने अपने लेखन की शुरुआत में ग़ज़ल और नज़्म दो सूरतों में लिखना शुरू किया. इसके साथ साथ अखबारों में कॉलम लिखने में उनकी दिलचस्पी थी और अंग्रेजी अध्यापिका होने की वजह से अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं में लिखना उन्हें अच्छा लगता था. शुरुआत में उन्होंने अपना तख़ल्लुस (शायरी में इस्तेमाल किया जाने वाला उपनाम) 'बीना' इस्तेमाल किया. परवीन शाकिर को अपनी नज़्मों और गज़लों से बेपनाह मक़बूलियत हासिल हुई.
जब उनकी पहली किताब छपी तो न सिर्फ बेस्टसेलर का मुकाम हासिल हुआ, बल्कि उनकी शायरी की खुशबू उनके मुल्क में हर तरफ फैल गई. कच्ची उम्र के रूमानी जज्बात को उन्होंने जिस तरह से अपनी शायरी में पेश किया, यह अंदाज़ किसी और शायरा में न पाया गया. 'ख़ुशबू' उनकी एक मशहूर किताब थी और इसकी मक़बूलियत का कोई सानी नहीं था.
कुछ तो तिरे मौसम ही मुझे रास कम आए / और कुछ मिरी मिट्टी में बग़ावत भी बहुत थी
कुछ तो तिरे मौसम ही मुझे रास कम आए / और कुछ मिरी मिट्टी में बग़ावत भी बहुत थी

'ख़ुशबू' को 1976 में 'आदमजी' पुरस्कार दिया गया था. उनके इंतकाल के बाद उनकी एक और किताब 'माह-ए -तमाम' के नाम से छपी. इसमें उनकी ज़ाती जिंदगी के गम नजर आते हैं. उनकी शायरी का आलम यह है कि उनकी पहली किताब 'ख़ुशबू' पाकिस्तान में लोग अपने मंगेतर को तोहफे में देते हैं. उनकी एक और किताब को सदर-ए-पाकिस्तान की तरफ से 'प्राइड ऑफ परफॉर्मेंस' का अवॉर्ड भी मिला. उनकी शायरी का ट्रांसलेशन इंग्लिश और जापानी लैंग्वेज में भी किया गया.
अपने फ़ोन पे नंबरबार बार डायल करती हूँसोच रही हूँकब तक उस का टेलीफ़ोन इंगेज रहेगादिल कुढ़ता हैइतनी इतनी देर तलकवो किस से बातें करता है!
परवीन की एक करीबी दोस्त और खुद एक शायरा, शाहिदा हसन ने कभी किसी बातचीत में कहा था – "परवीन ने जिस शिद्दत और सच्चाई के साथ शायरी में अपनी शख्सियत और जज़्बात का इज़हार किया वो आप-बीती से जग-बीती बन गया. ख़ामोशी का दामन थामकर बेबाकी से अपनी बात कहने का उनका ढंग, निराला था जिसने नौजवान लड़कियों को बहुत अन्दर तक मुतास्सिर किया."
*कमाल-ए-ज़ब्त को खुद भी तो आजमाऊंगीमैंने अपने हाथ से उसकी दुल्हन सजाऊँगी *कमाल-ए-ज़ब्त (धैर्य की सीमा)
परवीन की शायरी का खुले दिल के साथ स्वागत हुआ. उसकी असमय मृत्यु के बाद भी आज उन्हें उर्दू की सबसे बेहतरीन और एक खास शायरा माना जाता है. वह स्वाभाविक रूप से संवेदनशील और रचनात्मक कल्पना की धनी थीं. परवीन ने बहुत ही कम उम्र में लिखना शुरू कर दिया था और उनमें फ़ैज़ और फ़राज़ की झलक ज़रूर मिलती है लेकिन वह उनकी नकल नहीं करतीं. अहमद नदीम क़ासमी उनके उस्ताद थे जिन्हें वह अम्मूजान पुकारा करती थी.
कभी कभार उसे देख लें कहीं मिल लें / ये कब कहा था कि वो ख़ुश-बदन हमारा हो
कभी कभार उसे देख लें कहीं मिल लें / ये कब कहा था कि वो ख़ुश-बदन हमारा हो
मैं क्यूं उस को फ़ोन करूं!उस के भी तो इल्म में होगाकल शबमौसम की पहली बारिश थी!
उनकी शायरी के खास पहलू मोहब्बत और औरत है. उनकी शायरी में इज़हारे मोहब्बत करती हुई औरत नज़र आती है. जो अपने गीतों में अपने महबूब को बयान और याद करती है .
गए बरस कि ईद का दिन क्या अच्छा थाचाँद को देख के उस का चेहरा देखा थाफ़ज़ा में 'कीट्स' के लहजे की नरमाहट थीमौसम अपने रंग में 'फ़ैज़' का मिस्रा था
उन्होंने अपनी शायरी में ज़िंदगी के अलग-अलग मोड़ों को लय दी है. उनकी कविताओं में एक लड़की के 'बीवी', 'मां ' और एक 'औरत' तक के सफ़र को साफ़ देखा जा सकता है. वह ज़ाहिर तौर एक बीवी के साथ मां भी हैं, शायरा भी और रोज़ी कमाने वाली औरत भी. मां होने के अनुभव पर तो कई महिला कवियों ने कलम चलाई है लेकिन पिता होने के अपने अनुभव पर किसी पुरुष कवि की नज़र नहीं पड़ी है.उन्होंने वैवाहिक प्रेम के जितने आयामों को छुआ है उतना कोई पुरुष कवि चाह कर भी नहीं कर पाया है.
चेहरा मेरा था निगाहें उस कीख़ामुशी में भी वो बातें उस कीमेरे चेहरे पे ग़ज़ल लिखती गईं
शे'र कहती हुई आंखें उस कीशोख़ लम्हों का पता देने लगींतेज़ होती हुई साँसें उस की

कांटों में घिरे फूल को चूम आएगी लेकिन / तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा

उन्होंने बेवफ़ाई, वियोग और तलाक जैसे विषयों को छुआ है, जिसपर उनके समकालीन पुरुष कवियों की नज़र कम ही गई है.
कव्वे भी अंडे खाने के शौक़ को अपनेफ़ाख़्ता के घर जा कर पूरा करते हैंलेकिन ये वो सांप हैं जो किअपने बच्चेख़ुद ही चट कर जाते हैंकभी कभी मैं सोचती हूं किसांपों की ये ख़सलतमालिक-ए-जिंन-ओ-इन्स की, इंसानों के हक़ मेंकैसी बे-पायां रहमत है!
एक नज़्म में उन्होंने अपने युवा बेटे को संबोधित करते हुए लिखा है कि उसे इस बात पर शर्म नहीं आनी चाहिए कि उसे एक शायरा के बेटे के रूप में जाना जाता है न कि एक पिता के बेटे के रूप में. उन्होंने उर्दू शायरी में एक औरत की मौजूदगी को मज़बूती के साथ दर्ज कराया.
शोर मचाती मौजे-आबसाहिल से टकरा के जब वापिस लौटी तोपांव के नीचे जमी हुई चमकीली सुनहरी रेतअचानक सरक गई!कुछ कुछ गहरे पानी मेंखड़ी हुई लड़की ने सोचाये लम्हा कितना जाना-पहचाना लगता है!
1952 में पैदाइश, 1976 में पहली किताब और 1994 में हमेशा के लिए खामोश हो गईं. कितना छोटा सा सफर है ये, और इसमें अगर उसकी शायरी पर बात की जाए तो उसकी उम्र 20-25 साल से ज्यादा नहीं लगती. लेकिन ये 20-25 साल सैकड़ों सालों से भी बड़े लगते हैं. आनंद बख़्शी के गीत की पंक्तियाँ शायद उन जैसे लोगों के लिए ही हैं
चिट्ठी ना कोई सन्देशजाने वो कौन सा देशजहां तुम चले गए
चलते-चलते उनकी एक नज़्म...
टपक पड़ते हैं आंसू जब तुम्हारी याद आती हैये वो बरसात है जिसका कोई मौसम नहीं होताउसके कंवल हाथों की खुशबूकितनी सब्ज़-आंखों ने पीने की ख्वाहिश की थीकितने चमकते बालों नेछुए जाने की आस में कैसा कैसा खुद को बिखराया थाकितने फूल उगाने वाले पांवउसकी राह में अपनी आंखें बिछाए फिरते थेलेकिन वो हर ख्वाब के हाथ झटकती हुईजंगल की मगरूर हवाओं की सूरतअपनी धुन में उड़ती फिरतीआज मगरसूरज ने खिड़की से झांका तोउसकी आंखें पलकें झपकना भूल गयींवो मगरूर सी, तीखी लड़कीआम सी आंखों, आम से बालों वालेएक अक्खड़ परदेसी के आगेघुटनों पर बैठीउसके बूट के तस्मे बांध रही थी!

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