क्यों 2018 में ये दस से अधिक हिंदी फिल्में मुझे अच्छी लगीं?
कई पैमानों पर खरा उतरते हुए ये फिल्में स्वस्थ एंटरटेनमेंट देती हैं और जरूरी विषयों पर बात करती हैं.
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उम्दा अभिनय / जरूरी रेफरेंस वाले पात्र: (1) शिवली की शिक्षिका मां (गीतांजलि राव); (2) टूरेट सिंड्रोम से हतोत्साहित नन्ही नैना माथुर को हमेशा के लिए प्रेरित कर जाने वाले मि. ख़ान (विक्रम गोखले); (3) अमरता को प्राप्त और बरसों से कैद दादी जिसके शरीर पर वृक्ष खड़ा हो गया है; (4) मौजी की मां (यामिनी दास) जिसका जीवन रसोई व घर के काम की उधेड़बुन और पति को फूली हुई रोटी देने के तनाव तक सीमित है; (5) अधेड़ उम्र में प्रेग्नेंट हो गई बहू और बेटे को डांटने वाली दादी (सुरेखा सीकरी) जो कहती है हमारी पीढ़ी को निरोध का प्रचार देखकर समझ आ गई, तुम लोगों को नहीं समझ आई; (6) वो अंधा खरगोश जिसकी वजह से फिल्म की कहानी अंजाम तक पहुंचती है; (7) वो जज साब (कुमुद मिश्रा) जो पहले पूर्वाग्रही और लापरवाह प्रतीत होते हैं लेकिन अंत में बहुत गुणी निकलते हैं; और, (8) पाकिस्तानी ब्रिगेडियर सईद का पुराना नौकर अब्दुल (आरिफ ज़कारिया) जिसकी हत्या का पछतावा सहमत को ताउम्र रहता है.
1. हिचकी ~ (शिक्षा)
डायरेक्टरः सिद्धार्थ मल्होत्रा

"कोई बुरे स्टूडेंट्स नहीं होते, सिर्फ बुरे टीचर्स होते हैं." - नैना मैम
- बड़ी सरल सी होते हुए भी इस फिल्म का कुल अहसास बहुत पॉजिटिव है. एक से ज्यादा बार देख सकते हैं. मनोबल बढ़ाती है. प्रेरित करती है. बच्चों का प्रतिनिधि सिनेमा भी ये है जो मुख्यधारा में न के बराबर बन रहा है भारत में. इस लिहाज से 'हिचकी' जरूरी फिल्म है. शिक्षकों को ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए ताकि जानें कि उनका काम कितना गरिमा भरा और सभ्यताओं को दिशा देने वाला है. 'हिचकी' नैना माथुर नाम की एक युवती की कहानी है जिसे टूरेट सिंड्रोम है, जिसमें इंसान नर्वस होने पर अटकता है, अजीब आवाजें निकालता है. नैना को सबसे अच्छा लगता है बच्चों को पढ़ाना. लेकिन हर इंटरव्यू में उसके सिंड्रोम के कारण सलेक्शन नहीं होता. एक दिन मुंबई की बड़ी नामी स्कूल सेंट नॉटकर्स में उसे बुलाया जाता है. उसे कक्षा 9एफ को पढ़ाने का जिम्मा मिलता है. वो भी इसलिए क्योंकि इस कक्षा का कोई टीचर टिकता नहीं है. यहां के बच्चों से सब तंग आकर भाग जाते हैं. ये बच्चे ऐसा क्यों करते हैं और नैना ऐसा क्या करती है कि जीवन भर के लिए इन बागी बच्चों की प्रेरणा बन जाती है ये कहानी में आगे पता चलता है.
2. बधाई हो ~ (सेक्स)
डायरेक्टरः अमित रविंदरनाथ शर्मा

"पति पत्नी में प्रेम होना, बुरी बात होवे? बता?" - दादी (अधेड़ उम्र में प्रेग्नेंट हो गई अपनी बहू प्रियंवदा व बेटे जीतू को असंस्कारी बोलने वाली दूसरी बहुओं को लताड़ते हुए कहती हैं.
- ये फिल्म बहुत गुदगुदाने वाली भी है और उतनी ही सार्थक भी. सबसे पहले तो ये उस टैबू को तोड़ती है कि बच्चों के बड़े होने के बाद माता-पिता का सेक्स करना किसी तरह की शर्मिंदगी है. परंपरागत रस्ते पर चलते हुए समाज में ये टैबू बना दिया गया है. जिससे बच्चे भी अनावश्यक कन्फ्यूज होते हैं अपने माता-पिता के बारे में उस तरह सोचने को लेकर और माता-पिता भी छुपते-छिपाते हैं. 'बधाई हो' बड़ी सरलता से हर उम्र के दर्शक को इस वर्जना से मुक्त करती है. फिल्म का सबसे ताकतवर सीन वो है जहां सास (सुरेखा सीकरी) दूसरी बहुओं के सामने अपनी उस बहू (नीना गुप्ता) का पक्ष लेती है जिसे हमेशा बुरा-भला कहती रही है. ये सीन आंसुओं की धार बहा देता है. फिल्म की एक और अनुपम बात है कौशिक दंपत्ति का रिश्ता. उन्हें देख बहुत सुकून होता है. मि. कौशिक (गजराज राव) जैसे सरल व्यवहार वाले पति बहुत रेयर हैं. 'बधाई हो' कौशिक दंपत्ति की कहानी है जिनके दो बेटे हैं. एक काफी बड़ा है. वे दोनों अधेड़ उम्र हैं और एक दिन जानते हैं कि मिसेज कौशिक प्रेगनेंट हैं. मध्यमवर्गीय समाज में इस उम्र में सेक्स छुपाने वाली चीज बना दी गई है और उस उम्र में बच्चा पैदा करना तो और भी शर्म वाली बात है. लेकिन मिसेज कौशिक कहती है कि "मैं इस बच्चे को जन्म दूंगी." इस फैसले से बड़ा बेटा (आयुष्मान खुराना) नाराज हो जाता है. सोचता है मां-पिता ने दोस्तों और सोसायटी में शर्मिंदा कर दिया उसे. अब ये परिवार आगे इस बात को कैसे लेता है, बड़े ही फनी और अच्छे तरीके से हम जानते हैं.
3. तुम्बाड ~ (लोभ)
डायरेक्टरः राही अनिल बर्वे

"विरासत में मिली हर चीज़ पर दावा नहीं करना चाहिए, ... लालची है तू" - पांडुरंग के पिता विनायक से ये बात उसकी पड़दादी ने कही थी जिसे हस्तर के छूने से अमरता मिली थी. एक अभिशाप. लेकिन न विनायक पर उसकी चेतावनी का असर हुआ, न उसके किशोरवय बेटे पांडु पर.
- हिंदी सिनेमा में ऐसी फिल्म पहले नहीं बनी. हॉरर की श्रेणी में भी ये सबसे अलग है. किसी इंटरनेशनल और हॉलीवुड हॉरर फिल्म में भी मनोरंजन के इतर कोई सार्थकता नहीं होती लेकिन तुम्बाड की थीम बहुत मजबूत है. और वो है लालच. लालच जिसकी वजह से इंसान प्रकृति से लेकर मानवता, न जाने किस किस का विनाश करता आ रहा है. लेकिन फिल्मों में अब इस विषय को तज दिया गया है. बल्कि फिल्मी कहानियों में तो लालच को स्वीकार्यता मिल गई है. 'तुम्बाड' हस्तक्षेप करती है. इसकी कहानी 1918 के काल से शुरू होती है. महाराष्ट्र के एक गांव तुम्बाड के एक वाड़े (बड़ा घर) से जहां एक ब्राम्हणी अपने दो बच्चों के साथ रहती है. आगे कहानी में एक खजाना है, एक डरावने पौराणिक पात्र की उपस्थिति है, एक कई सौ साल तक तक न मरने वाली बुढ़िया है और एक बच्चा है. वो बच्चा जो अपने पिता की तरह इस खजाने के लालच से मुक्त नहीं होता और बड़ा होकर उसे खोजता है और उपभोग शुरू करता है. फिर अपने बच्चे को भी उसके लिए तैयार करता है. अंत में दर्शक सीख पाता है कि लालच का फल बहुत बुरा होता है. 'तुम्बाड' फिल्ममेकिंग के लिहाज से अद्भुत मिसाल है. इस फिल्म की लोकेशन, पात्र और बाकी तत्व 1918 के कालखंड को बहुत विस्मयकारी यथार्थ से सजीव करते हैं. जो बड़ी बड़ी पीरियड फिल्मों में नहीं प्राप्त किया जाता वो डायरेक्टर राही ने यहां अचीव किया है. वे अपने इस एक प्रोजेक्ट से, एक नई दृष्टि देते हुए, भारतीय पौराणिक कहानियों को सिनेमा के लिए उपयुक्त बना गए हैं.
4. मुल्क ~ (मुसलमान)
डायरेक्टरः अनुभव सिन्हा

"अली मोहम्मद जी, कोई आपकी दाढ़ी पर सवाल उठाए आज के बाद तो इमोशनल मत होइए, और गुस्सा भी मत कीजिए. एक किताब है - 'भारत का संविधान'. इसके पहले पन्ने की कुछ फोटो कॉपीज़ करवा लीजिए दो चार. और जो भी सवाल उठाए उसे पकड़ा दीजिए. उसके बाद भी परेशान करे तो हम संभाल लेंगे." - न्यायाधीश हरीश मधोक (मुराद अली से.)
- हमारे दौर की सबसे जरूरी फिल्मों में से एक. भारत में बीते चार बरसों में, मुसलमानों के नाम पर हिंदुओं को भयभीत करके, कुटिल राजनीतिज्ञों ने जो माहौल बनाया दिया, ये उसी का नतीजा है कि घर में घुसकर और सड़क-चौराहों पर भगा-भगाकर मुसलमानों की हत्याएं (लिंचिंग) की गईं. एक तरफ गाय के नाम पर उन्हें घेर लिया गया है, दूसरी तरफ आतंकवाद के नाम पर. एक में उन्हें मारा जा रहा है, दूसरे में उनसे पूछा जा रहा कि देशभक्ति साबित करो. 'मुल्क' दूसरे वाले पहलू को संबोधित करती है. ये कहानी वाराणसी में रहने वाले मुराद अली (ऋषि कपूर) की है जिनके छोटे भाई के बेटे को आतंकवादी गतिविधियों में फुसला लिया जाता है. उससे एक बम हमला करवाया जाता है जिसमें कई नागरिक मारे जाते हैं. अदालत में सरकारी वकील (आशुतोष राणा) वही नैरेटिव बनाते हैं जो आज चल रहा है कि "ये लोग तो हैं ही ऐसे. इनके हर घर में आतंकवादी बनाए जाते हैं. जिहाद सिखाया जाता है. भारत के खिलाफ जहर भरा जाता है." वगैरह वगैरह. मुराद अली वकील हैं, उन्हें तक साजिशन इस केस में दोषी बनाने की कोशिश होती है. मुराद अली कहते हैं - "अब ये प्यार साबित कैसे किया जाता है, प्यार करके ही न." वो अपनी बहू आरती (तापसी पन्नू) से कहते हैं - "तुम साबित करो मेरा प्यार मेरे मुल्क के लिए, वरना मैं ये बहस हार जाऊंगा." 'मुल्क' ऐसी फिल्म है जिसकी अहमियत समय के साथ और भी ज्यादा बढ़ती जाएगी. दशकों बाद जब कुहांसा शायद और घना होगा तब ये फिल्म राह दिखाने का काम करेगी.
5. सुई धागा ~ (हस्तशिल्प)
डायरेक्टरः शरत कटारिया

"रोज़ डोगी बनाते हैं क्या आपको?" - ममता (मौजी से)
- ये कहानी मौजी (वरुण धवन) और ममता (अनुष्का शर्मा) की है जो देश के एक छोटे से कस्बे में रहते हैं जो कभी हस्तशिल्प के कारीगरों का गढ़ हुआ करता था लेकिन 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद से वे बर्बाद होते गए और छोटी-मोटी नौकरियों से सरवाइव किया या खत्म हो गए. मौजी के दादा भी ऐसे ही कारीगर थे लेकिन उसके पिता (रघुबीर यादव) को इस पेशे की तंगहाली से नफरत हो गई और किसी दफ्तर में चपरासी की नौकरी कर ली. मौजी भी एक सिलाई मशीन के शोरूम में काम करता है. मालिक का बेटा उससे कुत्ते की एक्टिंग करवाता है. ममता एक दिन देखती है और रोती है. अंत में उसे प्रेरित करती है कि कुछ खुद का काम करे. मौजी सिलाई मशीन फिर से थामता है. लेकिन दुश्वारियां बहुत हैं. ये फिल्म इस लिहाज से खास है कि मुख्यधारा के सिनेमा में भी उपेक्षित इस पेशे व ऐसे लोगों का प्रोत्साहन करती है. चाहे मौजी, ममता, मां, बाऊजी, भाई, भाभी, मुहल्ले के लोगों के पात्र हों या अस्पताल व गरीबों के लिए मुफ्त सिलाई वितरण आयोजन, सब जैसे प्रस्तुत किए गए हैं बिलकुल सच्चे लगते हैं. इन सबसे भी पहले 'सुई धागा' एक स्वस्थ मनोरंजन देने वाली फिल्म है.
6. स्त्री ~ (समानता)
डायरेक्टरः अमर कौशिक

"एक बार बता देते बस, और क्या." - विकी, अपने पिता से (कि इतने बरस क्यों नहीं बताया उसकी मां एक तवायफ थी.)
- 'सुई धागा' की तरह इस फिल्म का एक प्रमुख पात्र विकी (राजकुमार राव) दर्ज़ी है और चंदेरी में रहता है. उसके छोटे से शहर में हर साल एक मेला लगता है जिस दौरान माना जाता है कि एक चुड़ैल (स्त्री) आती है और पुरुषों को निर्वस्त्र करके अपने साथ ले जाती है. विकी इसमें यकीन नहीं करता. लेकिन तभी उसकी मुलाकात एक अनजान लड़की (श्रद्धा कपूर) से होती है. उसके दोस्तों का कहना है कि वो ही स्त्री है. और इसी दौरान शहर से पुरुष भी गायब होने शुरू हो जाते हैं. यहां तक कि विकी का एक दोस्त भी गायब हो जाता है. अब ये लोग उस स्त्री से कैसे बचते हैं और गायब हुए पुरुषों के साथ क्या होता है ये अंत में ज्ञात होता है. मामूली बजट में बनी और जोरदार कमाई करने वाली 'स्त्री' कोई बेहद जबरदस्त एंटरटेनर है, ऐसा नहीं है. जिस बात ने इसे इस साल की सबसे प्रमुख फिल्मों में ला खड़ा किया है वो है इसकी समझदारी. ये समझदारी दर्शकों के दिमाग की कई गांठों को खोलती है. कोई स्त्री अगर 'चुड़ैल' है तो उसे मारना ही समाज/फिल्मों का पहला कदम होता है. इस फिल्म का नायक चुड़ैल होने के बावजूद उस स्त्री का मारना नहीं चाहता. वो उसे कोई नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता. ये संवेदनशीलता इस काल्पनिक कहानी से बाहर निकलकर असल समाज में भी प्रसारित होती है. विकी के पात्र को जब बताया जाता है कि उसकी मां एक वेश्या थी, तो न सिर्फ वो बल्कि कहानी के सब पात्र और बाद में दर्शक भी उसे बड़ी सहजता से ले रहे होते हैं, ये बहुत ही अद्भुत परिघटना होती है. 'तुम्बाड' के अलावा 'स्त्री' भी इस बात से खुश कर जाती है कि हॉरर जॉनर की होने के बावजूद इनमें हॉरर वाले तत्वों को दो मजबूत संदेशों पर स्थित किया गया है. आमतौर पर हॉरर फिल्मों में मैसेजिंग को कोई स्पेस नहीं दिया जाता है. लेकिन इंडियन फिल्मों में ऐसा किया जाना, इस जॉनर को सम्मानजनक जगह दे जाता है. 'स्त्री' जैसी फिल्में हंसाते और डराते हुए कब ये बात दर्शक के अवचेतन में रिकॉर्ड कर जाती हैं पता नहीं चलता कि औरत ठोकर मारने, हिंसा करने या दोयम दर्जा दिया जाने वाला कोई जीव नहीं बल्कि पुरुष से भी श्रेष्ठ उपस्थिति है, पुरुष पैदा उसी से होता है, उसका जीवन उसी से मुकम्मल होता है और पुरुष उसकी रक्षा करने की स्थिति में नहीं होता, बल्कि उसके संरक्षण में रहकर ही बचा रह सकता है.
7. कारवां / 102 नॉट आउट ~ (मृत्यु)
डायरेक्टरः आकर्ष खुराना / उमेश शुक्ला

(1) "मेरे बहुत साल उन्हें figure out करने में लग गए और उनकी काफी उम्र मुझे जज करने में. फिर भी हम दोनों कभी एक दूसरे को समझ नहीं पाए. अजीब रिश्ता था हमारा. ज्यादा प्यार नहीं था हमारे बीच. पर कुछ बातें सिर्फ वक्त के साथ ही समझ आती हैं. और अब जब ये सब समझ आ ही गया है, (तब) साथ बिताने के लिए वक्त ही नहीं है." - अविनाश, अपने पिता की स्मृति सभा में. / (2) "याद रखना, जब तक जिंदा है तब तक मरना नहीं." - दत्तात्रेय वखारिया, अपने बेटे से कहते हैं (मरने से कुछ दिन पहले.)
- हल्के-फुल्के मनोरंजन से भरी ये दोनों ही फिल्में मृत्यु की थीम को टटोलती हैं. वो भी बहुत सरल तरीके से. ये थीम इसलिए बहुत आवश्यक है क्योंकि इंसान ने सिर्फ इतनी समझ बनाई है कि कोई मरे तो हमें रोना चाहिए. और वो न सिर्फ कष्टकारी होता है बल्कि अजागरूक भी. मौत नींद की तरह है. अगर उसको उसके सही स्वरूप में समझ लिया जाए तो जीवन आनंदभरी जगह हो सकती है, जहां इंसान अपनी कितनी ज्यादतियां, अन्याय, हिंसाएं बंद कर देगा. जीवन का हर फैसला लेते हुए उसे ज्ञात रहेगा कि मृत्यु के संदर्भ में असली फैसला क्या होना चाहिए. ये दोनों फिल्में मृत्यु को सुलझे हुए तरीके से डील करके वहां पहुंचती हैं कि जीना कैसे चाहिए. 'कारवां' अविनाश (दुलकर सलमान) नाम के एक लड़के की कहानी है जो बैंगलुरू में एक आईटी कंपनी में काम करता है और उसकी जिंदगी नीरस है. एक दिन उसे फोन आता है कि उसके पिता जिस बस से ट्रैवल कर रहे थे उसका एक्सीडेंट हो गया है और वो मर गए हैं. उनकी बॉडी भेजी जा रही है. अविनाश ये सुनकर रोता नहीं है, उसे रोना आता ही नहीं है. वजह ये कि वो अपने और अपने पिता के रिश्ते को समझ नहीं पाया जो उसे अंत में पता चलता है. खैर, कहानी ये है कि उसके पिता की बॉडी गलती से कोच्ची भेज दी जाती है और एक्सीडेंट में कोच्ची की जो महिला गुजर गई होती हैं, उनकी बॉडी अविनाश को. अब इन दोनों शवों का एक्सचेंज करने के लिए वो अपने दोस्त शौकत (इरफान) के साथ उसकी वैन में निकलता है. ये जर्नी उसके लिए जीवन बदलने वाला अनुभव बनती है. वहीं, '102 नॉट आउट' 102 साल के दत्तात्रेय वखारिया (अमिताभ बच्चन) के बारे में है जो अपने 76 साल के नीरस बेटे बाबू (ऋषि कपूर) को खुशनुमा इंसान बनाने के लिए उसके सामने तरह-तरह की शर्ते रखते हैं. पिता की अजीब हरकतों से तंग हो रहे बाबू वखारिया को जब पता चलता है कि उसके पिता ऐसा क्यों कर रहे हैं तो वो रोता है और जीवन जीना सीख जाता है.
8. राज़ी ~ ('दुश्मन देश')
डायरेक्टरः मेघना गुलजार

"दो गोलियों का इस्तेमाल कर लो सहमत. एक मेरे लिए, एक अपने लिए. दूसरा कोई रास्ता नहीं है." - इकबाल सईद, भारतीय गुप्तचर सहमत के पाकिस्तानी पति.
- 2019 में 'उड़ी' जैसी फिल्म आ रही है जिसमें सेना, शहादत और देशभक्ति का बाजारवादी दुरुपयोग नजर आता है जिसमें सैन्य किरदार से बुलवाया जाता है - 'हम घुसेंगे भी और मारेंगे भी.' वहीं इससे एक साल पहले 'राज़ी' जैसी फिल्म आती है जिसकी केंद्रीय पात्र सहमत खान बोलने के बजाय ऐसा करती है लेकिन फिर भी उसका पात्र हमें युद्ध-उन्मादी नहीं बनाता. वो पूंजीगत लक्ष्यों के लिए हमारा दुरुपयोग नहीं करता. आने वाला समय जैसी वॉर मूवीज़ और वित्तीय दबावों के अंदर बनने वाली फिल्मों को होगा, उस बीच 'राज़ी' का महत्व बहुत बढ़ जाएगा. स्पाई थ्रिलर होते हुए भी ये फिल्म इस जॉनर के टूल्स का इस्तेमाल बदमाशी से नहीं करती. इसमें छद्म-राष्ट्रवाद, युद्ध-उन्माद और शत्रु राष्ट्र जैसे परसेप्शन से दूरी रखी जाती है. 'राज़ी' एक असली महिला जासूस (आलिया भट्ट) की कहानी है जिसे भारतीय एजेंसी रॉ ने 1971 के दौर में पाकिस्तान भेजा था वहां से गोपनीय जानकारियां निकालकर इंडिया को भेजते रहने के लिए. उस युवती के पिता भी भारतीय जासूस थे और दादा स्वतंत्रता सेनानी. ये मासूम युवती सिर्फ अपनी विरासत, पिता की इच्छा और देश के प्रति प्यार के लिए बिना अपने भविष्य की सोचे हां कर देती है. उसकी शादी एक पाकिस्तानी ब्रिगेडियर के ऑफिसर बेटे इकबाल (विकी कौशल) से कर दी जाती है. वो पाकिस्तान जाती है. वहां जान बार-बार खतरे में डालकर गोपनीय सूचनाएं भारत भेजती है (उसकी सूचना से ही भारत अपने युद्धपोत आईएनएस विक्रांत को पाकिस्तानी हमले से बचा पाया). अपने ससुराल के लोगों की हत्या करती है और भारत लौटती है. लौटती है तो उसके पेट में अपने पाकिस्तानी सैन्य अधिकारी पति का बच्चा होता है. जो बाद में भारतीय सेना में भर्ती होता है. कहानी ऐसी होने के बाद भी जैसा फिल्म में इसका ट्रीटमेंट है और जैसी इसमें मानवीय संवेदना है वो अऩूठी है. ये उन दुर्लभ फिल्मों में से है जिसमें पाकिस्तानों पात्रों और भारतीय पात्रों के शेड्स में कोई फर्क नहीं है. पाकिस्तानी किरदारों को भी बेहद मानवीय ढंग से चित्रित किया गया है. सहमत को अपने देश की माटी से जितना जबरदस्त प्यार था, उतना ही इस बात का पछतावा कि उसके हाथों लोगों (पाकिस्तानी) की हत्याएं हुई.
9. अंधाधुन ~ (मनोरंजन)
डायरेक्टरः श्रीराम राघवन

"आइला, इसका तीसरा डोळा (आंख) है. मुरली, ये शंकर भगवान का अवतार है." - सकू (आकाश के बारे में.)
- ये कहानी पुणे में रहने वाले एक अंधे पियानो प्लेयर आकाश (आयुष्मान खुराना) की है. वो अकेला है. एक नियत लाइफ है उसकी. एक पियानो पीस तैयार करने में लगा हुआ है. एक दिन सोफी (राधिका आप्टे) नाम की लड़की गलती से अपनी स्कूटी से उसे टक्कर मार देती है. ये पहली मुलाकात होती है. फिर वो उसे एक क्लब ले जाती है जहां आकाश पियानो बजाने लगता है. एक दिन आकाश एक पूर्व-बॉलीवुड एक्टर प्रमोद सिन्हा (अनिल धवन) के घर जाता है और जहां उनकी लाश पड़ी होती है. आकाश को पता है मर्डर किसने किया है. अब यहीं से नए-नए मोड़ आते हैं और दर्शकों की सांसें थमती जाती हैं. कहानी में एक प्रमुख पात्र प्रमोद की पत्नी सिमी (तबु) का भी होता है. इस साल की फिल्मों में 'बधाई हो' की तरह 'अंधाधुन' सबसे सक्षम एंटरटेनमेंट वाली फिल्म है. इसमें सबसे प्रमुख गुण यही है. ये एक ब्लैक कॉमेडी और क्राइम थ्रिलर है और अपने इस जॉनर में ये फिल्म पूरी तरह संतुष्ट करती है. लेकिन 'अंधाधुन' में अच्छा ये भी लगता है सकू (छाया कदम) और सिमी के बुरे काम करने के बावजूद फिल्म में उनको न तो जज किया जाता है, न ही वे दोनों 'खराब स्त्री' के तौर पर चित्रित की जाती हैं. यहां तक कि सिमी जिस आकाश को जान से मारने पर तुली है, उसे मारने या नुकसान पहुंचाने को आकाश कभी तैयार नहीं होता, दर्शकों में छवि-निर्माण के लिहाज से ये बहुत ही स्वस्थ स्टोरीटेलिंग होती है. इस जॉनर में ऐसा संयम और जिम्मेदारी का भाव दुर्लभ है.
10. अक्टूबर ~ (प्रेम)
डायरेक्टरः शुजीत सरकार

"तुम्हारे अंकल को ना, जंगल में रखना चइये. एकदम बंदर है वो. पेशेंस है ही नहीं. थोड़े दिन अगर बॉडी को काम नहीं करना है, कोई बात नी. ले लो मशीन की हेल्प. कई बार मेरी बाइक स्टार्ट नहीं होती, तो दौड़ा के मैं धक्का दे देता हूं. स्टार्ट हो जाती है. वैंटीलेटर भी तो धक्का इ है. खा लो थोड़े दिन. अराम से तो लेटी हो." - डैन (शिवली से.)
- अपने जमाने में हमने जो भी चालाकियां और व्यावहारिकताएं सीखी हैं, ये फिल्म उनसे परे की एक कहानी कहती है. कहानी डैन की जो दिल्ली के एक होटल में मैनेजमेंट इंटर्न है. मुंहफट है. संस्थान के भय से ज्यादा उस पर उसकी मुखरता हावी है. कहने को कह सकते हैं कि वो अनुशासित नहीं है और उसकी अपने साथ के किसी इंटर्न से बनती नहीं है. लेकिन ये देखने का एक कमजोर तरीका है. असल में वो शातिर, चालक और स्वार्थी नहीं है जो आगे बढ़ने के लिए कुछ भी करेगा. वो अंदर से आजाद है, भले ही होटल मैनेजमेंट के काम में उसका पैशन होगा और वो उसमें अच्छा भी होगा लेकिन इस पेशे के साथ जो समझौते आते हैं वो उनके लिए नहीं बना. ख़ैर, उसी के साथ इंटर्नशिप करती है एक 'काबिल' लड़की शिवली. एक दिन शिवली के साथ ऐसी दुर्घटना होती है कि वो कोमा में चली जाती है. डैन को बाद में पता चलता है. वो साथी होने के नाते चला जाता है अस्पताल में मिलने. लेकिन फिर वो रोज़ जाने लगता है जब उसे पता चलता है कि एक्सीडेंट से पहले शिवली के मुंह से जो आखिरी शब्द निकले थे वो थे - "डैन कहां है?" डैन इससे बहुत कौतुहल में तो आता ही है, बल्कि उसका शिवली से एक किस्म का संबंध भी स्थापित हो जाता है. जब कोमा में पड़ी शिवली के अस्पताल के खर्चे और डॉक्टरों के हाथ खड़े कर देने के बाद उसकी कॉलेज प्रोफेसर मां (गीतांजलि राव) भी उम्मीद छोड़ देती है तो डैन अपनी सरल बातों से उनकी सोच बदल देता है. ये कहानी आगे भी ऐसे रिश्ते की होती है जहां कोई शारीरिकता नहीं होती, न कोई प्राप्ति होती है, लेकिन प्रेम/प्यार होता है. इस फिल्म की तासीर हमारे अंदर के शोर को कम करती है. हम पर से स्वार्थी होने का दबाव भी कम होता है. जीवन में आई बड़ी ट्रैजेडी जब शिवली का मां को फेस करते देखते हैं तो हमें अपनी पीड़ाएं कम लगने लगती हैं. 'कारवां' और '102 नॉट आउट' की तरह 'अक्टूबर' भी मृत्यु के विषय का सामना करती है. करती बेसिक लेवल पर ही है लेकिन उसमें शोक से ज्यादा वो उम्मीद है, जहां परम नींद में सो गए साथी की यादों को साथ लेकर हम सहज होकर आगे बढ़ जाते हैं.
11. काला - मूलतः तमिल फिल्म लेकिन हिंदी में भी रिलीज हुई. वंचित तबके के सशक्तिकरण की बात करने वाली. राम और रावण, अच्छे और बुरे, काले और सफेद की मुख्यधारा में रेयर विवेचना करती हुई. बेहद महत्वपूर्ण फिल्म.
12. लैला मजनूं - कोई इंसान क्यों दीवाना हो जाता है किसी अमूर्त के ख़याल में. या आखिर वो अपने ज़ेहन में ऐसे कौन से स्पेस पर पहुंच जाता है जहां उसे संसार या उसकी किसी औपचारिकता की जरूरत नहीं रहती. वो अपने अंदर की यात्रा पूरी कर लेता है. 'लैला मजनूं' ऐसे दर्शन को एक्सप्लोर करने वाले फिल्म है जो सिनेमाई लिहाज से यूं आजमा सकना कठिन काम है.
13. रेड - इनकम टैक्स अधिकारियों के एक ऐतिहासिक छापे की ये दिलचस्प कहानी वहां बहुत इम्प्रेस करती है जहां अजय देवगन का अधिकारी पात्र छापेमारी के दौरान सरकारी नियमों को पढ़कर सुनाता है और अंत तक उनका पालन करता है. उसके व्यवहार में किसी किस्म का अहंकार या हिंसा नहीं है जो बहुत आश्वस्त करने वाला था.
14. धड़क - भले ही ये 'सैराट' का करण जौहर के बैनर वाला शाइनी वर्जन था, लेकिन फिर भी ये कहानी इतनी अधिक महत्वपूर्ण है कि इसे हतोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए.
15. पटाखा - इस फिल्म जैसा माहौल, कठोरता और इसे देखते समय होने वाली असहजता आवश्यक थी. पहले कभी कोई ऐसी हिंदी फिल्म देखी है याद नहीं आता. इसके अलावा दो निरंतर लड़ने वाली बहनों के रिश्ते का जो अर्थ हम अंत में समझते हैं उसे भारत-पाकिस्तान रिश्ते के मुकाबले देखकर समझें तो और भी अच्छा हो.
16. यूनियन लीडर - एक कैमिकल प्लांट में काम करने वाले कामगारों की ये यथार्थपरक कहानी जरूर देखी जानी चाहिए. साउथ की करोड़ों के बजट वाली, मेगास्टार्स युक्त चमचमाती फिल्मों में किसानों, कामगारों, मजदूरों के हकों के लिए लड़ते नायक दिखाए जाते हैं लेकिन वो कहानियां वास्तविक होकर भी हमारे लिए काल्पनिक ही साबित होती है और वहां हीरो की अमानवीय शक्तियां हम इंसानों के लिए कोई व्यावहारिक उपाय नहीं दे जाती. 'यूनियन लीडर' में वो सब खतरे हैं जो न्याय के लिए लड़ने वालों को होते हैं, और उसका सामना करते मजदूर भी हैं.
17. मंटो - विभाजन की त्रासदी पर 'टोबा टेक सिंह' जैसी बेमिसाल कहानी लिखने वाले सआदत हसन मंटो से अपूर्ण तरीके से ही सही, हमारा परिचय करवाती है. जो उन्हें नहीं जानते वो फिल्म में उनको देखते हुए चौंकते हैं. कि क्या वाकई ऐसा पात्र इतने दशक पहले हुआ था? जरूरी फिल्म.
18. 2.0 - बहुत सारे शोर, फिजूल के हिंसक एक्शन दृश्यों की वजह से ये फिल्म जितनी बुरी है, अपने मूल कॉन्सेप्ट की वजह से उतनी ही अहम भी. कॉन्सेप्ट ये कि इतने सारे सेलफोन टावर्स की किरणों की वजह से पक्षी मर रहे हैं और पर्यावरण जानलेवा होता जा रहा है. इस फिल्म के बहाने पर्यावरण और प्रकृति जैसा विषय विमर्श में आता है.
(* 'गली गुलियां' और 'लव सोनिया' नहीं देखीं इसलिए उन पर कोई निर्णय नहीं.)