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रामपुर तिराहा कांड: इंसाफ दिलाने के नाम पर कई नेता CM बन गए, फैसला आने में 30 साल लगे

रामपुर तिराहा कांड ने पूरे सूबे को दहला दिया था. 15 साल में उत्तराखंड ने 8 मुख्यमंत्री देखे, सब इस मसले को वोट की नज़र से देखते थे. अब जाकर मामले में फ़ैसला आया है.

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rampur tiraha kand
जब कोर्ट ने सज़ा सुनाई, दोनों दोषी सिपाही कोर्ट में मौजूद थे. (फ़ोटो - सोशल)
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सोम शेखर
19 मार्च 2024 (Published: 04:49 PM IST) कॉमेंट्स
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रामपुर तिराहा कांड. तीस साल पहले घटी इस घटना (Rampur Tiraha Kand) ने पूरे सूबे को दहला दिया था. पुलिस की गोलियों से लोग मारे गए, कथित तौर पर कुछ लाशों को खेत में दबा दिया गया, औरतों का बलात्कार किया गया. तब के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) जनता के विलन बन गए थे. अब इस केस में फ़ैसला आया है. सोमवार, 18 मार्च को मुज़फ़्फ़रनगर के अतिरिक्त ज़िला न्यायाधीश (ADJ) की अदालत ने एक महिला प्रदर्शनकारी के बलात्कार और लूटपाट के जुर्म में दो पूर्व पीएसी हवलदारों को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई है.

मुज़फ़्फ़रनगर के अतिरिक्त ज़िला सरकारी वकील (ADGC) प्रवेंद्र कुमार ने मीडिया को बताया कि अदालत ने रिटायर्ड कॉन्स्टेबलों - मिलाप सिंह और वीरेंद्र प्रताप - को दोषी ठहराया है. उन दोनों पर 50 हज़ार रुपये का ज़ुर्माना लगाया गया है और उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा काटने के लिए जेल भेज दिया गया है.

दोनों दोषी कॉन्स्टेबल PAC की 41वीं बटालियन में तैनात थे, जो घटना के समय ग़ाज़ियाबाद में कैंप कर रहे थे.

बात वहां तक पहुंची कैसी?

1990 में मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों के लागू होने के बाद राजनीति और पब्लिक विमर्श दो ख़ेमों में बट गए थे. देश की युवा पीढ़ी में तनाव पसरा हुआ था. सरकारी नौकरी किसको मिलेगी, किसको नहीं, ऐसी ही तमाम बातें फ़िज़ा में तैर रही थीं. हालांकि, पार्टियों ने मंडल का ख़ूब फ़ायदा उठाया. किसी ने पक्ष पकड़ कर अपनी राजनीति चमकाई, किसी ने सिफ़ारिशों का विरोध कर बाड़बंदी की. उसी समय अपनी अलग पार्टी बना रहे मुलायम सिंह यादव अपने वोट बैंक को लुभाने के लिए ओबीसी रिज़र्वेशन को हर हाल में लागू करने के पक्ष में थे. यानी मंडल के पक्ष में थे.

मंडल लागू होने से एक साल पहले ही उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियों के लिए 15 प्रतिशत रिज़र्वेशन लागू किया गया था. मंडल आने के बाद ये सीमा बढ़ा कर 27 प्रतिशत कर दी गई. इस आरक्षण ने यूपी के पहाड़ी हिस्से के लोगों में अलग राज्य (उत्तराखंड) की मांग को तेज़ कर दिया. उन्हें लग रहा था कि OBC रिज़र्वेशन के चलते उनकी नौकरियों पर मैदानी इलाक़ों के लोग कब्ज़ा कर लेंगे.

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दी लल्लनटॉप ने उस वक़्त के एक आंदोलनकारी से बात की, तो उन्होंने बताया,

सबको लग रहा था कि हमारी नौकरियों पर बाहरवाले आकर कब्ज़ा कर लेंगे. गढ़वाली तो फ़ौज और पुलिस में ही भर्ती होना जानता है. वो भी छिन जाएगा, फिर बचेगा क्या? उस समय देश के आर्मी जनरल तक पहाड़ से थे. फ़ौज से ही आए भुवनचंद्र खंडूरी ने हम लोगों को इकट्ठा किया. और भी नेता थे, जिन्होंने भरोसा दिलवाया कि अलग राज्य के बिना पहाड़ियों का गुज़ारा नहीं.

उत्तराखंड के लिए प्रदर्शन करती महिलाएं. (फ़ोटो - आर्काइव)
उस दिन क्या हुआ था?

साल, 1994. तारीख़, 2 अक्टूबर. जगह, पश्चिमी उत्तर प्रदेश का मुज़फ़्फ़रनगर. उत्तराखंड की मांग कर रहे आंदोलनकारियों ने तय किया था कि दिल्ली जा कर प्रदर्शन करेंगे. इनको रोकने के लिए प्रदेश सरकार ने रास्ते में नाकेबंदी कर दी. मुज़फ़्फ़रनगर के रामपुर तिराहे पर पुलिस और PAC की पूरी छावनी बनी हुई थी.

आगे की कहानी चश्मदीद की बयानी. रामपुर तिराहे पर मौजूद एक आंदोलनकारी ने मंज़र खींचा -

200 से ज़्यादा बसें रामपुर तिराहे पर पहुंचीं. लोग फ़ैज से छुट्टी लेकर आए थे, ट्रेड यूनियनों के पूरे जत्थे आए थे, महिलाएं साथ में थीं. उधर जितने जवान वर्दी में मौजूद थे, उससे कहीं ज़्यादा लोग उनकी तरफ़ से सादे कपड़ो में भी थे. जब आगे जाने से रोका गया, तो पब्लिक भड़की और पत्थरबाज़ी शुरू हुई. दूसरी तरफ़ से लाठीचार्ज हुआ, गोलियां चलीं. कुछ पुलिसकर्मियों ने एक बस की खिड़की के शीशे तोड़े, चढ़ कर पहले सवार लोगों को गालियां दीं. इस बीच, दो पीएसी कॉन्स्टेबलों ने एक महिला प्रदर्शनकारी से सोने की चेन और कुछ पैसे लूट लिए. महिलाओं के साथ जो अभद्रता आप सोच सकते हैं, वो सब हुई.

रात में पुलिस उस तरफ़ जाने वाली गाड़ियों पर गोलियां-लाठियां बरसा रही थी. गाड़ियां जला दी गईं. वहां के लोगों ने हमारी मदद की, रहने को जगह और खाना दिया. मुज़फ़्फ़रनगर के लोग अगर मदद नहीं करते तो मरने वालों की गिनती और ज़्यादा होती.

अगले दिन का अख़बार (फ़ोटो - merapahad.com)

- FIR में लिखा गया कि आंदोलनकारियों ने दुकानें और गाड़ियां जला दीं. इसके बाद वहां मौजूद अधिकारियों को फ़ायरिंग का आदेश देना पड़ा. 6 लोगों की मौक़े पर ही मौत हो गई. 1,500 प्रदर्शनकारियों के खिलाफ मामले दर्ज किए गए थे. बाद में, बलात्कार, लूट, सबूतों को विकृत करने आदि के आरोप में पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ कुल सात मामले भी दर्ज किए गए.

- 1995 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश पर CBI जांच का आदेश दिया. इनमें सरकार बनाम राधा मोहन द्विवेदी (बलात्कार), सरकार बनाम बृज किशोर (हथियार रखना), सरकार बनाम एसपी मिश्रा (प्रदर्शनकारियों के शवों को ठिकाने लगाना), सरकार बनाम मोती सिंह और सरकार बनाम राजबीर सिंह (पुलिस रिकॉर्ड के साथ छेड़छाड़) के दो मामले शामिल हैं.

- मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने रिटायर्ड जस्टिस ज़हीर हसन से इसकी जांच करवाई. जांच में कहा गया कि मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए बल प्रयोग किया, जो बिल्कुल सही था. 'रबर बुलेट' फायर किए गए थे, जिससे अनावश्यक रूप से कुछ प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई.

- 2000 में उत्तराखंड एक अलग राज्य बन गया, लोगों को लगा कि इसके बाद राज्य की सरकार दोषी पुलिसवालों पर सख़्ती से कार्रवाई करेगी. 2003 में उत्तराखंड हाईकोर्ट ने 1994 के मुज़फ़्फ़रनगर ज़िलाधिकारी अनंत कुमार सिंह को नामज़द किया. जनता पर गोली चलाने का दोषी मानते हुए एक पुलिसवाले को सात साल और दो पुलिसवालों को दो साल की सज़ा सुनाई.

- 2007 में CBI कोर्ट ने SP राजेंद्रपाल सिंह को बरी कर दिया. सिंह को उत्तर प्रदेश सरकार का पूरा सहयोग मिला.

- 2007 में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भुवनचंद्र खंडूरी रामपुर तिराहा गए. वहां घोषणा की, सभी पेंडिंग केस पूरी शिद्दत से लड़े जाएंगे. इस घोषणा के बाद कुछ ख़ास बदलाव हुआ हो, इसकी कोई जानकारी पब्लिक में तो उपलब्ध नहीं है.

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सरकार की इस नज़रअंदाज़ी पर स्थानीय लोगों में ग़ुस्सा है. वो कहते हैं,

खंडूरी, बहुगुणा और रावत... सब इस कांड का नाम लेकर मुख्यमंत्री बन गए. 15 साल में उत्तराखंड ने 8 मुख्यमंत्री देखे, और राज्य 20 साल और पीछे चला गया. जितने पुलिस वाले दोषी थे, उन्हें सज़ा तो दूर उल्टा प्रमोशन दिए गए. बीजेपी राज्य बनाने का श्रेय ले लेती है, लेकिन आरोपी डीएम को उन्हीं की सरकार ने निजी सचिव बनाया. SP से लेकर हवलदार का कुछ नहीं बिगड़ा. पुरानी पीढ़ी अभी भी ग़ुस्सा है. नए लोगों के लिए तो ये एक बोरिंग रस्म अदायगी बनकर रह गई है.

अब जाकर ये मामला किसी अंजाम तक पहुंचा है. ADJ शक्ति सिंह की अदालत ने रिटायर्ड कॉन्स्टेबल मिलाप सिंह और वीरेंद्र प्रताप को भारतीय दंड संहिता की धारा 354, 376 (2) (जी), 392 और 509 के तहत दोषी ठहराया है. कोर्ट ने सज़ा सुनाते हुए रामपुर तिराहा कांड की तुलना जलियांवाला बाग कांड से की और दोषी सिपाहियों के प्रति किसी भी तरह की सहानुभूति से इनकार कर दिया.

जिन सात मामलों की CBI जांच हुई थी, उनमें मोती सिंह और राजबीर की मौत हो गई. उनके ख़िलाफ़ मामले बंद कर दिए गए. फ़िलहाल चार मामलों की सुनवाई चल रही है, जिसमें कोर्ट ने मिलाप सिंह और वीरेंद्र प्रताप को दोषी क़रार दिया है. 

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