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संजय दत्त आतंकवादी थे क्या? हां और नहीं

राजदीप सरदेसाई ने बताया उन दिनों का मुंबई.

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विशाल
10 जुलाई 2018 (Updated: 9 जुलाई 2018, 05:18 AM IST) कॉमेंट्स
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सिनेमा और राजनीति में एक समानता ये है कि दोनों में अभिव्यक्तियां ओपेन-एंडेड होती हैं. किसी फिल्म का क्या मेसेज है और किसी नेता के बयान का क्या मतलब है, ये देखने-सुनने वाले पर निर्भर करता है. इस नज़रिए से 'संजू' एक चालाक फिल्म है. 'संजय दत्त आतंकवादी हैं/थे या नहीं', फिल्म इस सवाल का जवाब नहीं देती. आप पर छोड़ देती है. पर कमाल की बात ये है कि ये सवाल वाकई पेचीदा है.

अब देखिए न, सीनियर जर्नलिस्ट राजदीप सरदेसाई ने 9 जुलाई को एक ब्लॉग लिखा- THE MUMBAI STORY THAT MUST BE TOLD. इस ब्लॉग में राजदीप याद करते हैं कि साल 1992-93 में जब वो मुंबई में दि टाइम्स ऑफ इंडिया के सिटी एडिटर थे, तब वो शहर कितने ड्रमैटिक तरीके से बदल रहा था. राजदीप ने पहले मुंबई दंगे कवर किए और फिर मुंबई ब्लास्ट्स. उनके मुताबिक इन दोनों घटनाओं ने मुंबई के कॉस्मोपॉलिटिन चोले को नोंचकर फेंक दिया था.


राजदीप सरदेसाई
राजदीप सरदेसाई

राजदीप याद करते हैं कि मार्च 1993 की एक शाम उनके एक रिपोर्टर के पास उसके किसी सोर्स का फोन आया. ये सोर्स पुलिस कमिश्नर ऑफिस में बैठता था. उसने बताया कि मुंबई ब्लास्ट्स केस में बॉलीवुड का कोई बड़ा नाम फंस सकता है. उसने अगले दिन और जानकारी देने का वादा किया. चूंकि वो ब्रेकिंग न्यूज़ का दौर नहीं था, इसलिए राजदीप को इस खबर की पुष्टि के लिए एक दिन खर्च करना ठीक लगा. पर अगली ही सुबह टैब्लॉयड 'दि डेली' में रिपोर्टर बलजीत परमार के हवाले से संजय दत्त और मुंबई ब्लास्ट का कथित संबंध छपा हुआ था.

राजदीप ये खबर ब्रेक तो नहीं कर पाए, पर फॉलोअप के लिए तैयार थे. अगले दिन जब वो रेज़िडेंट एडीटर डेरेल डि-मॉन्टे के साथ अखबार की प्लानिंग कर रहे थे, तभी उनके दफ्तर में सुनील दत्त का फोन आया. उन्होंने कहा, 'मैं उम्मीद करता हूं कि आप लोग संजय के साथ गलत नहीं करेंगे. वो बुरा इंसान नहीं है.' ये वो वक्त था, जब दत्त साहब मुंबई नॉर्थ-वेस्ट से कांग्रेस के सांसद थे. दत्त और डेरेल एक-दूसरे को जानते थे, लेकिन दत्त ने पहले कभी उनसे ऐसा कोई आग्रह नहीं किया था. पर जैसे ही संजय के AK-56 रखने की बात सामने आई, ये खबर बड़ी हो गई. मॉरीशस में शूटिंग कर रहे संजय को वापस आना पड़ा और आते ही उन्हें अरेस्ट कर लिया गया.


संजय दत्त के किरदार में रणबीर कपूर
संजय दत्त के किरदार में रणबीर कपूर

जिस दिन संजय को अरेस्ट किया गया, उस दिन फिर दत्त साहब का फोन आया और इस बार उन्होंने पर्सनली मिलने के लिए कहा. राजदीप और दत्त साहब ओबेरॉय कॉफी हाउस में मिले, जहां सुनील ने अपने बेटे की कहानी सुनाई. राजदीप याद करते हैं कि कुछेक मौकों पर तो उनका गला भी रुंध गया था. आखिर में उन्होंने कहा, 'मेरे बेटे ने गलतियां की होगीं, पर वो बुरा इंसान नहीं है.'

राजदीप बताते हैं कि पिछले सप्ताह जब वो अपने बच्चों के साथ 'संजू' देख रहे थे, तब उन्हें कई बार दत्त साहब की याद आई. फर्क पर इतना था कि इस बार संजय की कहानी सुनाने वाले शख्स राजू हीरानी हैं. पर राजू ने संजय वो विलेन नहीं, पीड़ित दिखाने की कोशिश की है, जिसे लोगों की आलोचना नहीं, सहानुभूति चाहिए. हीरानी के दिखाए मुताबिक संजय पर आतंकी का ठप्पा मीडिया ने लगाया. और वो संजय के साथ वो काम करने की कोशिश करते हैं, जो दत्त साहब नहीं कर पाए- 'आम लोगों के बीच संजय को दोबारा स्थापित करना'.


संजय और उनकी पत्नी मान्यता के साथ राजकुमार हीरानी (शर्ट में चश्मा फंसाए)
संजय और उनकी पत्नी मान्यता के साथ राजकुमार हीरानी (शर्ट में चश्मा फंसाए)

पर सबसे मज़ेदार ये है कि जब राजदीप की 21 साल की बेटी, जो 1993 में पैदा भी नहीं हुई थी, उनसे पूछती है कि क्या संजय दत्त वाकई आतंकी थे या नहीं, तो राजदीप जवाब देते हैं, 'हां और नहीं'. राजदीप कहते हैं कि सही और गलत के बीच बंटी इस दुनिया में उनके जवाब को ग्रे कहा जा सकता है, लेकिन ऐसा है नहीं. अब उनके पास फिल्म बनाने की लग्ज़री तो है नहीं, लेकिन एक पत्रकार की याद्दाश्त ज़रूर है, जिसे याद है कि 1992-93 में मुंबई में क्या हो रहा था. 'संजू' में जिस तरह मीडिया को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है, उसके बाद पूरा माजरा समझन के लिए आपको राजदीप के इन 10 किस्सों के पास जाना चाहिए.



#1. मुंबई दंगे और धमाकों की जांच कर रहे कमीशन के मुखिया जस्टिस बीएन श्रीकृष्ण ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि ये धमाके दिसंबर 1992 में अयोध्या में हुए बाबरी विध्वंस और फिर मुंबई में हुए दंगों की प्रतिक्रिया थे. यानी अगर मुंबई में दंगा न होता, तो फिर ब्लास्ट नहीं होते. उससे भी पहले अगर 500 साल पहले बनी वो मस्ज़िद न गिराई जाती, तो धमाके नहीं होते. एक के बाद एक हादसे से क्रिमिनल ऐक्ट्स की पूरी कतार बन गई.


बाबरी विध्वंस से पहले की एक तस्वीर
बाबरी विध्वंस से पहले की एक तस्वीर

#2. मुंबई में दो सांप्रदायिक दंगे हुए. श्रीकृष्ण के शब्दों में पहले वाले तो 'स्वत:स्फूर्त' थे, क्योंकि मुस्लिम बाबरी मस्ज़िद गिराए जाने का विरोध कर रहे थे. इसमें करीब 48 घंटे बाद शिवसैनिक भी शामिल हो गए थे, लेकिन शुरुआती मसला मुस्लिमों और पुलिस के बीच का था. दूसरी बार जो दंगे शुरू हुए, वो मामला कॉम्प्लेक्स है. इसकी शुरुआत जोगेश्वरी झुग्गी में एक मराठी हिंदू परिवार को जलाए जाने से हुई थी. इसके बाद लगातार छोटी-बड़ी घटनाएं होती रहीं, जिनमें सेंट्रल मुंबई के मज़दूर मारे गए और इस पूरे घटनाक्रम को जान-बूझकर सांप्रदायिकता भड़काने के तौर पर देखा गया. शिवसेना की आक्रमकता और बाल ठाकरे के ज्वलंत भाषण ने माहौल और खराब कर दिया.


बाल ठाकरे, संजय दत्त और सुनील दत्त (बाएं से दाएं)
बाल ठाकरे, संजय दत्त और सुनील दत्त (बाएं से दाएं)

#3. दूसरे दौर के दंगों में मुंबई का अंडरवर्ल्ड भी शामिल था, जो दिसंबर 1992 तक सेक्युलर हुआ करता था. दाऊद गैंग में हिंदू-मुस्लिम दोनों थे. उसकी गैंग में भाई ठाकुर जैसे लोग भी थे. भाई ठाकुर का भाई हितेंद्र ठाकुर नेता था, जिसने निर्दलीय जीतकर कांग्रेस को सपोर्ट किया था. यानी तब अपराध और राजनीति एक-दूसरे के करीब आ चुके थे. लेकिन जनवरी 1993 तक दाऊद गैंग हिंदू-मुस्लिम में बंट गया और पूरी गैंग मुस्लिम हो गई. दूसरे दौर के दंगे और 1993 के धमाकों के वक्त दाऊद गैंग में सभी मुस्लिम थे. तो साफ है कि 1992-93 के दंगों ने अंडरवर्ल्ड को सांप्रदायिक भी बना दिया. ऐसे में लड़ाई दाऊद-गवली की हो रही थी, लेकिन भुगतने वाली आम जनता थी.


दाऊद इब्राहिम
दाऊद इब्राहिम

#4. दिसंबर 1992 से पहले दाऊद गैंगस्टर और स्मगलर था, जिससे लोग डरते थे. लेकिन वो मुंबई और इंडिया से काफी कनेक्टेड था. तब तक दाऊद पर पाकिस्तानी और ISI एजेंट होने के आरोप नहीं लगे थे. यहां तक कि उस दौर के क्रिकेटर आपको बताएंगे कि अक्टूबर 1991 में जब दाऊद शारजाह में बैठा इंडिया-पाकिस्तान का मैच देख रहा था, तब वो इंडिया को जिता रहा था. लेकिन 1992-93 के बाद वो RDX इस्तेमाल करने वाला पाकिस्तानी एजेंट बना दिया गया. जबकि उसकी के राइट हैंड टाइगर मेमन का भाई याकूब मेमन अपने एक हिंदू पार्टनर के साथ मिलकर अच्छी-खासी CA फर्म चला रहा था. 1993 के धमाकों को भयानक 'मुस्लिम' क्रिमिनल कॉन्सिपिरेसी बताया जाता है, लेकिन इसकी जड़ें दिसंबर 1992 में धंसी हैं.


स्टेडियम में दाऊद इब्राहिम
स्टेडियम में दाऊद इब्राहिम

#5. 90 के दशक की शुरुआत में फिल्म इंडस्ट्री के लोग भी दुबई में होने वाली दाऊद की पार्टियों का हिस्सा होते थे. फिल्म स्टार्स के साथ नेटवर्किंग का काम दाऊद के भाई अनीस के जिम्मे था. ये वो दौर था, जब ज़्यादातर फिल्मों में अंडरवर्ल्ड का पैसा लगा होता था और फिल्मों के प्रड्यूसर्स दुबई से इजाज़त लेते थे कि फिल्म में किस स्टार को लिया जाएगा. मैग्नम वीडियोज़ के समीर हिंगोरा और हनीफ कड़ावाला भी ऐसे ही प्रड्यूसर थे. इन्होंने 'सनम' फिल्म में संजय दत्त को साइन किया था, जिसकी शूटिंग दंगों के वक्त ही होनी थी. इसके एक साल बाद 'यलगार' फिल्म की मेकिंग के दौरान फिरोज खान ने दुबई में संजय को पहली बार दाऊद इब्राहिम से मिलवाया. संजय को दाऊद के सर्किल में वैसे ही लाया गया, जैसे बॉलीवुड के दूसरे लोगों को लाया जाता था. इंडस्ट्री के लोगों के लिए डॉन से रिश्ता रखना आर्थिक ज़रूरत और सामाजिक ज़िम्मेदारी, दोनों थे.


फिरोज़ खान और संजय दत्त
फिरोज़ खान और संजय दत्त

#6. 1993 दंगों के बाद भी संजय लगातार अंडरवर्ल्ड के टच में बने रहे और अपना पर्सनल कनेक्शन भी डिवेलप कर लिया. जनवरी 1993 में संजय ने परिवार की सुरक्षा के लिए उन लोगों से मदद भी मांगी थी. संजय के इकबालिया बयान के मुताबिक उनके प्रड्यूसर सलीम और हनीफ ने उन्हें AK-56 ऑफर की थी, जो सलेम नाम के किसी आदमी ने डिविवर की थी. अब पता नहीं कि संजय खुद बंदूक रखना चाहते थे या उन्हें रखने के लिए पुश किया गया था, लेकिन इस पर यकीन करना मुश्किल है कि संजय को सलेम के अंडरवर्ल्ड लिंक्स के बारे में पता न हो. संजय को भले मार्च 1993 ब्लास्ट के प्लॉट की पूरी जानकारी न हो, लेकिन संजय के ये षड़यंत्र रचने वालों से संबंध थे. संजय में भले बचपना रहा हो, पर वो इतने भोले भी नहीं थे कि उन्हें अपने आसपास के लोगों के कारनामों का अंदाज़ा न हो.


अबू सलेम.
अबू सलेम.

#7. ये सच है कि सुनील दत्त को उनकी समाजसेवा वाले कामों की वजह से धमकियां मिलती थीं और उन्हें 'मुस्लिमों का तरफदार' कहा गया. तब इंटरनेट नहीं था, लेकिन फोन पर धमकियां आती थीं. ऊपर से दत्त साहब महाराष्ट्र की राजनीति में किसी का कैंप का भी हिस्सा नहीं थे. उनकी जान को खतरा था, पर उसी समय एक पूरा का पूरा शहर सांप्रदायिक दंगों से जूझ रहा था. ऐसे में AK-56 रखना और फिर खुलासा होने पर उसे नष्ट कराने की कोशिश करना किसी क्रिमिनल केस का डिफेंस नहीं हो सकता.


पिता सुनील दत्त के साथ संजय दत्त
पिता सुनील दत्त के साथ संजय दत्त

#8. 1992-93 में महाराष्ट्र में कांग्रेस उतर रही थी और शिवसेना शबाब पर थी. ठाकरे 1960 से राजनीति में थे, लेकिन उन्हें जितना माइलेज सांप्रदायिक दंगों से मिला, उसका किसी और चीज़ से नहीं. फिर जब बीजेपी-शिवसेना का गठबंधन हो गया, तो श्रीकृष्ण रिपोर्ट भी ठिकाने लग गई. इस रिपोर्ट के मुताबिक शिवसैनिक भी दंगों में शामिल थे. राजदीप के साथ एक इंटरव्यू में शिवसेना के नेता प्रमोद नवलकर स्वीकारते हैं कि हां, हिंदुओं की रक्षा में शिवसैनिक शामिल थे. लेकिन आखिर में शिवसेना के महज़ एक नेता को ही सज़ा हुई और फिर जल्द ही बेल भी मिल गई. राजदीप लिखते हैं कि मुंबई के दंगों को आज़ादी के बाद देश में हुए दंगों की तरह ट्रीट किया गया, जिसमें सारे बड़े खिलाड़ी बच गए और छोटी मछलियां मारी गईं.


अटल बिहारी और बाल ठाकरे
अटल बिहारी और बाल ठाकरे

#9. सरकार आतंकवाद की क्या परिभाषा मानती है, ये बताने की पहली कोशिश का नतीजा है टाडा. ये कानून 1987 में पंजाब में बढ़ रहे आतंकवाद के मद्देनज़र लाया गया था. एक तरह इसे देश के लिए बेहद ज़रूरी बताया जा रहा था, लेकिन मानवाधिकार वाले इसका विरोध कर रहे थे. जब इसके दुरुपयोग की खबरें आईं, तो मानवाधिकार वाले अपनी बौद्धिक लड़ाई जीत गए. मई 1995 में टाडा को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. लेकिन जिन मामलों में ये पहले से लगा हुआ था, उसमें ये जस का तस रहा. राजदीप लिखते हैं कि अगर मुंबई धमाके 1987 से पहले या 1995 के बाद में होते, तो काफी मुमकिन था कि संजय दत्त सिर्फ आर्म्स ऐक्ट में सज़ा पाकर बच जाते. लेकिन मुंबई धमाके टाडा की कैटेगरी में फिट होने वाला बड़ा केस था और संजय के नाम के साथ AK-56 जुड़ ही चुकी थी. ऐसे में टाडा के नियमों के तहत संजू को ज़मानत मिलना बहुत मुश्किल हो गया.

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#10. संजय दत्त उन ढेर सारे लोगों में से हैं, जिन्हें मुंबई धमाकों का आरोपी बनते हुए कई दिनों तक जेल में रहना पड़ा. बाद में उन पर से टाडा हट गया और आर्म्स ऐक्ट के तहत 5 साल की सज़ा मिली. लेकिन क्या ये तथ्य उन्हें कठोर मीडिया ट्रायल का पीड़ित बनाता है, जैसा कि हीरानी अपनी फिल्म में दिखा रहे हैं? आपके इस सवाल का जवाब देने से पहले राजदीप हमें 75 की जैबुन्निसा अनवर काजी की याद दिलाते हैं. काजी को भी संजय की तरह ही आरोप लगाकर अरेस्ट किया था, क्योंकि उनके पास भी एक ऐसा हथियार मिला था, जिसके तार मुंबई धमाकों से जुड़ते थे. बाद में जहां संजू पर से टाडा हटा और आर्म्स ऐक्ट लगा, वहीं जैबुन्निसा को आतंकी घोषित कर दिया गया. उन्हें संजय की तरह न तो लगातार पैरोल मिले, न परिवार से मिलने की इजाज़त मिली और न ही उनके पास हीरानी जैसा कोई दोस्त है, जो उन पर फिल्म बना देगा. संज हमेशा फ्रंटपेज पर थे, लेकिन जैबुन्निसा नहीं थीं, तो किसी को उनकी परवाह भी नहीं है. अपराध क्या है, न्याय क्या है और किसे आतंकी कहा जाए, इसकी परिभाषा लोगों के सोशल स्टेट पर डिपेंड कर सकती है. और इस बात पर भी कि कौन आपके लिए खड़ा हो रहा है.

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यह आर्टिकल वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई के ब्लॉग THE MUMBAI STORY THAT MUST BE TOLD के आधार पर लिखा गया है, जिसके मूल अंग्रेज़ी वर्जन को आप यहां क्लिक करके
पढ़ सकते हैं.




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