थम कर मज़ा लीजिये 2016 में लिखे गए कुछ शानदार बोलों का
लोगों को गाने सुनने से ज़्यादा देखने की आदत हो चली है. ये शानदार पीस है. पढ़ ल्यौ.
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फोटो - thelallantop

अक्सर मैं अपने कुछ ख़ास दोस्तों से एक सवाल करता हूं. जब भी मैं किसी फ़िल्म की पटकथा पर काम कर रहा होता हूं, मुझे उसमें कहीं गानों की गुंजाइश नहीं दिखाई देती. क्या ये उस आदमी के लिए आश्चर्य की बात नहीं है, जिसकी पहली पहचान गीतकार के रूप में है? उससे भी बढ़कर बात ये कि उस गीतकार को गीतों से एक ख़ास किस्म का अथाह प्रेम है. इसके बदले में मुझे बहुत से जवाब मिलते हैं, लेकिन कोई एक ऐसा जवाब नहीं मिलता जो मुझे संतुष्ट कर सके. जब सौरभ ने मुझे इस साल के फ़िल्मी गीतों पर कुछ लिखने को कहा, तो मैंने सोचा क्यों ना इसी बहाने अपने सवाल की ख़ोज पर भी निकला जाए.
किसी और के दिए काम में अपना स्वार्थ ढूंढ लेने से बड़ी कोई और उपलब्धि नहीं है. बशर्ते आपका स्वार्थ आपको उस मुख्य उद्देश्य से दूर न ले जाता हो. वैसे मैं एक स्वघोषित निडर मनुष्य हूं लेकिन अपने समय के गीतों पर लिखते हुए एक डर रहता है. पहला डर यह कि कहीं आप गीतों को सिर्फ़ गीतकार के रूप में तो नहीं सुन रहे और दूसरा ये कि आप पर अपने ही साथियों की समीक्षा की ज़िम्मेदारी है.समीक्षा को सरल करने के लिए मैं इसे दो भागों में बांट रहा हूं. कुछ गीत वो होंगे जो अपनी धुन के साथ मुझे दूसरों से बेहतर लगे और दूसरे वो जिनके शब्द धुन के बग़ैर मेरे ज़्यादा करीब आए. ये कोई मेरिट लिस्ट नहीं है. ऐसे कई गीत हो सकते हैं जो मेरे कानों तक पहुंचे ही ना हों. ऐसे भी गीत आपको शायद यहां न मिलें जो बहुत ख़ूबसूरत हों लेकिन आज ये लिखते हुए मुझे उनसे कोई खास जुड़ाव महसूस न हुआ हो. जनवरी शुरुआत करते हैं जनवरी से जिसकी एक फ़िल्म के गानों ने ऐसी उम्मीद बांधी थी कि, इस साल अगर कुछ और अच्छा नहीं भी सुनने को मिला तो इनके सहारे ज़िंदा रहा जा सकता है. वो फ़िल्म थी "जुगनी" और गीतकार थे "शैली" और उन शब्दों को "क्लिंटन" के बेहद खूबसूरत और नए साउंड ने अपने कंधों पर यूं उठा रखा था, जैसे कोई अत्तार दो ख़ुशबुओं को मिला के एक अलहदा इत्र बनाता है. विशाल भारद्वाज की महीन आवाज़ में डूबा "डुग डुगी डुग" इस फ़िल्म का हासिल था और इसे साल के सबसे बड़े गानों में बिना विवाद शामिल किया जा सकता है. आव-भगत में मुस्कानें, फ़ुर्सत की मीठी तानें, दाएं का हाथ पकड़ के, बाएं से पूछ के, ओए ओए होए डुग डुगी डुग शोर भरे शब्दों के दौर में इतना सहज सुनना बड़ा "रेयर" है. दूसरी फ़िल्म जो उम्मीद जगाती आई वो थी "साला खड़ूस" लेकिन स्वानंद की कुछ अच्छी लाइनें, बहुत सारे गानों और ठीक-ठाक संगीत की भीड़ में खो सी गईं. जैसे "तेरी नज़र जाए जिधर, मेरी नज़र रखे उस पे पहरा". हमारे ज़्यादातर श्रोताओं के पास अब इतना वक्त है नहीं कि, वो एक ढेर में से अच्छा माल ढूँढ सकें. वो तो यूट्यूब पर ट्रेंड होते सारे गाने सुन ले वही काफ़ी है. फ़रवरी फिर आया फ़रवरी और मुझे पहला सुकून दिया "फ़ितूर" ने. यहां स्वानंद के बोल यूं ही खर्च नहीं हुए. अमित के साथ उनकी जुगलबंदी काफ़ी अच्छी रही. जिसका शिखर रहा "पश्मीना". अमित के संगीत का अपना एक बोलने का ढंग है. सौ गानों की भीड़ में आप उनके संगीत का डायलेक्ट पकड़ सकते हैं. ठीक यही बात स्वानंद की भाषा पर भी सटीक बैठती है. कच्ची हवा, कच्चा धुआं घुल रहा

इस महीने के बाकि गाने ठीक-ठाक तो थे लेकिन एक घिसी-पिटी लकीर पर चल रहे थे. पिछले साल ऐसे ही गानों की मांग के कारण तंग आकर मैंने गाने लिखना लगभग छोड़ ही दिया था. तो क्या ये कारण था कि मेरी लिखी फ़िल्मों में मुझे गानों की गुंजाइश नहीं दिखती क्यों कि मुझे लगता है कि गानों को सुनने वाले ख़त्म हो गए हैं. ऊपर लिखे गए गानों को पढ़कर तो ऐसा नहीं लगता. तो फिर क्या कारण है?इस बात पे सर खुजाते हुए मैं फ़रवरी की जिस अगली फ़िल्म पे बात करना ज़रूरी समझूंगा वो है "नीरजा". नीरजा के गाने ऐसे हैं जिन्हें नज़रंदाज़ भी नहीं किया जा सकता और ना ही उन्हें सुनकर प्रसून और विशाल-शेखर जैसे बड़े नामों का एहसास होता है. कुछ ऐसा लगता है कि खाना तो अच्छा था लेकिन इनसे हमारी "उम्मीद" कहीं ज़्यादा बड़ी थी.
जब आप बड़े खिलाड़ी बन जाते हैं तो आपको खेलने के लिए एक बड़ा और खुला मैदान मिलता है. लोग चाहते हैं कि वो आप उन्हें अपने खेल से चमत्कृत करें. फिर आप चाहे जैसे-तैसे जीत जाएं लेकिन ये "जैसे-तैसे" उस जीत को जीत नहीं रहने देते. मैं किसी जीत-हार से नहीं, खेलने के हुनर पर फ़िदा होता हूं.हारने में कैसे हुनर ? चलिए मैं आपको एक हारे हुए हुनर की मिसाल देता हूँ । उसका नाम था "ज़ुबान" की एलबम और गाना था "अज्ज सानु ओ मिलिया"। हार इसी बात की थी कि इतने अच्छे गाने को उसका ड्यू नहीं मिला और जीत थी ऐसे कमाल के बोल, जीवें धर्त नु बीज, बीजा नु फूल फुला नु त्रैल, त्रैल नु किरण किरना नु रंग, रंगा नु नैन नैना नु ख्वाब जी अज्ज सानु ओ मिलेया आप पूरा गीत तसल्ली के साथ सुनेंगे तो आपको समझ आएगा कि सुरजीत पातर के बोलों के साथ वरुण ग्रोवर ने बड़े ही भले से ताल मिला कर, इसे यूं पूरा किया है कि पता नहीं चलता, एक कहां शुरू हुआ है और दूसरा कहां ख़त्म. मार्च इसके बाद तो मुझे मार्च में सिर्फ़ एक ही ऐसा गाना मिला, जिसे मैं यहां शामिल कर सका. वो था कपूर एंड संस का "बोलना" जिसका संगीत तनिष्क बाग़ची का था और बोल थे डॉक्टर देवेंद्र काफ़िर के. फ़िल्म अच्छी थी लेकिन उसमें गानों की जगह नहीं दिखती थी. गानें उसमें ज़बरदस्ती घुसाए गए थे. शायद ये भी एक बड़ा डर है जो मेरी कई पटकथाओं से गानों को दूर रखता है.

यही हाल गानों की एक लंबी फ़ेहरिस्त का है. इन गानों से शिकायत ये होती है कि पहली बार सुनने के लिए इस तरह के गाने सतह पर अच्छे होते हैं लेकिन उनसे दूसरी-तीसरी बार मिला जाए, तो वो वही बातें उसी तरह से दोहराते हैं. मेरी ग़लती शायद यही है कि मेरी दिलचस्पी, दिलचस्प लोगो में है.इन्हीं दिलचस्प गानों को ढूंढते हुए मेरे हाथ लगी एक छोटी सी फ़िल्म, "निल बटे सन्नाटा". इस फ़िल्म में मनोज यादव ने "मौला" और "मुरब्बा" नाम के दो गीत बड़े ही करीने से लिखे थे. उनमे से भी ख़ास था मुरब्बा. इतना सच बता दे ज़िंदगी तू रिश्ते में मेरी क्या लगती है मुझको मैं अच्छी लगती हूं तुझको तू कैसी लगती है इन गानों के बोलों में ताज़गी भी थी और संगीत उनके साथ कदम मिला के भी चल रहा था. लंबी यात्राओं का सहारा ये छोटे सुख ही होते हैं. इस सुख को भोग के थोड़ा आगे बढ़ा तो मुझे मिला, मैथियास डुप्लेसी के कांसे जैसे झनझनाते हुए संगीत में डूबा "लाल रंग" का एक गीत "बावली बूच". गीतकार दुष्यंत ने इस गाने में बहुत ही सुंदर और सौंधे शब्दों का प्रयोग मुहावरों की तरह किया है. कह गए स्याणे, सोच-साच के सहज पके के तो आवे स्वाद इश्क पकाया मंदी आंच पे बहुत पके तो हो बरबाद गाना हिट तो था लेकिन शायद उतने लोगों तक नहीं पहुंचा, जिसका वो हकदार था. जब एक मन से लिखा हुआ गाना उसकी ऑडियंस तक नहीं पहुंचता तो एक अनकहा मलाल रह जाता है.
ख़ासकर ऐसे गाने का जो अच्छा होकर भी उसी आयतन का हो, जिसे प्रसिद्धि के तरल में डुबाने से आर्किमिडीज़ के सिंद्धात के मुताबिक़ प्रसिद्धि को आयतन के बराबर छलकना चाहिए लेकिन ऐसा हुआ नहीं. ऐसी घटनाओं के बाद आपको सुनने वालों के बारे में कुछ समझ नहीं आता, लेकिन फिर बाज़ार के बारे में सबकुछ समझ आ जाता है.मई अप्रेल की उहापोह के बाद मई ख़ाली मिला. जो कुल जमा हासिल था वो "बुद्धा इन ट्रैफिक जैम" फिल्म में रोहित शर्मा के संगीत में बंधी फैज़ की नज़्में थी. फैज़ साहब के बारे में तो क्या कहूं लेकिन रोहित ने "चंद रोज़" और "बेकार कुत्ते" अच्छे से कंपोज़ किया. जून इसके बाद सीधे जून में "धनक" आई और मनोज यादव ने एक बढ़िया गीत लिखा "जीने से भी ज़्यादा" और "te3n" के गानों में अमिताभ भट्टाचार्य ने कुछ अच्छी लाइनें लिखी. क्लिंटन ने टुकड़ों में अच्छा संगीत भी दिया लेकिन कोई एक गाना पूरी तरह रिझा नहीं पाया. फिर दो महीनों के इंतज़ार के बाद स्याह आसमान में चमका "उड़ता पंजाब" नाम का एक धूमकेतू. मैं उड़ता पंजाब के किस गाने का ज़िक्र करूँ और किसे छोडूं समझ नहीं आता. फिर भी दो गाने, शैली का "डा डा डस्से" और वरुण का "उड़ दा पंजाब" इतने खूबसूरत थे कि दोनों ने मुझे काफ़ी कुछ दिया. "डर डा डा डस्से रे और मंज़िल हस्से रे" और "अंदर का कुत्ता अज्ज कड़िये"

इत्र का टॉप नोट उन्होंने बदला, हार्ट नोट ज़रा सा नए जादू से ब्लेंड किया लेकिन बेस नोट वही रखा जिसके लिए वो पहचाने जाते हैं. शैली से मिला ये साल का आख़िरी जादू था. लेकिन वरुण का कमाल यहीं नहीं रुका और वो रमन राघव 2.0 में क़त्ले-आम, पानी का रास्ता और बेहूदा के साथ लौटा.शब्दकोष के क्रूर, लहूलुहान शब्दों को मासूम लफ़्ज़ों के पास बिठाकर पैदा किए गए आतंक में बुने हुए इस फ़िल्म के सारे गानें कमाल थे लेकिन,
"तेरा ख़ून है सौ में नब्बे काला"
सिर्फ़ इसी एक लाइन के दम से ही "बेहूदा" इस फ़िल्म का हासिल था.
जुलाई इसके बाद जुलाई में स्कूल खुले और सुल्तान आया. इरशाद पूरे साल में पहली बार झलके ख़ून में तेरे मिट्टी, मिट्टी में तेरा ख़ून ऊपर अल्लाह नीचे धरती, बीच में तेरा जूनून फ़िल्म के बाकि गाने "जग घुमेया" और "बुलेया" भी विशाल-शेखर की धुन और इरशाद के बोलों का अच्छा संगम रहे. इरशाद ने इसके ठीक बाद मदारी के "डम डम" में एक कलेवर के बोल दिए. बैठ बैठ संतों की गोदी बिना तेल के जनता धो दी दिल्ली बैठा बड़ा विरोधी रेअगस्त जुलाई और अगस्त में ढिशुम, मोहनजोदड़ो, रुस्तम के एल्बम टुकड़े-टुकड़े में कुछ गीतों के साथ आए, लेकिन उनका मामला भी मन डुबाने की कोशिश में माथा कांच पर मारने वाला था. सिर्फ़ मोहनजोदड़ो में रहमान के संगीत के बारे में ये नहीं कहा जा सकता. सितंबर फिर सितंबर में "बार-बार देखो" ने ऐसा कुछ ख़ास नहीं दिया लेकिन, "पिंक" ने कुछ ख़ूबसूरत गाने दिए, खासकर शांतनु की सधी हुई धुन और क़ुरतुलैन बलोच की महीन आवाज़ पे तनवीर गाज़ी का बहुत उम्दा गीत "कारी कारी", जिसमे तनवीर के शब्द चुनाव और "इमेज" के इस्तेमाल को आप नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते. छावं छैली धूप मैली क्यों है री ठीक उसके बाद स्वानंद ने "पार्च्ड" में "माई री माई" नामक एक नोटिस करने लायक गीत लिखा.

जैसे किसी हाइवे पर आपके साथ-साथ एक बस चल रही हो और उसकी खिड़की पर एक ख़ूबसूरत लड़की/लड़का हो. आप दोनों को पहली नज़र में इश्क़ हो जाता है और आप एक दूसरे को पूरे रास्ते निहारना चाहते हैं. तभी एक बस का पेट्रोल ख़त्म हो जाता है और आपकी प्रेम कहानी भी. हम जैसे पागल तो बस से उतर कर लड़की को ढूंढ भी लें लेकिन क्या हर आदमी ये कर सके ये मुमकिन है? फ़िल्म अगर चलती तो इन गानों की उम्र कहीं-कहीं ज़्यादा होती.इसके बाद आई "शिवाय" के कुछ गीत कुछ हिस्सों में अच्छे लगे लेकिन प्रीतम ने "ऐ दिल है मुश्किल" में ना सिर्फ़ अच्छे गाने दिए बल्कि उन्हें जनता ने पूरी तरह से कबूला. कितनी दफ़ा, सुबह को मेरी तेरे आंगन में बैठे मैंने शाम किया ये अमिताभ भट्टाचार्य की साल में पहली फ़िल्म थी, जिसमें वो खुल के चमके लेकिन अभी उनकी चमक को उसके हिस्से की कुछ और आग मिलनी बाकि थी. नवंबर नवंबर की शुरुआत एक निराशा से हुई जिसका नाम था "रॉक ऑन". गीत फ़िल्म जितने उबाउ नहीं थे. तुम कोई गुण में कम हो ये झूठ है अधिकार कम पाओ तो ये लूट है जावेद साहब के बोल कई जगह बेहतरीन थे लेकिन इस फ़िल्म की पहली किश्त ने हमें शंकर-एहसान-लॉय और जावेद अख़्तर के वो गाने दिए थे, जिन्होंने लंबे वक़्त तक हमारी ज़ुबान पर कब्ज़ा बनाए रखा था. इस कारण ये काम कोई नई उम्मीद नहीं देता. "तुम बिन 2" भी ठीक इन्ही मायनों में निराश कर के गई. इसके बाद आई "डियर ज़िंदगी" में कौसर मुनीर के गीत फ़िल्म के स्वाद की तरह हलके-फुल्के थे. मेरे मोहल्ले में, चांद जो आया हैईद जो लाया है, तू ही तो नहींअम्मी ने मेरी जो, सूट सिलाया हैख़्वाब दिखाया है, तू ही तो नहीं

खुलती बसंत जैसे धुलता कलंक जैसे दिल की दरार में हो प्यार का सीमेंट जैसे अंखियों ही अंखियों में जंग की फरंट जैसे मिल जाए सदियों से अटका रिफंड जैसे

आप इस फ़िल्म का कोई भी गीत उठाइए और वो आपकी प्यास पूरी कर देगा. फिर भी मेरा पसंदीदा गीत वो रहा जिसे लोगों ने अभी इतना नहीं सुना है. एक नयी सी दोस्ती आसमां से हो गयी ज़मीन मुझसे जल के मुंह बना के बोली तू बिगड़ रही है ज़िंदगी भी आज कल गिनतियों से "लूम के" गणित के आंकड़ों के साथ एक आधा शेर पढ़ रही है मैं सही ग़लत के पीछे छोड़ के चली कचहरियांमांगती है लागत में तुझसे हर बूंद पसीना पर मुनाफा बदले में ये जान ले बेहद देती है
रे बंदे की मेहनत को किस्मत का सादर परनाम है प्यारे दंगल दंगल, दंगल दंगल सूरज तेरा चढ़ता ढलता गर्दिश में करते हैं तारे दंगल दंगल, दंगल दंगल

गानें बनवाने वालों का मानना है जो एक हद तक दुःखद रूप से सच भी है कि, लोगों में लंबी लाइनें सुनने की क्षमता कम हो रही है. सुनने वाले संगीत के सुख भोगने में भी शीघ्रपतन का शिकार हो रहे हैं. उन्हें ठहर के कही जाने वाली बातें सुनने से बोरियत होने लगती है. सहजता से बोली जाने वाली बातें उन्हें हज़ारों में एक बार चमत्कृत करती है. उन्हें गाने सुनने से ज़्यादा देखने की आदत हो चली है. गानें भी अब तभी गौर से सुने जाते हैं जब उसमे कोई सितारा हो या दृश्य मनमोहक हों.इंडी म्युज़िक को मुख्यधारा में लाने के सपनों के लगभग दम तोड़ देने के बाद, छोटी फिल्मों के बड़े गानों का दौर भी अब बहुत कमज़ोर होता दिखता है. शायद यहीं आकर मेरा सवाल जवाब के सबसे करीब आता है. छोटी फ़िल्में अगर कोई बहुत बड़ा झंडा भी गाड़ दें, तो उनकी आवाज़ एक विशिष्ट वर्ग तक ही पहुंच पाती है. ये ही वो सब कारण हैं जो मुझसे गाने लिखवाना भी चाहते हैं और मुझे निराश भी करते हैं.
जब तक सुनने और बनाने वाले, गाने बनवाने वालों के उस बड़े समूह से सीधे ये मांग नहीं करते, दोनों को एक साल में इन्हीं चंद गानों से मन भरना होगा. जब तक हम डांस और प्रेम गीतों से आगे नहीं बढ़ते, उम्मीद और सतही फलसफ़ों से ज़्यादा भी मांग नहीं करते, हमें कई खूबसूरत और जादुई पहलुओं को गुनगुनाने के सुख से महरूम रहना होगा.हमारी अर्थव्यवस्था का एक बड़ावर्ग और उनके छोड़े-बड़े सुख-दुःख अपने लिए गीत खोज रहे हैं. दुनिया में पचास करोड़ के करीब हिंदीभाषियों के मन क्या दो-चार भावनाओं में डूब के मर जाते हैं ?सच कहूं तो होस्टल की मेस में चंद सब्ज़ियों से बोर हो जाने वाला यूथ कई सालों से चंद ही ख़्यालों को तीन-चार ग्रेवियों में मिला कर खाने का आदी कैसे हो जाता है मुझे समझ नहीं आता. इस कशमकश को दिल में लिए हुए मैं नए साल तो नहीं पर नए कैलेंडर से उम्मीद रखता हूं.
