डॉ. बीसी रॉय, जिन्होंने राष्ट्रपति कैनेडी की दुर्लभ बीमारी उन्हें देखते ही पकड़ ली थी
और गांधीजी ने डॉ. बीसी रॉय से कहा था- तुम्हारी दवा क्यों लूं?
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डॉ बिधान चंद्र रॉय की फ़ाइल फ़ोटो
डॉ. बीसी रॉय 1 जुलाई 1882 को पटना में पैदा हुए थे. उनके पिता एक्साइज़ इंस्पेक्टर थे. रॉय ने पटना से ही मैथेमेटिक्स से बीएससी की पढ़ाई की. उसके बाद मेडिकल और इंजीनियरिंग दोनों के लिए अप्लाई कर दिया. दोनों जगह से बुलावा भी आ गया. फाइनली एडमिशन लिया कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में. वहां से निकलने के बाद मेडिकल फील्ड में पोस्ट-ग्रेजुएशन की पढ़ाई के वास्ते इंग्लैंड चले गए. प्रतिष्ठित सेंट बार्थोलोमिव्स मेडिकल कॉलेज में एडमिशन लेने के लिए 30 बार अप्लाई किया. लेकिन वहां के डीन बीसी रॉय को एडमिशन देना नहीं चाहते थे, क्योंकि वो एशियाई देश के थे. लेकिन बीसी रॉय की कोशिश जारी रही. आखिरकार उन्हें दाख़िला मिला और 3 साल का कोर्स रॉय ने 2 साल 3 महीने में ही निबटा दिया. 'चरक और सुश्रुत का मिला-जुला रूप' 1947 में बीसी रॉय उत्तर प्रदेश के गवर्नर थे. वहां उन्हें लोग दो प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों चरक (फिजिशन) और सुश्रुत (सर्जन) का मिला-जुला रूप कहते थे. डॉ. साहब अपने पूरे जीवनकाल में किसी पद पर रहे हों, उन्होंने कभी भी पेशेंट देखना और उनकी मुफ्त चिकित्सा सहायता करना नहीं छोड़ा. लखनऊ में रहने के दौरान भी वे ऐसा करते थे. इसी के चलते यूपी के अखबारों ने उन्हें चरक (MRCP) और सुश्रुत (FRCS) का मिला-जुला रूप कहना शुरू कर दिया था, जो बाद में लोगों की जुबान पर चढ़ गया. यहां ये भी बता दें कि डॉ. रॉय ने MRCP और FRCS दोनों डिग्रियां एक साथ हासिल की थीं. हमारे देश में इन दोनों डिग्रियों को आसान भाषा में MD और MS कहा जाता है. यानी फिजिशन और सर्जन. प्रेमिका से शादी नहीं हुई तो आजीवन कुंवारे रहे डॉक्टर साहब की प्रेमकहानी उन हिंदी फ़िल्मों की तरह थी, जिनमें नायक प्रेमिका से शादी नहीं होने पर आजीवन कुंवारा ही रहता है. बीसी रॉय इंग्लैंड से MRCP और FRCS करने के बाद 1911 में कलकत्ता लौट कर मेडिकल कॉलेज में पढ़ाने लगे. उनके दौर में डॉ. नील रतन सरकार को बंगाल का सबसे बड़ा फिजिशिन माना जाता था. उनकी एक बेटी थी. नाम था कल्याणी. कहा जाता था कि जितनी एक नए डॉक्टर या मेडिकल कॉलेज के प्रोफेसर की सैलरी होती है उससे दोगुना वो अपने मेकअप पर खर्च करती थीं. करती भी क्यों ना! आखिर पापा की प्रैक्टिस ही इतनी ज्यादा थी कि पैसों की कोई कमी नहीं थी. रविन्द्रनाथ टैगोर जैसे लोग भी कल्याणी के पापा से इलाज करवाने आया करते थे. इन्हीं कल्याणी पर बिधान चंद्र रॉय का दिल आ गया. कल्याणी को भी कोई ऐतराज नहीं था. लेकिन बिधान जब कल्याणी से शादी का प्रस्ताव लेकर उनके पापा नील रतन सरकार के पास पहुंचे तो उन्होंने साफ इन्कार कर दिया. बिधान इतने निराश हुए कि पूरी जिंदगी शादी नहीं की. बाद में 50 के दशक में नदिया जिले में एक उपनगर बसाया और उसका नाम रखा 'कल्याणी'.

महात्मा गांधी और डॉ बीसी रॉय
'तुम थर्ड क्लास वकील की तरह बहस कर रहे हो' 1933 में पुणे में आत्मशुद्धि उपवास के दौरान महात्मा गांधी जी का स्वास्थ्य गिरने लगा. बीसी रॉय उस समय कलकत्ता के मेयर थे. गांधीजी की हालत के बारे में सुनकर भागे-भागे आए. डॉ. रॉय ने गांधीजी से दवा लेने की प्रार्थना की. लेकिन गांधीजी उनसे बोले,
'मैं तुम्हारी दवाएं क्यों लूं? क्या तुमने हमारे देश के 40 करोड़ लोगों का मुफ्त इलाज किया है?'इस पर बिधान चंद्र ने जवाब दिया,
"नहीं बापू, मैं सभी मरीजों का मुफ्त इलाज नहीं कर सकता. लेकिन ज़रूरतमंदों का मुफ्त इलाज जरूर करता हूं. मैं यहां महात्मा गांधी का नहीं, बल्कि उनका इलाज करने आया हूं जिनसे देश के 40 करोड़ लोगों ने उम्मीदें लगा रखी हैं."इस पर गांधीजी ने रॉय से मजाकिया लहजे में कहा,
"तुम थर्ड क्लास वकील की तरह बहस कर रहे हो."फिर बिधान चंद्र की बात मानकर बापू ने दवाएं लेनी शुरू कर दीं. डॉ. नील रतन से फिर आमना-सामना 1941 में रवीन्द्रनाथ टैगोर बीमार पड़ गए. उन्हें प्रोस्टेट संबंधी कुछ समस्या थी. डॉक्टरों की पूरी टीम लगी हुई थी. बंगाल के बड़े फिजिशिन डॉ. नील रतन सरकार ख़ुद वहां मौजूद थे. उस वक्त तक डॉ. रॉय भी मशहूर हो चुके थे. वे मोतीलाल नेहरू, महात्मा गांधी जैसे बड़े नेताओं के मेडिकल कंसल्टेंट बन चुके थे. दूसरे बड़े नेता भी उनसे डॉक्टरी सलाह लिया करते थे. लिहाज़ा टैगोर के ट्रीटमेंट के लिए रॉय को भी बुलाया गया. उन्होंने टैगोर से कहा, 'गुरुदेव, अब एक छोटा ऑपरेशन ही इसका सोल्यूशन है. पूरे प्रोस्टेट का नहीं, बल्कि एक छोटा ऑपरेशन ताकि पेशाब जम ना पाए.'
लेकिन डॉ. नील रतन सरकार ऑपरेशन के खिलाफ थे. उनका तर्क था कि गुरुदेव की उम्र बहुत ज्यादा है, ऐसे में ऑपरेशन करना ठीक नहीं होगा. लेकिन बाकी डॉक्टरों ने डॉ. बीसी रॉय से सहमति जताई. तत्काल कलकत्ता स्थित जोरासांको ठाकुरबाड़ी (जहां अब टैगोर म्युजियम है) स्थित टैगोर के आवास के बरामदे में एक मेकशिफ्ट ऑपरेशन थियेटर बनाया गया. वहां उनका ऑपरेशन हुआ. नील रतन सरकार अंत तक ऑपरेशन का विरोध करते रहे. फिर भी ऑपरेशन हुआ और 2 दिन बाद ही रवीन्द्रनाथ टैगोर का देहांत हो गया. इसकी वजह प्रोस्टेट की समस्या थी या ऑपरेशन, ये कभी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सका. लेकिन डॉ. नील रतन सरकार को अपनी बात को सही साबित करने का अवसर जरूर मिल गया था. जब अपने विरोधी ज्योति बसु को घर ले जाकर खिलाया आगे बढ़ते हैं. बात 1957 की है. 1952 के पहले चुनाव के बाद बिधान चंद्र रॉय का बतौर निर्वाचित मुख्यमंत्री पहला कार्यकाल समाप्ति की ओर था. चुनाव की घोषणा हो चुकी थी. सभी पार्टियां चुनावी कैंपेन में भी लग गई थीं. एक दिन दोपहर के भोजन के वक़्त मुख्यमंत्री बीसी रॉय राइटर्स बिल्डिंग से गुजर रहे थे. रास्ते में उन्होंने देखा कि विपक्ष के नेता ज्योति बसु पैदल सड़क पर जा रहे हैं. डॉक्टर ने गाड़ी रोक कर ज्योति बसु से पूछा, "इतनी धूप में कहां जा रहे हो?"
ज्योति बसु ने मजाकिया लहजे में जवाब दिया, "आपको हराने जा रहा हूं."
ये सुनकर बिधान चंद्र रॉय जोर से हंसे और बोले, "अरे, पहले खाओगे तब तो हराओगे! चलो, गाड़ी में बैठो."
इसके बाद बीसी रॉय, ज्योति बसु को गाड़ी में बिठा कर अपने घर ले गए. दोनों ने साथ खाना खाया और फिर ज्योति बसु को उनके घर पर छुड़वाया.

पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु और डॉ बीसी रॉय
निधन अपने जीवन में डॉ. बीसी रॉय ने कितने ही लोगों का इलाज कर उनकी जान बचाई. ये कहना गलत नहीं होगा कि उनके जैसे डॉक्टरों की वजह से ही दूसरे डॉक्टरों को 'भगवान का रूप' कहा जाता है. लेकिन डॉक्टर भगवान नहीं, इन्सान होते हैं. सबकी तरह उन्हें भी जाना होता है. तो डॉ. बिधान चंद्र रॉय भी चले गए. 1 जुलाई 1962 को उनका निधन हो गया. इससे एक साल पहले 1961 में सरकार ने डॉक्टर साहब को भारत रत्न से नवाज़ा था.
नोट- इस स्टोरी को अभिषेक कुमार ने लिखा है.