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आज मुलायम सिंह यादव ने अपने जीवन की सबसे बड़ी गलती कर दी

वोटर भाजपा और बसपा को वोट देने की बात कर रहे हैं.

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ऋषभ
14 अक्तूबर 2016 (Updated: 14 अक्तूबर 2016, 03:08 PM IST) कॉमेंट्स
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अखिलेश को मैंने ही सीएम बनाया था. वोट मेरे नाम से ही मिला था. अब हमने अखिलेश को फ्री कर दिया है. चुनाव आ रहा है. हमारी किसी भी पीढ़ी में कोई विवाद नहीं है. शिवपाल हैं पार्टी के इंचार्ज. सब कुछ देखेंगे. आने वाले चुनाव के बाद विधायक ही मुख्यमंत्री का चुनाव करेंगे. पहले कोई घोषणा नहीं है. हां, मेरे बिना सरकार नहीं बन सकती. मैंने ही छोटी पार्टी से शुरुआत की थी... अखिलेश को ज्यादा टाइम नहीं दे पाया था उनके बचपन में. मेरी बहन और शिवपाल ने ही पाला था उनको.

- मुलायम सिंह यादव

ये सारा राजनीतिक ज्ञान दे रहे थे समाजवादी पार्टी के फराओ मुलायम सिंह यादव. लखनऊ में. आज-कल उनको बड़ा सुकून सा आ रहा है बेटे अखिलेश को नीचा दिखाने में. पर यहां पर वही हो रहा है, जो बीस साल पहले हुआ था. जब मुलायम ने प्रधानमंत्री बनने का सपना देखा था. इसी स्पीच में मुलायम ने कहा कि 5 नवंबर को हम लोग चुनाव प्रचार शुरू करेंगे. जो कि समाजवादी पार्टी का 25वां जन्मदिवस भी है. मुलायम की इन बातों ने समाजवादी पार्टी को यू-टर्न लिवा दिया है. पहले यही माना जा रहा था कि पार्टी अखिलेश के नेतृत्व में चुनाव लड़ेगी.

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर इंडिया टुडे ने एक सर्वे किया, जिसमें मुख्यमंत्री के तौर पर मायावती 31% वोटरों की पहली पसंद थीं. अखिलेश यादव 27% वोटरों की पसंद थे. और मुलायम सिंह यादव को 1% वोटरों ने पसंद किया. प्रियंका गांधी को 2% और शीला दीक्षित को 1% वोटरों ने मुख्यमंत्री लायक माना.पर जब वोटरों से ये पूछा गया कि आप वोट किसको देंगे, तो ज्यादातर का जवाब था - बीजेपी को देंगे. राजनाथ सिंह को 18% और योगी आदित्यनाथ को 14% वोटरों ने पसंद किया था. मतलब बीजेपी के कैंडिडेट 32% के साथ हैं मैदान में.हालांकि लॉ एंड ऑर्डर की बात आने पर 64% ने मायावती को ही चुना.
2007 में मायावती के मुख्यमंत्री बनने के बाद सपा की धज्जियां उड़ गई थीं. ये पार्टी गुंडे-मवालियों की पार्टी कही जाने लगी थी. स्थिति ये हो गई थी कि पार्टी के प्रेसिडेंट शिवपाल यादव को प्रोटेस्ट के दौरान एक कांस्टेबल ने थप्पड़ धर दिया था. उसके बाद अखिलेश यादव ने ही युवा नेता के तौर पर पार्टी को संभाला. उनके साथ आये उनके मित्र आनंद भदौरिया और सुनील सिंह साजन. इन लोगों ने पार्टी को रिवाइव किया. यात्राएं कीं. जीत भी गये. अखिलेश ने पार्टी की इमेज सुधारने के लिये गुंडों को टिकट देने से परहेज किया था. इसका फायदा मिला था. पर 2016 में स्थिति बदल गई. शिवपाल यादव अड़ गये. 2012 में ऐसा लगा था कि मुलायम अब फिर से प्रधानमंत्री के सपने देखेंगे और शिवपाल मुख्यमंत्री बनेंगे. पर ऐसा हो नहीं पाया था. अबकी बार शिवपाल ने सब कुछ बदल दिया. अखिलेश से बिना पूछे उनके दोस्तों को पार्टी से बाहर कर दिया गया. अखिलेश ने भ्रष्टाचार के आरोप में अपने मंत्री गायत्री प्रजापति को बर्खास्त कर दिया. पर शिवपाल के दबाव में गायत्री को फिर से बहाल कर लिया गया. यही नहीं, अखिलेश को पार्टी प्रेसिडेंट से हटाकर शिवपाल को बना दिया गया. फिर शिवपाल यादव ने कैंडिडेट लिस्ट भी निकाल दी, जिसके बारे में अखिलेश को कुछ पता नहीं था. पर अखिलेश ने ये कह दिया कि अच्छा, अभी कैंडिडेट बदले भी जायेंगे. फिर अमनमणि त्रिपाठी को भी टिकट दिया गया, जिनके पिता अमरमणि त्रिपाठी मधुमिता शुक्ला की हत्या के आरोपों के घेरे में रहे हैं. जबकि अखिलेश के नजदीकी अतुल प्रधान को मना कर दिया गया. इसके बारे में अखिलेश ने कहा कि मैंने अपने सारे अधिकार छोड़ दिये हैं. सब अब जनता के पास हैं. फिर 14 विधानसभाओं के कैंडिडेट भी बदल दिये गये. वो अभी विधायक हैं और इस बारे में उनके नेता अखिलेश से पूछा भी नहीं गया. अखिलेश की इससे बड़ी बेइज्जती हुई मुख्तार अंसारी के मामले में. अखिलेश शुरू से ही मुख्तार के खिलाफ थे. पहले उनकी पार्टी कौमी एकता दल का सपा में विलय होते-होते रह गया. पर अब शिवपाल ने विलय करा ही दिया है.
ऐसे में समाजवादी पार्टी की इमेज फिर से गुंडों वाली पार्टी की बन ही जायेगी. इस बात का कितना फायदा होता है, ये मुलायम से ज्यादा कौन जानता है. 1996 से 1998 के दौर में मुलायम को दो बार लगा था कि प्रधानमंत्री बन जाऊंगा. पर एक बार लालू यादव ने पत्ता काट दिया था. और दूसरी बार वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने सीपीआई के हरकिशन सिंह सुरजीत से कह दिया कि ये आप किसको प्रधानमंत्री बनाने जा रहे हैं, ये आदमी अपने विरोधियों को मरवा देता है.
चाहे जो भी हो, अखिलेश की इमेज यूपी में अच्छी तो है ही. चाहे उनकी लैपटॉप वाली स्कीम हो या मेट्रो योजना, लोग उनसे प्रभावित तो हैं. मुलायम ने तो लोहिया का नाम लेकर अपनी राजनीति शुरू की थी. पर लोहिया ने तो वंशवाद को नकार दिया था. अब अखिलेश लोहिया की बात कर रहे हैं. कहीं ऐसा ना हो कि लोहिया की राजनीति को फॉलो करते हुये बाप-बेटे की झंझट वंशवाद को खत्म ही कर दे.
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