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मिखाइल गोर्बाचोव: रूस का खलनायक, जिसने अकेले पूरी दुनिया का चरित्र बदल दिया

मिखाइल गोर्बाचोव के पुतिन के साथ रिश्ते कैसे थे?

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मिखाइल गोर्बाचोव और पुतिन (फोटो-AFP)
मिखाइल गोर्बाचोव और पुतिन (फोटो-AFP)
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अभिषेक
1 सितंबर 2022 (Updated: 1 सितंबर 2022, 09:13 PM IST)
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मिखाइल गोर्बाचोव नहीं रहे. 30 अगस्त 2022 को मॉस्को में उनका निधन हो गया. उन्हें किडनी के इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराया गया था. गोर्बाचोव 91 साल के थे. कम ही नेता होंगे, जिनके फ़ैसलों ने दुनिया की दशा और दिशा पर उनके जितना असर डाला होगा. इसके बावजूद गोर्बाचोव को अपनी ज़िंदगी के अंतिम साल गुमनामी में गुज़ारना पड़ा. उन्हें अपने ही देश में अपमान झेलना पड़ा. रूस की ज़्यादातर समस्याओं के लिए उन्हें ज़िम्मेदार ठहराया जाता रहा. हालात ये कि छह साल तक देश की बागडोर संभालने और शांति का नोबेल प्राइज़ जीतने वाले मिखाइल गोर्बाचोव को राजकीय विदाई मिलेगी या नहीं, इसके ऊपर भी संशय बना हुआ है. अपने देश में ना सही, लेकिन गोर्बाचोव को पूरी दुनिया में भरपूर सम्मान मिला. पश्चिमी देशों में उन्हें शांति का दूत, समाज-सुधारक, ऐतिहासिक नेतृत्वकर्ता जैसी कई उपाधियों से नवाजा गया. निधन के बाद दुनियाभर के कद्दावर नेताओं ने अपनी श्रद्धांजलि दी. हालांकि, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के शोक-संदेश में उतनी गर्माहट नहीं थी.

इतनी विडंबनाओं के केंद्र में रहे मिखाइल गोर्बाचोव की कहानी समझने के लिए हमें पहले इतिहास का चक्कर लगाना होगा.

साल 1917. रूस में बोल्शेविक क्रांति हुई. फिर पहली कम्युनिस्ट सरकार बनी. 1922 में व्लादिमीर लेनिन ने यूनियन ऑफ़ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक्स (USSR) की स्थापना की. USSR बनने के दो बरस बाद ही लेनिन की मौत हो गई. उसके बाद सत्ता की चाबी जोसेफ़ स्टालिन के पास आई. स्टालिन का शासन दमन और शोषण के बल पर चलता था. जो विरोध करता, उसे गुलग भेज दिया जाता. गुलग लेबर कैंप्स की श्रृंखला थी. जिनमें स्टालिन के विरोधियों को क़ैद करके रखा जाता था. वहां उनसे जानवरों की तरह सलूक किया जाता था. अधिकतर लोग वहीं दम तोड़ देते थे.

व्लादिमीर लेनिन (AFP)

1930 के दशक में स्टालिन सामूहिक खेती की नीति लेकर आया. उसी दौरान दक्षिणी रूस के एक गांव में मिखाइल गोर्बाचोव का जन्म हुआ था. स्टालिन के चाबुक के नीचे उसके दादा भी आए. उसके दादा ने सामूहिक खेती में हिस्सा लेने से मना कर दिया था. इस अपराध में उन्हें फ़ायरिंग स्क़्वाड के सामने खड़ा कर दिया गया. लेकिन भाग्य से वो बच गए.

स्टालिन की नीतियों से नाराज़गी के बावजूद गोर्बाचोव ने कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली. मॉस्को यूनिवर्सिटी से पढ़ाई पूरी करने के बाद वो वापस गांव लौट गए. यूनिवर्सिटी में पढ़ने के दौरान ही उनकी मुलाक़ात रईसा से हुई. बाद में दोनों ने शादी कर ली. गोर्बाचोव सोवियत संघ के बाकी नेताओं से अलग थे. उन्होंने अपनी पत्नी के साथ के रिश्ते को हमेशा गर्माहट दी. अपने जीवन पर रईसा के प्रभाव को उन्होंने हमेशा स्वीकार किया. 2012 में एक डॉक्यूमेंट्री में गोर्बाचोव ने कहा था, “हम सारी ज़िंदगी हाथों में हाथ डालकर साथ चले. वो कई मायनों में अद्भुत थी.

गांव लौटने के बाद गोर्बाचोव ने पार्टी का काम संभाल लिया था. अपनी मेहनत की बदौलत वो लगातार आगे बढ़ते रहे. 1978 में उन्हें मॉस्को बुला लिया गया. उन्हें पार्टी में बड़ी ज़िम्मेदारी मिलने जा रही थी. 1980 में गोर्बाचोव कम्युनिस्ट पार्टी की पोलित ब्यूरो के सदस्य बनाए गए. पोलित ब्यूरो रूस की कम्युनिस्ट पार्टी की सबसे बड़ी डिसिजन-मेकिंग बॉडी थी. गोर्बाचोव उस समय ब्यूरो के सबसे कम उम्र के मेंबर थे.

फिर आया साल 1982 का. कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल-सेक्रेटरी लियोनिड ब्रेझनेव की मौत हो गई. उस दौर में रूस की कम्युनिस्ट पार्टी का जनरल-सेक्रेटरी ही देश का भी नेता होता था. ब्रेझनेव की मौत के बाद लीडरशिप को लेकर संकट पैदा हुआ. ब्रेझनेव के बाद यूरी आंद्रोपोव ने उनकी जगह ली. दो बरस बाद ही उनकी मौत हो गई. फिर कोंस्तान्तिन चेरनेन्को के पास कुर्सी आई. एक साल बाद उनकी भी मौत हो गई. तब जाकर मिखाइल गोर्बाोचव को पार्टी का जनरल-सेक्रेटरी बनाया गया.

मिखाइल गोर्बाोचव (फोटो-AFP)

जिस दौर में गोर्बाचोव के पास सत्ता आई थी, उस समय सोवियत संघ की हालत ख़राब थी. अफ़ग़ानिस्तान युद्ध लंबा खिंचता चला जा रहा था. सोवियत संघ में शामिल देशों में विद्रोह हो रहे थे. अर्थव्यवस्था ख़राब थी. गोर्बाचोव इसको सुधारना चाहते थे.बगावत के सुरों को सुनना चाहते थे.

इसके लिए वो तीन नीतियां लेकर आए. उस्कोरेनी, पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त. उस्कोरेनी का मोटा-माटी मतलब था विकास की रफ़्तार को बढ़ाना, पेरेस्त्रोइका का मतलब था सरकार का कंट्रोल कम करना. और. ग्लासनोस्त के.तहत विरोधी विचारों को जगह दी गई.

गोर्बाचोव को लगा था कि इससे इकोनॉमी बेहतर होगी, इनोवेशन होंगे, विदेशी निवेश आएगा. कम से कम आम जनता का रुख थोडा सकारात्मक होगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. सोवियत संघ के अलग-अलग हिस्सों में आज़ादी की मांग उठने लगी. 1986 में चेर्नोबिल और 1989 में बर्लिन वॉल गिरने की घटनाओं ने सोवियत संघ के विघटन की ज़मीन तैयार कर दी थी. गोर्बाचोव ने दोनों मौकों पर संयम बरता था. उनसे पहले के सोवियत शासक टैंक भेजकर विरोध को दबाने में यकीन रखते थे. लेकिन गोर्बोचोव अलग थे. उन्होंने बर्लिन वॉल को जर्मनी का इंटरनल मैटर बताकर छोड़ दिया. गोर्बोचाव ने अफ़ग़ानिस्तान वॉर को ख़त्म करने का फ़ैसला भी किया. इन्हीं वजहों से पश्चिमी देशों से उनके रिश्ते बेहतर होते गए. 1990 में गोर्बाचोव को शांति का नोबेल प्राइज़ दिया गया.

गोर्बाचोव का ये मॉडल उनकी पार्टी के नेताओं को रास नहीं आ रहा था. अगस्त 1991 में कम्युनिस्ट पार्टी और केजीबी ने मिलकर गोर्बाचोव को उनके घर में अरेस्ट कर लिया. इस गैंग में आठ ताक़तवर लोग थे. इसी वजह से इन्हें गैंग ऑफ़ एट भी कहा जाता है. गोर्बाचोव को हाउस अरेस्ट करने के बाद मॉस्को की सड़कों पर टैंक भेज दिए गए. वे सत्ता हथियाना चाहते थे. इसी मौके पर एक और नेता का उभार हुआ. बोरिस येल्तसिन. येल्तसिन ने तख़्तापलट की कोशिश को नाकाम कर दिया. गोर्बाचोव को रिहा कर दिया गया. बदले में उनकी सारी राजनैतिक शक्तियां छीन ली गईं.

दिसंबर 1991 में सोवियत संघ का औपचारिक विघटन हो गया. गोर्बाचोव जा चुके थे. कम्युनिस्ट पार्टी को बैन किया जा चुका था. और, सोवियत संघ की विरासत रूस के पास पहुंच चुकी थी.

बाद के दौर में रूस में गोर्बाचोव गुमनाम होते गए. रूस में एक धड़ा उन्हें आज़ादी और नई दुनिया के प्रवर्तक के तौर पर देख रहा था, जबकि दूसरा धड़ा उन्हें दुश्मन के तौर पर देखता था. 1996 में गोर्बाचोव राष्ट्रपति चुनाव में खड़े हुए. उन्हें महज पांच प्रतिशत वोट मिले.

पुतिन से गोर्बाचोव के रिश्ते कैसे थे?

गोर्बाचोव तमाम उम्र व्लादिमीर पुतिन के आलोचक रहे. दोनों नेताओं की आख़िरी मुलाक़ात 2006 में हुई थी. हालांकि, 2014 में क्रीमिया पर हमले को उन्होंने सही ठहराया था.

गोर्बाचोव को कोल्ड वॉर, न्युक्लियर हथियारों की रेस और सोवियत संघ में चलने वाली तानाशाही को खत्म करने का श्रेय दिया जाता है. पश्चिमी देशों के लिए गोर्बाचोव नायक थे. लेकिन उनका अपना देश उन्हें खलनायक के तौर पर देखता है. उन्हें सोवियत संघ के विघटन का दोषी बताया जाता है. कहा जाता है कि रूस की मौजूदा सभी समस्याओं के लिए गोर्बाचोव ज़िम्मेदार थे.

कितना सच, कितना भ्रम, इसका मूल्यांकन इतिहास करेगा.
जाते-जाते एक क़िस्सा सुनते जाइए.

मिखाइल गोर्बाचोव की जीवनी लिखने वाले विलियम टॉबमैन एक बार उनसे मिलने गए. गोर्बाचोव ने उनसे पूछा कि किताब का काम कैसा चल रहा है? टॉबमैन ने माफ़ी मांगते हुए कहा कि थोड़ी देर हो रही है. काम धीमा चल रहा है. ये सुनकर गोर्बाचोव मुस्कुराए. उन्होंने कहा, ऐसा होता है. Gorbachev is hard to understand. यानी, गोर्बाचोव को समझना बहुत मुश्किल है. सच में, गोर्बाचोव को समझना बेहद ही मुश्किल है.

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