वेस्ट यूपी की 27 सीटों पर किसका जादू चलेगा? जयंत चौधरी का BJP संग जाने से अखिलेश को कितना नुकसान?
Lok Sabha Election: यूपी की 80 सीटों को साधे बिना दिल्ली की राह आसान नहीं होती. और इसमें से सबसे अहम है Western UP. कैसे वोट करता है पश्चिमी उत्तर प्रदेश? इतिहास, जातीय-क्षेत्रीय समीकरण और पूरा तिया-पांचा.
साल 2024. केंद्र की मोदी सरकार ने कुल पांच भारत रत्न बांटे. पर इसमें से दो नाम का ज़िक्र ज़रूरी है, क्योंकि इन नामों ने दो राज्यों के सियासी समीकरण बदल डाले. पहला, कर्पूरी ठाकुर और दूसरा, चौधरी चरण सिंह. बहुत दूर से कहा जा सकता है, कर्पूरी ठाकुर के नाम के एलान के बाद बिहार में सरकार गिर गई. दूसरे नाम से पड़ोसी राज्य यूपी की सियासत में परदे हिले. क्रोनोलॉजी देखिए - चौधरी चरण सिंह को मिला भारत रत्न. एलान किया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने, ख़ुद. ठीक बाद उनके RLD के मुखिया और चौधरी चरण सिंह के पोते जयंत चौधरी (Jayant Chaudhary) की पहली प्रतिक्रिया आई - 'दिल जीत लिया'. तीन शब्द और संकेत साफ़, कि लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections 2024) से ठीक पहले NDA का कुनबा बड़ा हो सकता है. अब जहां विपक्ष की 'मंशा' थी कि जयंत, अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) और राहुल गांधी (Rahul Gandhi) साथ मिलकर 'यूपी के लड़कों' की तिकड़ी बनाएंगे. मगर परिवार बड़ा NDA का हो गया. अब एक लाख टके का सवाल ये है कि जिस 'नए साथी' के बिना भाजपा बीते दो लोकसभा चुनावों से यूपी में अपना परचम लहरा रही है, क्या इस बार वेस्टर्न यूपी साधने के लिए राष्ट्रीय लोकदल या जयंत चौधरी की ज़रूरत पड़ गई है?
पश्चिमी उत्तर प्रदेश का चुनावी मैथ्सवेस्ट यूपी की नस पहचाननी है तो यादों की टाइम मशीन में बैठकर थोड़ा आगे-पीछे करना पड़ेगा. पहले चलते हैं साठ-सत्तर के दशक में. किसानों के बड़े नेता हुए, देश के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह. कांग्रेस के बड़े बगावतियों में से एक. जब कांग्रेस ही कांग्रेस थी, तब कांग्रेस से अलग हुए. अपना दल बनाया और सत्ता के विरोध में फ़ॉर्मूला दिया था - ‘मजगर’ (मुस्लिम, अहीर, जाट, गुर्जर और राजपूत).
कट टू 2024. मुज़फ़्फ़रनगर के बुढ़ाना गांव का दृश्य है. गन्ने के खेतों के बीच से भाजपा की मोटरसाइकिल रैली निकल रही है. बाइकों पर भगवा झंडे हैं, और बैकग्राउंड में गाना बज रहा है: ‘मज़दूर-किसान के हक़ में ये अलख जगाई रे.. RLD आई रे, RLD आई रे..’
50 सालों में दादा ने सत्ता के विरोध में जो नारा दिया, अब पोता सत्ता से ‘समझौता’ कर चुका है. जब आधार किसान-मजदूर ही है, तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश का समीकरण ऐसा कैसे बदला कि पोते ने दस साल कट्टर विरोध करने के बाद सत्ता के साथ जाना चुन लिया?
शुरू से शुरू करेंगेपश्चिमी उत्तर प्रदेश में छह मंडल हैं. कुल 26 ज़िले हैं:
- सहारनपुर मण्डल: सहारनपुर, मुज़फ़्फ़रनगर, शामली.
- मुरादाबाद मण्डल: मुरादाबाद, बिजनौर, रामपुर, अमरोहा, सम्भल.
- बरेली मण्डल: बरेली, बदायूं, पीलीभीत, शाहजहांपुर.
- मेरठ मण्डल: मेरठ, बुलंदशहर, गौतमबुद्ध नगर, ग़ाज़ियाबाद, हापुड़, बागपत.
- अलीगढ़ मण्डलः अलीगढ़, हाथरस, कासगंज, एटा.
- आगरा मंडल: आगरा, मथुरा, फ़िरोज़ाबाद, मैनपुरी.
- इटावा, औरैया और फ़र्रुख़ाबाद के साथ इलाक़े का लव-हेट रिलेशनशिप है. सहूलियत के साथ इन्हें जोड़-घटा लिया जाता है.
इस पूरे क्षेत्र का जनसांख्यिकीय, आर्थिक और सांस्कृतिक पैटर्न उत्तर प्रदेश के बाक़ी हिस्सों से अलग है. कुछ-कुछ हरियाणा और राजस्थान से ज़्यादा मेल खाता है. इसका एक बड़ा कारण है, हरित क्रांति. नई बीजों ने हरियाणा-पंजाब के साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश को भी क़ायदे की उपज दी.
देश का सेंसस 13 साल पुराना हो गया है, सो ये आंकड़े भी. मानकर चलें कि ये आंकड़े कुछ ऊपर-नीचे हुए होंगे.
प्रमुख जातियां: जाट, यादव, गुर्जर और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) प्रभाव रखते हैं. पूरे क्षेत्र में लगभग 17-18% जाटों की आबादी है. उसी के आस-पास OBC.
मुस्लिम आबादी: लगभग 26% मुसलमान हैं, जो सूबे की संख्या (19.3%) से ज़्यादा हैं. साल 1951 में इलाक़े के आठ ज़िलों - सहारनपुर, मुज़फ़्फ़रनगर, बिजनौर, मुरादाबाद, रामपुर, ज्योतिबा फुले नगर, मेरठ और बरेली - में मुस्लिम आबादी 29.93% थी, जो 2011 तक बढ़कर 40.43% हो गई. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लगभग हर लोकसभा क्षेत्र में मुसलमानों की आबादी औसतन 2.5 लाख है. और, असर के साथ इनका दख़ल राजनीति में भी दिखता ही है. 2012 के विधानसभा चुनाव में 77 सीटों में 26 पर मुस्लिम उम्मीदवार जीते थे.
ये भी पढ़ें - वो प्रधानमंत्री, जिसे कभी संसद में बोलने का मौका नहीं मिला
शहरी-ग्रामीण विभाजन: उत्तर प्रदेश की बड़ी आबादी गंवई है. मगर पश्चिम में बैलेंस दिखता है. 2011 की जनगणना के मुताबिक़, इस क्षेत्र में 58.4% लोग गांवों में रहते हैं. यानी मेरठ, ग़ाज़ियाबाद और गौतमबुद्ध नगर (नोएडा) जैसे शहर भी हैं, और लगभग आधी आबादी गांवों में है. लोगों का प्राथमिक व्यवसाय कृषि है. इसीलिए फसल की क़ीमत, सिंचाई और क़र्ज़ जैसे मुद्दे उठते रहते हैं. अलग-अलग सर्वे से ये संकेत भी मिलते हैं कि क्षेत्र में सम्पन्न वर्ग की आबादी राज्य के औसत से अच्छी-ख़ासी अधिक है. इसीलिए कृषि मसलों, बेरोज़गारी, इनफ़्रास्ट्रक्चर और क़ानून व्यवस्था जैसे मुद्दों पर भी वोट पड़ता है.
जाट-मुसलमान जुड़े कैसे? फिर छिटके कैसे?लामबंदी में जाति अहम फ़ैक्टर है. जाट, मुसलमान, दलित और OBC सबसे बड़े वोट बैंक रहे हैं. किसान राजनीति के क़द्दावर चौधरी चरण सिंह ने तो एक जाति गठबंधन का फ़ॉर्मूला भी तैयार किया था: 'मजगर' (मुस्लिम, अहीर, जाट, गुर्जर और राजपूत). परंपरागत तौर पर पश्चिम यूपी में भाजपा और सपा जैसी पार्टियों का प्रभुत्व देखा गया है. कभी-कभार बहुजन समाज पार्टी और क्षेत्रीय पार्टियों को भी जीत मिली है. हालांकि, हाल के दशकों में गठबंधन में उतार-चढ़ाव और वोटर का अविश्वास बढ़ा है. हर चुनाव में ज़मीन फिर हरी हो जाती है, अवसर मिलता है. और, स्थानीय मुद्दे और नेतृत्व अभी भी वोट तय करने में ज़रूरी हैं.
ये भी पढ़ें - चौधरी चरण सिंह एंड संस: 24 दिन के प्रधानमंत्री की तीन पीढ़ियों की दास्तां
चौधरी चरण सिंह के साथ 'किसान मसीहा', उत्तर प्रदेश का पहला दलितों-पिछड़ों का नेता, कृषक आंबेडकर जैसे कितने विशेषण लगाए जाते हैं. साथ ही अवसरवादी, व्यक्तिकेंद्रिता, सांप्रदायिक और समझौतावादी होने की तोहमतें भी लादी जातीं हैं. मगर चरण सिंह इन विशेषणों और तोहमतों के इतर एक राजनीतिक परिघटना थे, जिन्होंने देश के राजनीतिक इतिहास में अपनी नियत जगह सुनिश्चित की. हालांकि, उनके बाद पार्टी की अपील लगातार कम हुई और मुख्य रूप से जाट समुदाय का प्रतिनिधित्व करने तक सीमित रह गई. दरअसल, 'मजगर' की इमारत की नींव ही जाट और मुसलमान थे. मगर ये फ़ॉर्मूला पहचान के बजाय, हितों की राजनीति पर फला-फूला था. पुराने लोग बताते हैं कि चरण सिंह ने इलाक़े के मुसलमानों और जाटों को 'कॉमन कॉज़' की वजह से एकजुट कर रखा था. एक तो गांवों में ऐसा मिक्स ही था कि सब मिल-जुल कर रहते थे. दूसरे, दोनों समुदाय में किसानी ही प्रमुख थी. इसीलिए समस्याओं और सरकारी नीतियों के नफ़ा-नुक़सान दोनों के हिस्से आता था.
समय के साथ दोनों समुदायों में दरार आ गई और रालोद की पकड़ कम होने लगी. इसके दो बड़े कारण टोहे जा सकते हैं:
- पहला कि जिन महीनों में चरण सिंह बीमार पड़े थे, क्षेत्र में एक स्व-घोषित ग़ैर-चुनावी संगठन उभरा - भारतीय किसान यूनियन. बड़े पैमाने पर अपने धरने प्रदर्शन के ज़रिए इस संगठन ने लोगों का ध्यान खींचा.
- दूसरा कारण था, मंडल आयोग. OBC आरक्षण के फ़ैसले ने जाटों को नाराज़ भी किया और भ्रमित भी. वैसे तो जाट मध्य जातियों में आते हैं, मगर फिर भी उनका नाम उस लिस्ट में नहीं था, जिन्हें मंडल सिफ़ारिशों का फ़ायदा मिलता. एक तरफ़, भाजपा और संघ परिवार आरक्षण के ख़िलाफ़ अगड़ी और मध्य जातियों के गुस्से को हवा देने की मुहीम चला रहे थे. सो वो मंडल-विरोधी ख़ेमे में चले गए और संघ परिवार की राजनीति को मौक़ा मिल गया.
ऐसे ‘मजगर’ की आधारशिलाएं ही दरक गईं. जाट भाजपा के ख़ेमे में छिटके और मुसलमान मुलायम सिंह के पीछे हो लिए.
सालों बाद जाट-मुस्लिम समीकरण में एक दंगे का पत्थर आया. 2013 के मुज़्ज़फ़नगर के दंगे. अगस्त और सितंबर महीने में दो समुदायों के बीच भीषण हिंसा हुई. इस हिंसा के बाद लगभग 60 लोगों की मौत हुई थी, और लगभग 40 हज़ार लोगों को पलायन करना पड़ा था. तमाम राजनीतिक दलों पर आरोप लगते हैं कि वो जाट-मुस्लिम समुदाय के बीच हुई इस हिंसा का राजनीतिक फ़ायदा उठाते हैं. फ़ायदा जिसको हुआ, सो हुआ. लोगों का जान-माल का नुक़सान बहुत हुआ. दंगों के कारण हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच खाई चौड़ा गई. न्याय की धीमी गति से समुदायों में निराशा और कुछ हद तक कुंठा पसर गई. पुराने सामाजिक और चुनावी बंधन टूट गए.
इसमें चुनाव के लिहाज़ से भाजपा नफ़े में दिखी. भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं पर दंगे भड़काने के आरोप भी लगे. अक्टूबर 2022 में मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले की एक विशेष अदालत ने दंगा और आगज़नी के आरोप में भाजपा विधायक विक्रम सैनी सहित 12 लोगों को दो साल की जेल और जुर्माने की सज़ा सुनाई. ये फ़ैसला तो नौ साल बाद आया. दंगों के तुरंत बाद फैले सांप्रदायिक तनाव के परिदृश्य में भाजपा ने ख़ुद को हिंदू समुदाय के रक्षक के रूप में प्रोजेक्ट किया. और, ये रणनीति काम भी आई. जाट समुदाय ने भाजपा का पाला चुन लिया.
अब क्या बदला है?बीते दशक भर में भाजपा का प्रभाव बढ़ा है. ख़ासकर 2017 और 2019 के चुनावों में. राजनीति बूझने वाले बताते हैं कि भाजपा ने क्षेत्र में उच्च जाति के वोट बैंक को ठीक-ठाक भुनाया है. 'मज़बूत नेता, मज़बूत राष्ट्र' वाले नैरेटिव पर ध्यान खींचा है और 2017 में सपा के प्रति मतदाताओं के असंतोष को कैश किया है.
इस बार का हिसाब-किताब रालोद और सपा में टूट की वजह से बदल गया. दरअसल, बीती 9 फ़रवरी को चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न देने की घोषणा के कुछ ही घंटों के भीतर रालोद प्रमुख जयंत चौधरी ने समाजवादी पार्टी से नाता तोड़ लिया. भाजपा के प्रति अपने कट्टर विरोध के लिए ख्यात जयंत ने PM नरेंद्र मोदी के पोस्ट को रीपोस्ट कर लिखा - ‘दिल जीत लिया’. जनता ने टोका - ‘दल जीत लिया?’
दल बलदने के अगले दिन जयंत राज्यसभा में बोल गए - “10 साल तक विपक्ष में रहने के बाद मुझे मोदी सरकार की कार्यशैली में चौधरी चरण सिंह की विचारधारा की झलक दिखाई देती है.” भले ही कोई आधिकारिक घोषणा न हुई हो, फिर भी बहुत आसार हैं कि कुछ दिन में घोषणा हो जाए. इसका एक संकेत 27 फ़रवरी की राज्यसभा वोटिंग में दिखा, जब सभी रालोद विधायकों ने भाजपा की मंशा-मुताबिक़ वोट डाला.
ये भी पढ़ें - वो प्रधानमंत्री, जो गांधी का चेला था और नेहरू का प्रतिद्वंदी
रालोद-सपा की दरार की एक वजह दोनों के बीच सीट शेयरिंग पर हुई असहमति भी बताई जाती है. घोषणा नहीं हुई थी लेकिन सूत्रों के हवाले से ख़बर चली कि सपा बागपत, कैराना, नगीना, बिजनौर, मेरठ या अमरोहा, हाथरस और मथुरा सीटें छोड़ने के लिए तैयार थी. मगर सपा ने इन सीटों के साथ शर्तें लागू वाला सितारा (*) लगा दिया. सपा ने शर्त रखी कि कैराना, मुज़फ़्फ़रनगर और बिजनौर में प्रत्याशी उनका होगा और निशान रालोद का. कहा जा रहा है कि सपा के इस ‘प्रत्याशी हमारा, सिम्बल तुम्हारा’ वाली शर्त जयंत को पची नहीं.
कहने के लिए ‘जाटों की पार्टी’ तक सीमित हो जाने और चुनाव में वो आधार भी खो देने के पीछे एक बड़ी वजह ये रही कि रालोद ने अपनी नींव को मज़बूत करने के बजाय भाजपा और कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टियों के साथ गठबंधन किया.
फिर 2014 के चुनावों में ये साफ़ दिखा कि RLD का जाट समर्थन धड़ाम से गिरा है. ख़ासतौर पर 2013 के कुख्यात मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के बाद. 2013 के अगस्त और सितम्बर महीने में दो समुदायों के बीच भीषण हिंसा हुई थी. हिंसा में लगभग 60 लोगों की मौत हुई थी और लगभग 40 हज़ार लोगों को पलायन करना पड़ा था. जान-माल के नुक़सान से इतर क्षेत्र की राजनीति भी बदल गई. मुसलमान और जाटों के बीच तनाव पैदा हो गया, वोट बंट गया. थिंक टैंक CSDS की एक स्टडी के मुताबिक़, 2012 के विधानसभा चुनावों में जाटों में भाजपा का जनाधार मात्र 7 प्रतिशत था. और, ठीक दो साल बाद 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को 77% जाट वोट मिले.
2017 में क्या हुआ? दंगे के बाद ये पहला विधानसभा चुनाव था, पार्टियों के लिए कैनवास बड़ा था. सो इन चुनावों में भी दंगों का असर था. 2012 में भाजपा की जो स्थिति थी, उसमें बम्पर सुधार आया. जाट ‘जाटों की पार्टी’ छोड़कर भाजपा के ख़ेमे चले गए. सामने 25% से ज़्यादा मुस्लिम वोटर्स का ख़ेमा था, मगर पाल, कश्यप, गुर्जर, सैनी और अन्य ग़ैर-जाट जातियों के वोटों ने भाजपा को 51 सीटें दिला दी थीं. सपा के खाते 16, कांग्रेस को 2 और बसपा को 1 सीट मिली. चुनावों का आकलन करने वालों के अनुसार, कम से कम 40% जाट वोट और 17% गैर-जाटव दलित वोट (खटिक, पासी, वाल्मिकी, आदि) बीजेपी को गए.
2019 के लोकसभा चुनाव में सपा, बसपा और रालोद, तीनों लेगेसी पार्टियों ने महागठबंधन किया. उन्हें अपने वोट शेयर को देखते हुए काफ़ी उम्मीदें थीं. मगर जब नतीजे घोषित हुए, तो झटका लगा. क्योंकि रालोद पिता-पत्र - अजित सिंह और जयंत चौधरी - दोनों एक बार फिर अपनी सीटें हार गए. रालोद का खाता तक न खुला और भाजपा ने 91% जाट वोट शेयर ‘छीन लिया’.
ये भी पढ़ें - चौधरी चरण सिंह के 5 रोचक किस्से
फिर आया 2022 का विधानसभा चुनाव. किसान आंदोलन का ज़ोर था. मालूम हो रहा था कि क्षेत्र में सत्ता-विरोधी लहर है. तब रालोद ने सपा के साथ गठबंधन करके मुसलमानों और जाटों के बीच की खाई पाटने की कोशिश की. मगर नतीजे रालोद की उम्मीदों के उलट आए. भाजपा को 2017 के मुक़ाबले 16 सीटों का डेंट तो लगा मगर रालोद 33 सीटों में केवल 8 सीटें ही जीत पाई. भाजपा के डेंट का फ़ायदा सपा को मिला.
जब 2019 में महागठबंधन का हिस्सा होते हुए या 2022 में किसान आंदोलन की लहर में जयंत और रालोद जीत नहीं पाई, तब ये देखना मुश्किल ही होता कि 2024 में सूरत बदल जाए. जयंत चौधरी के लिए ये एक हारी हुई लड़ाई नज़र आ रही थी. NDA में जाकर उन्हें कुछ नहीं तो फ़ायदा ही होगा. हो सकता है पार्टी दशक में पहली बार कोई लोकसभा सीट जीत ही जाए.
वहीं, क्षेत्र के लिए भाजपा की तैयारी भी पूरी है. मार्च 2023 में भाजपा ने राज्य में बड़े स्तर पर संगठनात्मक बदलाव किए थे. इसमें सबसे ज़्यादा फ़ोकस वेस्ट यूपी पर था. इलाक़े में भाजपा की कुल 19 ज़िला यूनिट्स हैं, जिसमें से 17 के अध्यक्ष बदल दिए गए. भाजपा उम्मीद कर रही है कि इस संगठनात्मक सुधार से फिर से क्लीन स्वीप का मौक़ा मिल सकता है. फिर उन्होंने मुस्लिम समुदायों से जुड़ने के लिए अलग-अलग संसदीय क्षेत्रों में ‘स्नेह मिलन: एक देश, एक डीएनए’ थीम पर आयोजन किए हैं. ख़ुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ख़ुद चौपाल लगाए. मुज़फ़्फ़रनगर के फ़िरोज़पुर बांगर गांव में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ कहते हैं,
किसान हमेशा एक-दूसरे का अभिवादन 'राम राम,' 'राम राम सा,' या 'राम रामजी' करके करते हैं. एक ओर भगवान राम के दिव्य आगमन और दूसरी ओर किसान नेता चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न से मान्यता मिलने के साथ मैं अपने किसान भाइयों से आग्रह करता हूं कि वो प्रधानमंत्री मोदी को अपनी शुभकामनाएं दें.
भाजपा का प्रयास है कि मुस्लिम जाट, मुस्लिम राजपूत, मुस्लिम गुर्जर और मुस्लिम त्यागी समुदाय के वोटर्स की 'शुभकामनाएं' मिलें. दूसरी ओर, जैसे-जैसे बसपा दलित वोट-बैंक पर अपनी पकड़ लगातार खो रही है, बाक़ी सारे उसी को साधने की फ़िराक़ में हैं. इस मामले में भी भाजपा दूसरों से आगे दिख रही है.
फिर क्या कारण है कि भाजपा ने हाथ बढ़ाया?खतौली विधानसभा उपचुनाव के नतीजों ने संकेत दे दिया था कि पश्चिमी यूपी में दोबारा जाट-मुस्लिम समीकरण अपनी पकड़ मज़बूत कर रहा है. उस चुनाव में रालोद-सपा और आज़ाद समाज पार्टी (आसपा) के संयुक्त प्रत्याशी मदन भैया ने भाजपा उम्मीदवार राजकुमारी सैनी को 22 हज़ार से ज़्यादा वोटों से हरा दिया था. जानकार बताते हैं कि ये संकेत बीजेपी के लिए काफ़ी थे कि रिअलाइनमेंट पर काम करना होगा और यही वजह नज़र आती है कि पार्टी ने रालोद को 'जीत लिया'.
मगर इसमें भाजपा का क्या फ़ायदा है? द क्विंट के साथ जुड़े पत्रकार पीयूष राय का कहना है कि भाजपा केवल इस चुनाव का नहीं सोच रही. वो लॉन्ग गेम खेल रहे हैं. भले ही इस गठजोड़ का फ़ायदा उन्हें फ़ौरन न मिले. लेकिन नगर निकाय, प्रधानी और विधानसभा के चुनाव में जाटों के 'कुछ स्थिर हुए' वोट बैंक को बटोरा जा सकता है.
मगर इसमें एक पेच है, जो पीयूष भी रेखांकित करते हैं और संजीव सिंह भी – जाटलैंट का मिथक. साल 1969 के विधानसभा चुनाव में चौधरी चरण सिंह की भारतीय क्रांति दल को 425 में से 98 सीटें मिलीं. कुल 21.29% वोट प्रतिशत उनके हिस्सा गिरा. मगर ये सिर्फ़ जाटों के बदौलत नहीं था. उन्हें यादव, राजपूत, गुर्जर और किसानों का ठीक-ठाक समर्थन था. उनके गुज़रने के बाद उनकी पार्टी को 20% के आस-पास वोट शेयर आगे भी मिले. लेकिन उनके बेटे दिवंगत चौधरी अजीत सिंह इस गठजोड़ को बरक़रार रखने में बहुत सफल नहीं रहे. उनकी पुनर्नामांकित पार्टी (रालोद) ने जब से अपने नाम से चुनाव लड़ा, उन्हें 20% वोट शेयर नहीं मिले. इसलिए जाटों का जितना 'हव्वा' है, उतना चुनावी गणित में आता नहीं. आज की तारीख़ में किसी भी पार्टी के लिए भी केवल जाट वोटों पर जीतना लगभग असंभव है, जब तक कि वो गुर्जर, सैनी, खड़कवंशी और प्रजापति जैसी जातियों का एक इंद्रधनुषी फ़ॉर्मूला नहीं बना लेते.
इसीलिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जो मुक़ाबला दो बनाम एक या एक बनाम दो का मालूम पड़ता है, वो असल में एक और एक ग्यारह का है. वोटर एकमुश्त नहीं है, इसीलिए जटिल है. जटिल है, इसीलिए सभी पार्टियों का ज़ोर है.
वीडियो: नेता नगरी: क्या चुनाव तक नहीं टिकेगा किसान आंदोलन? किसान नेताओं, सियासी पार्टियों की कौन सी बात खुल गई?