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न फटती है न टूटती है, इटली के फैशन शो तक में चलती है, कहानी कोल्हापुरी चप्पल की

प्राडा जिस कोल्हापुरी चप्पल की नकल एक लाख 20 हजार रुपये में बेच रहा है, उसका इतिहास सदियों पुराना है. कहते हैं कि छत्रपति शाहूजी महाराज ने इस कारोबार को संरक्षण दिया था.

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Prada kolhapuri chappal
प्राडा पर कोल्हापुरी चप्पल की नकल के आरोप लगे हैं (india Today)
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राघवेंद्र शुक्ला
2 जुलाई 2025 (Published: 04:43 PM IST) कॉमेंट्स
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जो कोल्हापुरी चप्पल आपने कभी 500 या हजार रुपये में खरीदी होगी, उसे ‘प्राडा’ नाम की इटैलियन कंपनी लाखों में बेच रही. यह देखकर किसी का भी माथा घूम जाए लेकिन महाराष्ट्र के कोल्हापुर में पीढ़ी दर पीढ़ी इस चप्पल को बनाने वाले कारीगर इसके ‘दाम’ से नहीं चौके. वह चौंके इस बात से कि प्राडा ने जिस डिजाइन को कॉपी किया, वह उनके पुरखों की कलाकारी का बेजोड़ नमूना है, जिसे ‘चोरी’ कर लिया गया और जिसका ‘क्रेडिट’ नहीं दिया गया. 

ये मामला कुछ दिन पहले सामने आया. इटली का लग्जरी ब्रांड ‘प्राडा' (Prada) डिट्टो कोल्हापुरी चप्पल जैसे दिखने वाले एक फुटवियर को 1 लाख 20 हजार रुपये में बेच रहा था. भारत में तो बच्चा-बच्चा कोल्हापुरी चप्पलों को पहचानता है. मिलान फैशन वीक में लोगों ने प्राडा में छिपे 'कोल्हापुर' को पहचान लिया तो बवाल मच गया. सोशल मीडिया पर लोगों ने ऐसा गदर काटा कि कंपनी कोे स्वीकार करना पड़ा कि उनकी चप्पल कोल्हापुरी चप्पल से ही ‘इन्स्पायर’ है. उन्होंने ‘बिना कोल्हापुर के कारीगरों की सहमति से डिजाइन हथिया लेने पर’ खेद भी जताया.

शाहूजी महराज का प्रोत्साहन

‘सदियों पुराना इतिहास’ रखने वाले कोल्हापुरी चप्पल की कहानी 12वीं या 13वीं सदी से शुरू मानी जाती है. पंचगंगा नदी के किनारे और सह्याद्रि पहाड़ी श्रृंखला के बीच बसे कोल्हापुर पर छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशजों का शासन हुआ करता था. व्यापारिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक रूप से भी यह शहर काफी संपन्न था. 

कहते हैं कि छत्रपति शाहूजी महाराज ने हाथ से बनने वाले इन चप्पलों के कारीगरों को प्रोत्साहित किया था. तब कारीगरों में इस बात पर कंपटीशन होता था कि कौन राजा को सबसे बढ़िया चप्पल बनाकर दे सकता है. इस तरह से कोल्हापुर में चप्पल उद्योग ने रफ्तार पकड़ी थी.

कोल्हापुरी का इतिहास

वहीं, कोल्हापुरी चप्पलों का कारोबार करने वाली कंपनी ‘व्हान.इन’ के पोर्टल के मुताबिक, कारोबार के तौर पर कोल्हापुरी चप्पलों को सबसे पहले 1920 में सऊदागर परिवार ने बनाना और डिजाइन करना शुरू किया था. तब इसका जो मॉडल था वह आज के चप्पलों की तुलना में काफी पतला था. इसके दोनों साइड में छोटे-छोटे फ्लैप्स थे, जिसकी वजह से इसे 'कानवाली' भी कहा जाता था. लोकल लोग इसे 'पैतान' भी कहते थे.

जब ये मॉडल मुंबई के एक रिटेल स्टोर 'जेजे एंड संस' में भेजा गया, तो वहां इसे बहुत पसंद किया गया. पहले उन्होंने एक जोड़ी चप्पल मंगवाई. फिर 20 जोड़ी और देखते ही देखते ये बंबई (मुंबई) में खूब बिकने लगी. बाजार में 'कानवाली' की खूब डिमांड बढ़ गई. इसके बाद सऊदागर परिवार ने और लोगों को भी ये कला सिखानी शुरू की ताकि ज्यादा चप्पलें बनाई जा सकें. धीरे-धीरे कोल्हापुर के आसपास के दूसरे शहरों और कस्बों में भी कारीगरों ने इन चप्पलों को बनाना शुरू कर दिया. 

इसके बाद ये ‘कोल्हापुरी चप्पल’ के नाम से मशहूर हो गए.

इनका डिजाइन ‘ओपन टो’ और ‘टी-स्ट्रैप’ वाले सैंडल जैसा था. ये चप्पलें भैंस की खाल से बनाई जाती थीं और खाल को कई तरह के प्रोसेस के बाद मजबूत और टिकाऊ बनाया जाता था ताकि ये रोज के इस्तेमाल के लिए मजबूत बने. 

कोल्हापुर में इन चप्पलों के कारखाने होने में वहां की जलवायु को भी जिम्मेदार माना जा सकता है. शुष्क और गर्मी वाला इलाका होने के नाते लोगों को हवादार चप्पलों की जरूरत होती थी. इसके अलावा, यहां की ज्यादातर आबादी खेतों में काम करती थी. खेती करते किसानों को ऐसी ही चप्पल की जरूरत थी, जो हल्के हों. मजबूत हों और लंबे समय तक चल सकें. 

जीआई टैग का उल्लंघन

कोल्हापुरी चप्पल को साल 2019 में जीआई टैग (भौगोलिक संकेतक) मिला था. GI टैग का मतलब होता है कि कोई चीज खास उसी इलाके से जुड़ी है और उसकी असली पहचान वही है. इसकी कोई नकल नहीं कर सकता.

अपने सादगी भरे डिजाइन के लिए दुनिया भर में मशहूर कोल्हापुरी चप्पल 500 से एक हजार रुपये में मिलती है लेकिन प्राडा इसे 1 लाख 20 हजार में बेच रहा था. उसने कोल्हापुरी का डिजाइन हू-ब-हू उठा लिया लेकिन इसके कारीगरों से इसकी सहमति नहीं ली. ऐसे में इटली के इस मशहूर ब्रांड पर जीआई टैग के उल्लंघन के आरोप भी लगे हैं. 

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, कोल्हापुरी चप्पल बनाने वाले कारीगर जल्द ही प्राडा के खिलाफ कोर्ट जाने की तैयारी में हैं. उनका कहना है कि ये हमारी सांस्कृतिक धरोहर की नकल यानी ‘कल्चरल अप्रोप्रियेशन’ है.

कल्चरल अप्रोप्रियेशन (सांस्कृतिक विनियोग) तब होता है जब कोई बड़ा ब्रांड या डिजाइनर किसी दूसरी संस्कृति की चीजें या डिजाइन बिना इजाजत, क्रेडिट या मुआवजा दिए लेकर अपने प्रोडक्ट में इस्तेमाल करता है. 

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