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गांधी जी का डॉक्टर कैसे बना गुजरात का पहला मुख्यमंत्री

बाद में नेहरू और मोरारजी की तकरार के चलते इस्तीफ़ा भी देना पड़ गया.

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जीवराज और हंसा मेहता
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विनय सुल्तान
2 अक्तूबर 2020 (Updated: 1 अक्तूबर 2020, 05:02 AM IST)
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2 अक्टूबर 1956, गांधी जयंती के मौके पर अहमदाबाद में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सभा थी. गांधी जी की याद में रखी गई यह सभा उम्मीद से उलट राजनीतिक चौसर में बदल गई. यह चाचा बनाम चाचा का दिलचस्प मुकाबला था. अहमदाबाद में जवाहर लाल नेहरू के समानांतर एक और सभा का आयोजन हो रहा था. इस सभा के मुख्य वक्ता थे महागुजरात आंदोलन के अगुवा नेता इंदु लाल याग्निक. इंदु लाल को गुजरात के लोगों ने 'इंदु चाचा' का नाम दे रखा था.


इंदुलाल याग्निक
इंदुलाल याग्निक

कहते हैं कि अहमदाबाद में उस दिन नेहरू का करिश्मा धरा का धरा रह गया. सभा में नेहरू को देखने जुटी भीड़ खिसक कर इंदु लाल याग्निक की सभा में पहुंच गई. यह महागुजरात आंदोलन की धमक थी, जिससे नेहरू ज्यादा समय तक मुंह नहीं मोड़ सकते थे. करीब चार साल की लंबी लड़ाई के बाद मुंबई प्रेसीडेंसी से टूट कर नए राज्य गुजरात का निर्माण हुआ. इस नए राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने जीवराज मेहता. वही जीवराज मेहता जो किसी दौर में गांधी जी के डॉक्टर हुआ करते थे. लेकिन वो कौनसी परिस्थितियां थीं जिन्होंने एक चिकित्सक को सूबे के आला सियासी ओहदे तक पहुंचा दिया.


जिवराज मेहता
जीवराज मेहता

इस तरह बने मुख्यमंत्री 

लंबे संघर्ष के बाद भाषाई आधार पर गुजरात राज्य की स्थापना हुई थी. सूबे के बनने की घोषणा के साथ ही यह बहस शुरू हो गई कि सूबे का पहला मुख्यमंत्री कौन बनेगा. सूबे में कांग्रेस के कद्दावर नेता मोरारजी भाई देसाई उस समय तक केन्द्र की सियासत में पहुंच चुके थे. वो नेहरू मंत्रिमंडल में वित्तमंत्री के तौर पर काम कर रहे थे. लेकिन मोरारजी की दिलचस्पी सूबे की राजनीति में कम नहीं हुई थी. वो अपनी तरह से बलवंतराय मेहता का नाम आगे बढ़ा रहे थे.


बलवंत राय मेहता
बलवंतराय मेहता

भावनगर में पैदा हुए मेहता बरदौली सत्याग्रह के समय गांधी जी से जुड़े थे. वो आजादी से पहले कांग्रेस कार्यकारणी के सदस्य थे. लाहौर अधिवेशन के समय वो कांग्रेस के महासचिव थे. भारत छोड़ो आंदोलन के वक़्त 3 साल की जेल काट चुके थे. 1957 में बलवंतराय मेहता की अध्यक्षता में बनी समिति ने देश में पंचायती राज की आधारशिला रखी थी. यह गांधी जी के ग्राम स्वराज की तरह आजाद भारत की शुरूआती पहलकदमी थी. मेहता के राजनीतिक करियर में वो सब उपलब्धियां दर्ज थीं जो उन्हें मुख्यमंत्री के सबसे काबिल उम्मीदवार के तौर पर पेश करती थीं.


मोरारजी देसाई
मोरारजी देसाई

मुख्यमंत्री के नाम की शुरूआती चर्चा में नेहरू ने मोरारजी भाई के सामने गुजरात का मुख्यमंत्री बनने का प्रस्ताव दिया था. मोरारजी वित्तमंत्री की अपनी कुर्सी छोड़ना नहीं चाहते थे. पहले उन्होंने बलवंतराय मेहता का नाम सुझाया. मेहता उस समय लोकसभा के सदस्य हुआ करता थे. नेहरू जब बलवंतराय के नाम पर सहमत नहीं हुए तो मोरारजी ने दूसरा नाम सुझाया खंडू भाई देसाई का. खंडू भाई देसाई अहमदाबाद के कपड़ा मिल के मजदूरों के नाता हुआ करते थे. जब 1954 में वीवी गिरी ने राजनीतिक मतभेद के चलते श्रम मंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे दिया तो खंडू भाई इस पद पर नेहरू मंत्रिमंडल में शामिल हुए थे.


नेहरू और जीवराज मेहता
नेहरू और जीवराज मेहता

बलवंतराय मेहता और खंडू भाई देसाई महागुजरात आंदोलन के नेताओं के निशाने पर थे. जनता में दोनों नेताओं की लोकप्रियता रोज निचले पायदान पर खिसक रही थी. ऊपर से खंडू भाई 1957 का लोकसभा चुनाव इंदु लाल याग्निक के सामने हार चुके थे. नए राज्य के पहले चुनाव की कमान किसी हारे हुए सेनापति के हाथ में नहीं सौंपी जा सकती थी. ऐसे में नेहरू ने दांव लगाया डॉ. जीवराज मेहता पर.

मेहता पेशे से डॉक्टर थे और बतौर राजनीतिक कार्यकर्ता उनकी छवि साफ़-सुथरी थी. उन्हें गांधी जी के करीबियों में माना जाता था. उनकी छवि इंस्टीट्यूशन बिल्डर की थी. लेकिन डॉ. जीवराज मेहता के लिए यह कांटो का ताज था. क्योंकि उन्हें मोरारजी की इच्छा के विपरीत जा कर मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी गई थी, इसलिए अड़ियल रवैय्ये वाले मोरारजी ही उनके सबसे बड़े सियासी प्रतिद्वंदी बन कर उभरे. जीवराज मेहता ने मंत्रिमंडल के गठन की प्रक्रिया में मोरारजी और उनके भरोसेमंद आदमियों को दरकिनार किया. इससे मोरारजी की नाराजगी और बढ़ गई.




1962 में हुए गुजरात के पहले चुनाव में कांग्रेस के दो धड़े आमने-सामने थे. जहां सरकार की कमान जीवराज मेहता के हाथ में थी वहीं संगठन मोरारजी के सहयोगी ठाकुरभाई देसाई के हाथ में था. ऐसे में टिकट वितरण को लेकर बड़ी हुज्जत हुई. इसके पीछे की वजह थी 1960 का भावनगर में हुआ कांग्रेस अधिवेशन. इस अधिवेशन में तत्कालीन अध्यक्ष नीलम संजीव रेड्डी ने एक नियम सुझाया था. यह नियम था कि कि किसी भी कांग्रेस कार्यकर्ता को दस साल तक सरकार चलाने में भागीदारी निभाने के बाद संगठन के काम की तरफ लौट जाना चाहिए. इससे कांग्रेस में किसी एक नेता के वर्चस्व की स्थापना से बचा जा सकेगा. हालांकि यह महज एक सुझाव था कोई अनिवार्य नियम नहीं. लेकिन ठाकुर भाई ने इसे हथियार की तरह लिया.




जीवराज मेहता 1948 में बड़ौदा रियासत के मुख्यमंत्री बने थे. इस तरह वो इस नियम के दायरे में आते थे. जीवराज इस जाल को समझ गए. उन्होंने इस नियम का जमकर विरोध किया. नेहरू के प्रभाव के चलते आखिरकार कांग्रेस की केन्द्रीय कार्यकारणी का निर्णय जीवराज मेहता के पक्ष में गया. 1962 के चुनाव में कांग्रेस ने उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन किया. 154 सीटों वाली विधानसभा में कांग्रेस को 113 सीटें हासिल हुईं. स्वतंत्र पार्टी ने 26 सीटों पर कामयाबी हासिल की. प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को 7 सीटें मिलीं वहीं 8 निर्दल विधायक विधनासभा पहुंचे. स्वतंत्र पार्टी के लिए यह अच्छी शुरुआत थी. उसे 24 फीसदी वोट हासिल हुए थे.

जीवराज मेहता ने चुनाव जीत तो लिया लेकिन मोरारजी के चलते उनकी राह आसान नहीं थी. चुनाव के डेढ़ साल के भीतर ही उन्हें अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा. जीवराज मेहता के इस्तीफे की कहानी शुरू हुई उत्तर प्रदेश से. दरअसल 24 अगस्त 1963 के दिन के कामराज प्लान को कांग्रेस कार्यकारणी ने अपनी मंजूरी दे दी.


मोरारजी ने स्कोर बराबर किया 

उत्तर प्रदेश में सियासी हालात बिगड़ रहे थे. उस समय सूबे के मुख्यमंत्री हुआ करते थे चन्द्रभानु गुप्ता. गुप्ता, मोरारजी के करीबी थे. जुलाई 1963 में प्रदेश कांग्रेस कमिटी के चुनाव में गुप्ता के विरोधी धड़े के एपी जैन अध्यक्ष का चुनाव जीत गए. इसके बाद चीजें तेजी से गुप्ता के हाथों से फिसलने लगी. 15 जुलाई को गुप्ता मत्रिमंडल के 8 मंत्रियों ने एक साथ इस्तीफ़ा दे दिया. इन बागी मंत्रियों का आरोप था कि गुप्ता उनके साथ बदतर व्यवहार कर रहे हैं. इसके अलावा प्रदेश के मुख्यमंत्री देश के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के खिलाफ दुष्प्रचार में लगे हुए हैं.


के कामराज और नेहरू
के कामराज और नेहरू

कामराज प्लान आने के बाद नेहरू ने चंद्रभानु गुप्ता को ठिकाने लगाने का निर्णय लिया. कामराज प्लान के तहत उनका इस्तीफ़ा मांगा गया. मोरारजी देसाई इस इस्तीफे के खिलाफ खड़े थे. उन्होंने नेहरू को चेतावनी दी कि मौजूदा सियासी हालत में अगर गुप्ता की बलि ली गई तो यह ज्यादा बड़े विवादों को जन्म देगी. नेहरू नहीं माने.

मोरारजी ने स्कोर बराबर करने में देरी नहीं लगाईं. कामराज प्लान की अगली गाज गिरी जीवराज मेहता पर. मोरारजी ने नेहरू पर दवाब बनाया कि वो कामराज प्लान के चलते मेहता का भी इस्तीफ़ा लें. अंत में हुआ यही. चन्द्रभानु गुप्ता के इस्तीफे के एक महीने के भीतर जीवराज मेहता को भी मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ा. सितम्बर 1963 में जीवराज मेहता के जाने के बाद बलवंतराय मेहता गुजरात के दूसरे मुख्यमंत्री बने.


गांधी जी का ऑपरेशन करने वाला मुख्यमंत्री 

जीवराज मेहता को केंद्र में चल रही सियासी उठा-पटक के चलते अपना पद गंवाना पड़ा. वो 1238 दिन तक सूबे के मुख्यमंत्री रहे. तो कैसा रहा उनका ये कार्यकाल? कांडला बंदरगाह में फ्री ट्रेड ज़ोन बनाया. वो विक्रम साराभाई के साथ एक डेलिगेशन लेकर दिल्ली पहुंचे ताकि अहमदाबाद में आईआईएम खुल सके. 1961 में उनके कार्यकाल में ही आईआईएम अहमदाबाद की शुरुआत हुई. त्रिभुवन दास मेहता को गुजरात बुला कर State Co-Operative Marketing का हेड बनाया. यह प्रयोग बाद में अमूल के नाम से जाना गया.

इसके कुछ महीने बाद ही गुजरात में Gujarat State Fertilizer Company की शुरुआत हुई. वो एक तय आर्थिक एजेंडे पर काम रहे थे. नरम लहजे के मेहता बड़े-बड़े संस्थान खड़े करने के लिए मशहूर थे. मुख्यमंत्री बनने से पहले भी वो कई ऐसे कामों को अंजाम दे चुके थे. बॉम्बे का सेठ गोवर्धनदास सुंदरदास मेडिकल कॉलेज भी उन्ही की देन है. पेशे से डॉक्टर इस शख्स ने आधुनिक बड़ोदा शहर की टाउन प्लानिंग भी की थी. बतौर डॉक्टर की गई उनकी एक खोज से हमारा अक्सर साबका पड़ता रहता है. बच्चों के लिए भारत में घरेलू नुस्खे पर आधारित 'बाबूलाइन ग्राइप वाटर' को बनाने वाले जीवराज मेहता ही थे. वो गांधी जी के पर्सनल डॉक्टर भी थी. बापू के अपेन्डिसाइटिस का ऑपरेशन भी उन्ही के खाते में दर्ज है.


महात्मा गांधी, मदन मोहन मालवीय और जीवराज मेहता
महात्मा गांधी, मदन मोहन मालवीय और जीवराज मेहता

जीवराज मेहता की पैदाइश 29 अगस्त 1887 की है. वो गुजरात के अम्रेली के रहने वाले थे. पिता व्यापारी थे. अम्रेली में स्कूल की पढ़ाई खत्म करने के बाद बॉम्बे के ग्रांट मेडिकल कॉलेज से MBBS की पढ़ाई की. कॉलेज टॉपर थे. आगे की पढ़ाई के लिए लंदन गए. 1915 में वहां से लौटे और बॉम्बे में करियर की शुरुआत की. डॉक्टर रहते हुए मुंबई में नानावटी सहित कई अस्पतालों को खड़ा किया. ऑल इंडिया मेडिकल कांग्रेस के तीन मर्तबा अध्यक्ष रहे.

इतना सब होते हुए भी उनका परिचय अगर इस तरह से दिया जाए कि वो हंसा मेहता के पति थे, तो इससे बेहतर क्या हो सकता है. हंसा मेहता बड़ोदा के दीवान मनुभाई मेहता की बेटी थीं. जीवराज के बड़ोदा रहने के दौरान दोनों में इश्क हुआ. उस दौर में घर वालों की मर्जी के खिलाफ इंटर कास्ट मैरिज की. हंसा अपने सफल पति से अलग पहचान रखती थीं. वो संविधान सभा में शामिल 15 महिलाओं में से एक थीं. इसके अलावा वो 1948 में यूएन के द्वारा जारी किए गए युनिवर्सल ह्यूमन राईट चार्टर की ड्राफ्टिंग कमिटी की सदस्य थीं. महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाली जुझारू नेता के तौर उनकी अलग पहचान थी.

जीवराज मेहता 7 नवंबर 1978 को इस फानी दुनिया से रुखसत हुए.




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