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एक जवान लड़के और लड़की का यूं दिन-रात मिलना उन्हें न सुहाता था

इस्मत आपा वाला हफ्ता में आज दूसरी कहानी 'अल्लाह का फज़ल'

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10 अगस्त 2016 (Updated: 10 अगस्त 2016, 12:12 PM IST) कॉमेंट्स
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101 साल पहले, इस्मत आपा का जन्म हुआ था. बदायूं में. उत्तरप्रदेश में पड़ती है ये जगह. अभी जन्मदिन आने को है. मुल्क आजाद हुआ था उससे ठीक 32 साल पहले पैदा हुईं थीं. तारीख वही 15 अगस्त. उर्दू की सबसे कंट्रोवर्शिअल और सबसे फेमस राइटर हुई हैं, हमने तय किया कि जन्मदिन के मौके पर उनकी कहानियां पढ़ाएंगे. हिंदी में. पूरे हफ्ते. क्योंकि इस्मत आपा वाला हफ्ता है ये. आज पढ़िए इस्मत चुगताई की कहानी 'अल्लाह का फज़ल'
ismat1ये कहानियां हम आपको वाणी प्रकाशन के सौजन्य से पढ़ा पा रहे हैं. सहयोग उनका है. उनने उपलब्ध कराई हैं. किताब मंगाने हैं तो डीटेल्स ये रहीं.किताब का नाम : आधी औरत आधा ख़्वाब (कहानी संग्रह)प्रकाशन वर्ष : 2014पृष्ठ संख्या : 136मूल्य : 250
‘‘बहन खुदा का वास्ता बताइए क्या करूं’’ सकीना बहन ने आंखों में आंसू भरकर कहा. ‘‘भई मेरी तो यही राय है कि फरहत को तलाक दिलवा दें.’’ ‘‘है है तलाक.’’ वह लरज उठी. ‘‘आज तक खानदान में तलाक नहीं हुई. फिर दूसरी बेटी रज़िया छाती पर बैठी हुई नाक कट जाएगी. फिर उसे कौन पूछेगा. ऐसी प्यारी बेटियां हैं, लेकिन वर नहीं जुड़ते.’’ वर का अर्थ केवल तंदुरुस्त कबूल सूरत नौजवान ही नहीं. वर के लिए लाज़मी है कि वह भारी तनखाह पाता हो और अच्छे खाते-पीते खानदान का हो. कुछ आगे-पीछे काम आए. वैसे मर्द ज़ात की कमी नहीं.’’ बड़ी बेटी के लिए कुएं में बांस डाले तब कहीं जाके लड़का मिला. लड़का माशाअल्लाह से साठ-पैंसठ का हो, एक बीवी और चार लड़कियां हैं पर बेटा नहीं... बेटे के लिए फरहत से शादी की थी सो उसके नसीब पर पत्थर पड़ गए. छठा साल चल रहा है. बेटा छोड़ बेटी ही नसीबों जली हो जाती. फल तो लगता, लेकिन वहां भूले को दिन भी न चढ़े. तावीज़ गंडों के फेर में न पड़िए, अच्छे डॅाक्टर को दिखाइए.
‘‘डॉक्टर से डॉक्टर दिखाए. सब यही कहते हैं लड़की में ऐब नहीं. बस बहन अल्लाह का फज़ल है. हुआ न हुआ तो इसमें किसका दख़ल?’’ ‘‘शायद इमदाद में ही कुछ ऐब हो गया हो.’’ ‘‘नहीं बहन मर्द ज़ात में कहां ऐब होता है. लोग उकसा रहे हैं कि तीसरी शादी करो. उन्हें क्या कमी है लड़कियों की. अच्छे-अच्छे लोग बेटियां थाल में सजा कर देने को तैयार हैं.’’ फरहत मुझे एक दिन मिली थी. अच्छी चिकनी-चुपड़ी रस रखी हुई है. गोरा-चिट्टा रंग, हंसती हुई सूरत, भरा-भरा जिस्म, अम्मा को बेटी का घर बिगड़ने का ग़म खाए जाता है. लेकिन ख़ुद फरहत के दिल पर कुछ असर नहीं. शक़्ल से बाईस तेईस की होगी. अभी थोडे़ ही दिन से उन लोगों से मेल-जोल बढ़ गया था. इसी रोड पर उनका चार कमरों का फ्लैट है. बड़ी आन-बान से सजा हुआ... पहली बीवी खार में अपने बाबा के साथ रहती है. यह फ्लैट खास तौर पर फरहत के लिए लिया है. लेकिन उसके नाम नहीं करते. ‘‘ग़ारत कीजिए इमदाद मियां... फरहत को हज़ारों लड़के मिल जायेंगे! मुझे अनवर का खयाल आया वह उन दिनों मेरे साथ ही रहता था.’’ साढे़ पांच सौ मिलते हैं. तरक़्क़ी हो जाएगी.’’ उस दिन फरहत की नज़रें बार-बार अनवर पर उचट रही थीं. सकीना बहन बड़ी मेहरबान नज़र आ रही थीं. मैंने उनसे ज़िक्र किया तो खुल गयीं. ‘‘ऐ है ऐसा हो जाये तो क्या कहिए हैं! माशाअल्लाह क्या चांद सूरज की जोड़ी रहेगी.’’ ‘‘आप तलाक दिलवा दीजिए बस आगे मेरा ज़िम्मा!’’ मैंने वादा किया. मगर अनवर बिदक गया. ‘‘भई मैं इस चक्कर में नहीं पड़ूंगा.’’ ‘‘क्यूं बेवक़ूफ इतनी अच्छी लड़की है!’’ ‘‘तलाक के बाद...’’ ‘‘मगर बढ़िया, बड़ी काइयां है.’’ ‘‘अरे बेचारी बहुत सीधी है.’’
मगर अनवर बेचारे की एक न चली. उधर सकीना बहन इधर से मैंने वह हांका डाला कि बदहवास कर दिया. घेर-घेर के हम दोनों उन्हें एक दूसरे से टकराते. बड़ी बड़ी तरकीबें चलके उन्हें अकेला छोड़के सरक जाते. सकीना बेगम आंखों में आंसू भरतीं और शुक्रिया अदा करतीं. या तो अनवर पुट्ठे पर हाथ न रखने देता था. या अब यह हालत हो गयी है जैसे भूत सवार हो गया हो. सरपैर का होश न रहा. फरहत ने शादी की थी मुहब्बत नहीं की थी. अनवर की मुहब्बत ने उसे एक नयी ज़िन्दगी बख़्श दी. अनवर को सकीना की सूरत से नफरत थी. मगर फिर तो वह उनपर भी गर्वीदा (आसक्त) हो गया. वह भैया पर सदकेवारी जाती. उसके बग़ैर उनके हलक से निवाला न उतरता. मेरी अहमियत बिलकुल खत्म हो गई. शादी से पहले ही अनवर ससुराल का हो रहा. रात के दो-दो बजे तक वहीं घुसा रहता, या फरहत आ जाती और दोनों कमरे में बंद ठिठोल किया करते. मैं अपने काम के सिलसिले में कुछ दिन के लिए पूना चली गई. वहां से लौटी तो पता चला मेरे पीछे फरहत मुस्तकिल तौर पर घर में रही, कभी-कभार अपने घर चली जाती. अब तो शक की कोई गुंजाइश नहीं रही थी कि दोनों की मुहब्बत बुलंदियों पर पहुंच चुकी है.
‘‘आप कुछ कर रही हैं?’’ मैंने सकीना से पूछा. पहले तो टालती रहीं फिर बोलीं. ‘‘हाँ! अहमदाबाद के एक स्वामीजी ने बूटी दी है.’’ ‘‘अरे हटाओ स्वामीजी को... यह लोग पाखंडी होते हैं. तलाक के बारे में क्या कर रही हैं?’’ ‘‘इस मनहूस तलाक के नाम से मुझे हौल (भय) आता है.’’ ‘‘लेकिन आखिर होगा क्या?’’ ‘‘अल्लाह अपना फ़ज़ल करेगा.’’ ‘‘उंह... अल्लाह खाक अपना फ़ज़ल करेगा. सर पकडे़ रोयेंगी आप! एक जवान लड़का और लड़की का यूं दिन-रात मिलना...’’ ‘‘क्यूं? क्या हुआ? क्या तुम से फरहत ने कुछ कहा?’’ चौंक पड़ीं. ‘‘नहीं, फरहत ने कुछ नहीं कहा, मगर मेरे क्या आंखें नहीं हैं?’’ मैं बहुत देर तक उन्हें ऊंच-नीच समझाती रही. वह बहुत दुखी सर झुकाए न जाने क्या सोचती रहीं. ‘‘स्वामी जी ने सात पुड़ियां दी हैं. हर मंगलवार को एक पुड़िया पान या गर्म दूध के साथ?’’ ‘‘फरहत को दी हैं?’’ ‘‘नहीं इमदाद मियां को!’’ ‘‘इमदाद मियां को...?’’ मैं जल के रह गई. ‘‘सात पुड़िया क्या, उन्हें सात ऐटम-बम भी निगला दिए जाएं तो कुछ न होगा. क्या इमदाद मियां आते हैं?’’ ‘‘हां हर मंगलवार को आते हैं. नहा धोकर दो रकअत शुक्राना की नमाज़ पढ़ के गर्म दूध के साथ...’’ ‘‘और भी? यानी हद हो गई... यह आप क्या कर रही हैं?’’ ‘‘ए बहन तो वह इसका शौहर...’’ ‘‘मगर... अनवर और इमदाद में... यानी... यह क्या हो रहा है?’’ मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे बताऊं. क्या यह कमबख़्त अंधी है? मगर मेरी हिम्मत न पड़ी. ‘‘अगले मंगलवार को चौथी पुड़िया हो जाएगी’’ वह न जाने क्या सोच रही थी. ‘‘स्वामी जी कहते हैं कि अल्लाह ने चाहा तो पांचवीं पुड़िया...’’ ‘‘सकीना बहन अल्लाह के वास्ते यह मज़ाक अच्छा नहीं. अब फरहत की तलाक के लिए कुछ कीजिए. और कमबख़्त इमदाद मियां से मेहर धरवा लीजिए.’’ मैंने सोचा, अनवर और फरहत अलग फ्लैट लेकर जिंदगी बड़े मज़े से शुरू कर सकेंगे. ‘‘मेहर...?’’ सकीना बी भौंचक्की रह गईं. ‘‘कितना है मेहर?’’ ‘‘ख़ाक भी नहीं. अब आपसे क्या छुपाना. पचपन हज़ार था तो दस हज़ार सरफ़राज़ मियां लेके विलायत चले गए. ऐसे सिधारे हैं कि पलटने का नाम ही नहीं लेते. वहीं मैम से शादी कर ली, एक बच्ची भी हो गई. सरफ़राज़ मियां सकीना के बड़े बेटे के एक दोस्त के द्वारा राहत का रिश्ता हुआ था. उम्र अधिक थी इमदाद मियां की. मगर बेटे के भविष्य का प्रश्न था.’’ किसी क़ाबिल होकर आ गया तो खानदान की गिरी हुई हालत संभल जाएगी. सो वह पलटे ही नहीं, उलटे छह हज़ार और मंगा लिए किराए के नाम से. इमदाद मियां पक्के बनिये निकले. सब मेहर के हिसाब में लिखवा लिया.’’ ‘‘मगर यह तो हुए सोलाह हज़ार . बाकी...?’’ ‘‘वर्ली पर फ्लैट है... वह रजिया के नाम है. मैंने कहा कुछ तो हो नेक बख़्त के लिए. आजकल के लड़के मुंह फाड़ के दौड़ते हैं.’’ मुझे फरहत पर बहुत तरस आने लगा. भाई के भविष्य और बहन की शादी के लिए उसकी ज़िन्दगी मिट्टी में मिला दी. ऐसी मां और नायिका में क्या फरक है? और इसीलिए सकीना बेगम तलाक से बौखलायी जाती हैं. ‘‘बहन अगर इमदाद ने और शादी कर ली तो हम लोग कहीं के न रहेंगे. कैसे-कैसे मैंने चिल्ले खींचे हैं, वज़ीफे पढ़े हैं, मिन्नतें मानी हैं. जभी तो शादी नहीं की. वरना लोग तो उन्हें खूब भड़का रहे हैं.’’ मुझे वहशत होने लगी. कितनी बेवकूफ है यह औरत! कुछ समझती ही नहीं. अगर कोई एैसी-वैसी बात हो गई तो क्या होगा?’’ ‘‘देखिए आप फिक्र न कीजिए. आप अनवर और फरहत के साथ रहेंगी. रज़िया की बगैर फ्लैट के भी अच्छी जगह शादी हो जाएगी. आप तलाक की फिक्र कीजिए. उसने हूं हां करके टाल दिया. और वही हुआ जिसका मुझे डर था. दो-चार दिन से अनवर कुछ बौखलाए से फिर रहे थे. फरहत भी कुछ वीरान सी नज़र आ रही थी. मैंने पूछा ‘‘क्या झगड़ा हो गया.’’ तो दोनों घबरा गए. रात को अजब धमाचौकड़ी-सी अनवर के कमरे में मची हुई थी. अंदर से फरहत के रोने की आवाज़ आ रही थी. मैंने दरवाज़ा खटखटाया. ‘‘अन्दर आईए!’’ वह मुझे हाथ पकड़कर ले गया. ‘‘इस बेवकूफ को समझाइए.’’ ‘‘क्या हुआ...?’’ ‘‘आन्टी...!’’ वह मेरे पैरों से लिपट गई. ‘‘यह खिड़की से कूदकर...’’ अनवर बुरी तरह लरज़ रहा था. ‘‘पागल हुई हो?’’ मैंने उसका आंसुओं से भीगा चेहरा ऊपर उठाया. ‘‘सब ठीक हो जाएगा. यूं रो-रो कर हलकान होने से फायदा? तलाक के बाद...?’’ ‘‘हाय आन्टी जी! अम्मी तलाक के नाम पर मुंह पीटे लेती हैं. कहती हैं संखिया खा लूंगी!’’ ‘‘अम्मी कमबख़्त का तो कलेजा पिघल गया है, तुम ख़ुद बालिग हो तलाक ले सकती हो...’’ और फिर ऐसे हालात में तो... वह राज़ी हो जाएंगी.’’ ‘‘नहीं आन्टी जी, वह... वह नहीं मानेंगी. हाय मर जाऊं.’’ ‘‘मर जाओगी मगर अपने हक़ के लिए ज़रा अपनी अम्मी से मुक़ाबला नहीं कर सकतीं.’’ उनका रोना नहीं देखा जाता, कल उन्हें बडे़ ज़ोर का दौरा पड़ा. दांत भिंच गए. बस इतनी सी बात हुई थी कि मैंने कहा. उन्हें मना कर दो मंगलवार को न आएं, मैं उनकी सूरत नहीं देखना चाहती. मुझे घिन आती है. हाय आन्टी आप को क्या बताऊ, वह तो आदमी नहीं कुत्ता है.’’ मुंह ढक के वह फिर सिसकियां लेने लगी. ‘‘नहीं जब उन्हें असलियत का पता चलेगा तो दिमाग दुरुस्त हो जाएगा. इसके सिवा चारा ही क्या है? मैं सुबह जाकर उनसे सब कुछ कह दूंगी और आठ दिन के अंदर तलाक...’’ ‘‘तलाक तो वह मर के भी न लेने देंगी. वैसे ही हर वक्त कहती हैं तू खानदान का नाम उछालेगी. तेरा क्या है? दूसरा खसम कर, फिर तीसरा कर.’’ मैंने उसे समझाया, यक़ीन दिलाया, उसकी ढारस बंध गई और थोड़ी ही देर में मुस्कुराने लगी. रोई रोई शक्ल हंसी कुछ ऐसी प्यारी लग रही थी कि अनवर की नीली-नीली आंखें उसके चेहरे पर झुक गईं. मैं उन दोनों को छोड़कर अपने कमरे में आ गई. सोने की कोशिश की मगर नींद उड़ गई. अगर इमदाद मियां को पता चल गया तो ग़ज़ब हो जाएगा. अनवर मिलिट्री में है. कमबख़्त का कोर्ट मार्शल हो जाएगा. इमदाद की पहली बीवी तो उधार खाए बैठी हैं. सकीना बेगम और फरहत की धज्जियां उड़ा देंगी. डरती-डरती मैं सुबह उनके पास पहुंची. हमेशा की तरह वह फिक्रमन्द बैठी थीं. मैंने बड़ी इन्सानियत से फरहत की बपता सुनाई. क़समें खाकर यक़ीन दिलाया कि अनवर दगा न देगा. वह तो उस पर जान छिड़कता है! मैं चोर सी गुमसुम रह गई. सकीना बेगम के कलेजे पर जैसे मशीनगन की बाढ़ चल गई. पागलों की तरह हंसी और फिर बच्चों की तरह रोने लगीं. सूखे पत्ते की तरह उनका जिस्म कांपा और वह वहीं ढेर हो गईं. मेरे हाथ-पैर फूल गए. रज़िया कॉलेज जा चुकी थी, फरहत अपने कमरे में बैठी कांप रही थी. उन्होंने किसी को कोसा न पीटा, न मेरे मुंह पर थूका कि मेरे भाई ने उनका नसीब फोड़ दिया. ‘‘आप इसी वक्त वकील के पास चलिए और फरहत को मैं अपनी बहन के पास देहली भेजे देती हूं. इमदाद पर हर तरह का दबाव डाला जाएगा. आप फिक्र न कीजिए.’’ उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं. सर झुकाए बैठी रहीं. ‘‘वकील? उन्होंने अहमक़ों की तरह कहा. ‘‘हां. मगर इस वक्त... मैं फिर आप को फोन करूंगी. अल्लाह आप को खुश रखे उन्होंने आंखें बंद कर लीं. वापस आकर मैं फोन के इंतज़ार में बदहवास रही. कहीं दोनों मां-बेटी ज़हर खाकर न सो रहें. सारी उमर तोहमत चढ़ जाएगी. मुझे क्या पता था कि हालात यूं पलटा खाएंगे. अनवर का अजीब हाल था कहते हैं मर्द बेवफा होते हैं औरत को मुसीबत में फंसाकर रफूचक्कर हो जाते हैं मगर अनवर की तो जान निकली जा रही थी. शाम तक इन्तज़ार किया मगर फोन न आया. झख मारकर मैंने फोन किया तो जवाब न मिला. जब बहुत ही बेचैन हो गया तो मैंने अनवर को भेजा. अनवर वापस लौटा तो सूरत देखकर मेरा दम निकल गया. ‘‘क्या कहा?’’ ‘‘घर में कोई नहीं. ताला पड़ा है. गोरखे से पूछा. मालूम हुआ सब गए!’’ ‘‘कहां गए?’’ ‘‘कुछ पता नहीं!’’ रात अंगारों पर कटी. अनवर पागलों की तरह दुनिया भर को फोन करता रहा. इमदाद मियां की ससुराल को फोन किया. पता चला कहीं गए हैं, कुछ मालूम नहीं. शायद दरसोदा के फ्लैट में होंगे. अनवर दीवानों की तरह दरसोदा भागा. मैंने बहुत रोका लेकिन उस पर भूत सवार था. वहां एक नौकर था. उसने कहा, खार गए होंगे या चर्च गेट. एक अड्डा पीडर रोड पर भी था. वहां भी न मिले. तीन-चार दिन गुजर गए तब मालूम हुआ कहीं बाहर गए हैं ऑफिस को पता होगा. मनहूस के तीन-चार ऑफिस थे कहीं न मालूम हो सका कि कहां मर गए. छठे-सातवें दिन एक लिफाफा मिला. मैला-कुचैला फटा हुआ लिखा था. ‘‘ख़ुदा के वास्ते मुझे बचाओ. इस जहन्नुम से निकालो. मेरी जान पर ऐसा पहरा है कि सांस लेना मुश्किल है. अल्लाह मेरी जान पर रहम करो! (फरहत) खत पढ़कर तो और सूली सवार हो गई. मिटी-मिटी मोहर से पता चला खत बेगम पीठ से डाक में डाला गया था. उसका मतलब है कि वह हैदराबाद गई होंगी. कौन बचाए कैसे बचाए? अनवर दीवानों की तरह हैदराबाद भागा. इधर-उधर सर मार के लौट आया. कुछ पता न चला. क्या दिल पर वहशत थी. अब भी सोचती हूं तो फुरेरियां आने लगती हैं. अनवर को किन मुसीबतों से संभाला है कि बस मैं ही जानती हूं. इस गुनाह में मेरी मदद भी शामिल थी. मेरे दामन पर भी बेगुनाहों के खून के धब्बे थे. इसी साल अनवर का तबादला देहली की तरफ हो गया. मेरी जान छूटी! इस घटना को कितने ही साल बीत गए. अनवर को सबर आ गया. चांद सी दुल्हन और बच्चों ने सब कुछ भुला दिया. मैं मार्क एंड इस्पन्सरे से निकल रही थी और वह दाखिल हो रही थीं, टक्कर होते-होते बची. थोड़ी देर हम अहमक़ों की तरह एक दूसरे को देखते रहे. ‘‘बहन आप!’’ वह समूर का कोट पहने मुझसे लिपट गयीं. ‘‘अल्लाह कितने साल हो गए.’’ ‘‘सकीना बहन! मेरा हलक खुश्क हो गया. ‘‘सरफराज मियां के यहां ठहरी हुई हूं. उन्होंने तो पलटने का नाम नहीं लिया. मैंने कहा चलो मैं ही नाक नीची करके मिल आऊं. इस बहाने विलायत की सैर भी हो जाएगी अल्लाह-अल्लाह क्या जन्नत बनायी है इन फिरंगियों ने.’’ वह इटली, फ्रांस और स्विट्जरलैंड के किस्से सुनाने लगीं. उनकी सूरत पर एक दम इत्मीनान और जवानी पड़ी थी, पहले से भारी भरकम लग रही थीं. किसी अच्छे हेयर सैलून से बाल बनवाए थे. वह हेरान-परेशान सकीना सूखी डाल से एकदम लहलहाता चमन बन गई थी. ‘‘फरहत कैसी है? मैंने जरा तकल्लुफ महसूस किया. ‘‘अल्लाह के फज़ल से बहुत खुश हैं मियां-बीवी. नादिर मियां भी खैर से स्कूल जाते हैं. नाज़िम आबाद में क्या लक-दक कोठी है टीवी है क्या प्यारी सूरत है नादिर की. बना-बनाया बाप है.’’ ‘‘बाप!’’ मैं उलझन में पड़ गई. ‘‘जी हां, वही चिट्टा रंग और नीली आँखें?’’ ‘‘इमदाद मियां की नीली आंखें?’’ ‘‘ए हे आप तो ऐसे बन रही हैं जैसे...’’ वह ढिठाई से खिलखिलाईं और जल्दी-जल्दी सामान ट्राली में रखने लगीं. ‘‘और वह सात पुड़िया?’’ मैंने कुरेदा. ‘‘अल्लाह क़सम आपको एक-एक बात याद रहती है. पूरे चार हज़ार दिए थे स्वामी को.’’ ‘‘पुड़ियों के या तरकीब के?’’ ‘‘वह निगोड़ा तो कुछ ऊल-फूल बके था.’’ ‘‘यानी अपनी खिदमत पेश कर रहा था?’’ ‘‘जी और दस हज़ार मांग रहा था मगर नेक बख़त की सूरत देखे बुखार चढ़े था.’’ वह बड़बड़ाई. ‘‘इमदाद मियां को शक तो नहीं हुआ है?’’ ‘‘ऐ हटाइये भी... दुनिया जहां के मर्द जो अपनी औलाद पर शक करने लगीं तो... बस अब जाने भी दीजिए. अपनी अक़्ल अपनी गिरह में होती हैं तो मेरी मासूम बच्ची पर इल्ज़ाम न थोपते अपने बूढ़े गिरहबान में भी एक बार झांक कर देखते ऐ मिट्टी डालिए इन बातों पर दम टूटता है मेरा. ‘‘अनवर बेचारा बहुत तड़पा, आप लोगों ने सूरत भी न दिखाई बेटे की’’ मैंने चुटकी ली. बस जाने दीजिए. यह जो गली-गली बच्चे टपकाते फिरते हैं तब कलेजा नहीं फटता. जीता रे अल्लाह उसे दर्जनों बच्चे दे’’ वह अनवर को दुआएं देने लगीं. मैंने उनकी बेशक़ीमत समूर को देखा और चाटना सिल्क के स्कॉर्फ को फिर खयालों में नाज़िम आबाद में फैली हुई कोठी का रकबा नापा. बटुए में से छलकते नोट, हरे-हरे पौंडों की गड्डी देखी और मुझे बहुत घुटन होने लगी. मैं क्यूं चोर बनी बैठी थी. फरहत की गोद भरने में मेरी हमदर्दियां भी तो शामिल थीं. और अनवर कितना बुद्धू था. बरसों ज़मीर की मलामतें सहता रहा. जिसे वह अपनी नादानी में बड़ा गुनाह समझे बैठा था वह तो ऐन सवाब था.

'इस्मत आपा वाला हफ्ता' शुरू हो गया, पहली कहानी पढ़िए लिहाफ

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