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चीन से युद्ध के समय नेहरू ने ये कदम उठाया, जो आज बहुत फेमस है!

चीन के किस अल्टीमेटम को भारत ने तब इग्नोर किया था?

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Nehru with indian troops in 1962 India Sino war
1962 की जंग के दौरान सैनिकों से मिलते जवाहरलाल नेहरू, नेहरू के पीछे खड़े हैं तत्कालीन जनरल सैम मानेकशॉ
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14 दिसंबर 2022 (Updated: 14 दिसंबर 2022, 05:54 PM IST) कॉमेंट्स
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भारत-चीन के बीच तनाव है. तवांग में 9 दिसंबर 2022 को दोनों देशों के सैनिक आपस में भिड़ गए. दोनों देशों ने एक दूसरे के ऊपर घुसपैठ के आरोप लगाए. अब इस पूरी बहस में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पर भी आरोप लगाए जा चुके हैं, और अपने किस्म की संसदीय राजनीति चल भी रही हैं.

जहां भारत-पाकिस्तान की बात आती है, वहां भारत के बच्चे-बच्चे को पता है कि दो देशों के बीच दुश्मनी क्यों है? लेकिन चीन के साथ हमारी तनातनी की डिटेल बहुत कम लोगों को पता है. ज़्यादा से ज़्यादा 1962 के युद्ध के बारे में लोग जानते हैं. लेकिन ये क्यों हुआ था? उसके पहले या बाद में कब-कब इन दो मुल्कों के रिश्ते ख़राब रहे? 

आज यही सब जानेंगे अपन.

1890 की एंग्लो-चाइना संधि (कन्वेंशन ऑफ़ कलकत्ता)

बवाल काफी पुराना है. 19वीं सदी का. तब भारत पर ब्रिटिश शासन था. उस वक़्त सिक्किम पर प्रभुत्व कायम करने की होड़ मची हुई थी. तिब्बत और चीन से व्यापार के लिए सिक्किम पर कब्जे का अहम रोल था. 1888 की शुरुआत में अंग्रेज़ों ने सेना का दखल आवश्यक समझा. लगभग दो सालों तक ब्रिटिश सेना और तिब्बत की आर्मी के बीच संघर्ष चलता रहा. आखिरकार अंग्रेज़ सेना गंगटोक और चुम्बी पर कब्ज़ा करने में कामयाब रही. तिब्बती सेना का वहां से उच्चाटन हो गया. समझौते की शर्तों पर बातचीत शुरू हुई. शुरुआती दौर की विफलता के बाद 17 मार्च को एक संधि पर हस्ताक्षर हुए. इसे 'कन्वेंशन ऑफ़ कलकत्ता' कहा गया. इसी संधि के तहत तिब्बत और सिक्किम के बीच की सीमा का निर्धारण किया गया.

मैकमहोन लाइन क्या है?

1914 में ब्रिटिश सरकार और तिब्बत के बीच ‘शिमला समझौता’ हुआ. इस समझौते के तहत ब्रिटेनशासित भारत और तिब्बत के बीच एक सीमारेखा तय की गई. इसी सीमारेखा को 'मैकमहोन लाइन' कहा जाता है. हिंदी में इसे कई जगह मैकमोहन लाइन भी लिखते हैं. इसका नाम शिमला समझौते में अंग्रेज़ सरकार के नुमाइंदे सर 'हेनरी मैकमहोन' के नाम पर रखा गया. चीन शिमला समझौते को नहीं मानता. वो इस रेखा को भी नहीं मानता.
 

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क्या थे पंचशील सिद्धांत?

1947 में अंग्रेज़ चले गए. भारत आज़ाद हुआ. आज़ाद भारत के शुरुआती दौर में भारत ने चीन के साथ सामान्य रिश्ते रखने को तरजीह दी. 1949 में जब पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना का गठन हुआ, तो बर्मा के बाद भारत दुनिया का दूसरा नॉन-कम्युनिस्ट देश था, जिसने इसे मान्यता दी. बल्कि अप्रैल 1950 में चीन में अपना राजदूत भी नियुक्त किया. हालात और भी तब सुधरे, जब 1954 में दोनों देशों के बीच पंचशील समझौता हुआ. ‘पंचशील’ शब्द बौद्ध अभिलेखों से लिया गया. इस समझौते के पांच प्रमुख तत्व थे.

1) किसी एक देश द्वारा दूसरे देश की क्षेत्रीय अखंडता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना
2) दूसरे देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना
3) दूसरे देश पर आक्रमण न करना
4) परस्पर सहयोग और लाभ को बढ़ावा देना
5) शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की नीति का पालन करना

सब कुछ अच्छा-अच्छा चल रहा था. चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एनलाई ने पहली बार भारत का दौरा किया. 1954 में ही चीन को जिनेवा कांफ्रेंस में एक नए एशियाई मुल्क के तौर पर शामिल किया गया. भारत की लोकसभा में नेहरू ने इसका स्वागत किया. यहां तक सब ठीक था. फिर चीज़ें बदलने लगीं.

दलाई लामा को शरण देकर भारत ने मोल ली चीन की नाराज़गी

मार्च 1955 में चीन के ऑफिशियल नक़्शे में भारत के पूर्वोत्तर का कुछ हिस्सा दिखाया गया. भारत ने इसका विरोध करते हुए इसे पंचशील सिद्धांतों का खुला उल्लंघन बताया. 1959 में दलाई लामा ल्हासा से फरार हुए और भारत का बॉर्डर क्रॉस कर के इधर आ गए. भारत ने उनको शरण देने का फैसला किया. इस फैसले ने चीन को भयंकर नाराज़ कर दिया. 4 महीने बाद चीनी सेना ने पूर्वी लद्दाख में एक भारतीय टुकड़ी पर गोलीबारी की, जिसमें एक भारतीय जवान शहीद हो गया. चीन ने न सिर्फ मैकमहोन लाइन को मानने से इनकार किया, बल्कि सिक्किम के 50 हजार वर्ग मील इलाके पर अपना दावा भी ठोक दिया. हालात बिगड़ते ही रहे.

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नेहरू और उनकी सरकार मामले को नरम करने की अपनी कोशिशों में लगी रही. उधर चीन लगातार आक्रामक रवैया अपनाए रहा. सीमा पर छुटपुट हमले करता रहा.

जवाहरलाल नेहरू की फॉरवर्ड पॉलिसी

भारत ने पंडित नेहरू के नेतृत्व फॉरवर्ड पॉलिसी अपनाई. इसके तहत भारत ने सीमा पर, ख़ास तौर से लद्दाख में कुछ चौकियों का निर्माण किया और वहां सेना तैनात कर दी. ये इसलिए ताकि अगर युद्ध की नौबत आए, तो तत्काल एक्शन के लिए आसानी हो. इससे चीनी आक्रमण पर अंकुश रखने में भी मदद मिलती.

भारतीय जवानों के साथ जवाहरलाल नेहरू.

चीन भारत के इस कदम से बेहद अपसेट हुआ. उसने वहां से सेना हटाने के लिए अल्टीमेटम जारी कर दिया. ज़ाहिर है कि भारत ने इस अल्टीमेटम को इग्नोर कर दिया. दोनों देशों के बीच की व्यापारिक संधियां टूटने लगीं. 20 सितंबर को चीन ने नेफा में मैकमहोन रेखा पार की और भारत की एक पोस्ट पर गोलीबारी की. एक हफ्ते बाद ही ऐसा एक और हमला किया गया. 20 अक्टूबर 1962 को असल युद्ध छिड़ा.

आज़ादी के बाद की इकलौती जंग जो हमने हारी है

20 अक्टूबर को चीन ने दो फ्रंट पर तगड़ा हमला बोल दिया. चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने लद्दाख में और मैकमहोन रेखा के पार हमले शुरू कर दिए. चीनी सेना दोनों ही मोर्चों पर भारी साबित हुई. देखते ही देखते पश्चिम में रेजांग ला और पूर्व में तवांग पर उसका कब्ज़ा हो गया. चीन ने 4 दिन बाद सीज़फायर का प्रपोजल दिया. जिसके तीन मुख्य पॉइंट थे,

# दोनों पार्टियां एक्चुअल लाइन ऑफ़ कंट्रोल को मानेंगी.
# दोनों सेनाएं नियंत्रण रेखा से 20 किलोमीटर पीछे हट जाएंगी.
# दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों में एक दोस्ताना समझौते के लिए बातचीत होगी.

भारत ने इस प्रपोजल को ठुकरा दिया. युद्ध जारी रहा. 20 नवंबर 1962 तक. 20 नवंबर को चीन ने युद्धविराम और साथ ही विवादित क्षेत्र से वापसी की घोषणा की. युद्ध समाप्त हुआ.
62 की इस जंग की ज़्यादातर लड़ाई 14,000 फीट से ज़्यादा ऊंचाई पर लड़ी गई. लिहाज़ा दोनों ही सेनाओं को रसद आदि में काफी समस्याएं आईं. ये युद्ध इसलिए भी मशहूर है कि इसमें वायु सेना का इस्तेमाल नहीं किया गया.

युद्ध के बाद की शांति

अगले कुछ साल शांति से बीते. तनातनी बनी रही, लेकिन युद्ध की नौबत नहीं आई. 1964 में चीन ने अपना पहला परमाणु परीक्षण किया. दस साल बाद 1974 में पोखरण में भारत ने अपना परमाणु परीक्षण किया. भारत का न्यूक्लियर पावर बनना चीन को रास नहीं आया. उसने भारत के परमाणु परीक्षण का कड़ा विरोध किया. इसे न्यूक्लियर ब्लैकमेल बताया.

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लेकिन महज़ दो साल बाद, 1976 में, हालात थोड़े सुधरने लगे. राजनयिक रिश्ते फिर से स्थापित होने लगे. 1979 में विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने चीन की यात्रा की. 81 में उनके विदेश मंत्री भारत आए.

छोटे-मोटे दौरे और भाईचारे की कोशिशें

1988 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी 5 दिन की लंबी यात्रा पर चीन गए. 34 सालों में ये किसी भारतीय प्राइम मिनिस्टर की पहली चीन यात्रा थी. दोनों देश सीमा-विवाद सुलझाने के लिए एक जॉइंट कमिटी का गठन करने के लिए राज़ी हुए. 1993 में उस वक़्त के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव भी चीन गए. 1994 में उपराष्ट्रपति के आर नारायणन गए. दो साल बाद चीन के राष्ट्रपति जियांग जेमिन भारत आए. ये चीन के सर्वोच्च मुखिया की पहली भारत यात्रा थी.

जियांग जेमिन के साथ अटल बिहारी वाजपेयी.
जियांग जेमिन के साथ अटल बिहारी वाजपेयी.
साल 2000 से लेकर अब तक की प्रमुख घटनाएं

- जनवरी 2000: तिब्बत के बुद्धिस्ट लीडर कर्मापा उग्येन त्रिनले दोरजे चीन से फरार हुए और भारत दलाई लामा से आ मिले. चीन ने भारत को चेतावनी दी कि कर्मापा को शरण देना पंचशील सिद्धांतों का उल्लंघन होगा.

- जुलाई 2006: दोनों देशों ने मिलकर नाथू ला पास को खोल दिया. ये हिमालय से गुज़रता एक व्यापारी मार्ग है, जो कभी सिल्क रोड का हिस्सा हुआ करता था. नाथू ला पास 1962 की लड़ाई के बाद से ही बंद था.

- मई 2007: एक दिलचस्प घटनाक्रम में चीन ने अरुणाचल प्रदेश के सरकारी अधिकारी को वीज़ा देने से मना कर दिया. कारण यह बताया कि अरुणाचल चीन का ही हिस्सा है और अपने ही देश में आने के लिए कैसा वीज़ा? अप्रत्यक्ष रूप से चीन अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा ठोंक रहा था.

- मई 1998: उस वक़्त की वाजपेयी सरकार में रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस ने चीन को भारत का दुश्मन नंबर 1 घोषित किया.

- अक्टूबर 2009: भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अरुणाचल प्रदेश का दौरा किया. चीन ने इस दौरे से तगड़ी निराशा जताई. कहा कि ‘विवादित भूभाग’ का दौरा करने का क्या मतलब! भारत ने पलटकर जवाब दिया कि अरुणाचल प्रदेश हमेशा से भारत का अभिन्न अंग रहा है.

- अगस्त 2010: चीन ने भारत के एक आर्मी ऑफिसर को वीज़ा देने से मना कर दिया. वजह ये थी कि उसकी कभी जम्मू-कश्मीर के विवादित हिस्से में तैनाती थी. जवाबन भारत ने रक्षा वार्ताएं रद्द कीं और दो चीनी रक्षा अधिकारियों को नई दिल्ली आने की परमिशन देने से मना कर दिया.

- मई 2014: भारत में नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभाली. उसी महीने उन्होंने अरुणाचल का दौरा किया. चीन के रक्षा मंत्रालय ने इस पर सवाल उठाए.

- सितंबर 2014: चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भारत का दौरा किया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रोटोकॉल तोड़कर उनसे अहमदाबाद में मिले.

- मई 2015: नरेंद्र मोदी ने चीन का दौरा किया.

इन सबके बीच लद्दाख, दोकलाम, गलवान और अब तवांग जैसी घटनाएं हैं.

नरेंद्र मोदी ने शि जिनपिंग के साथ झूला झूला. लेकिन लग नहीं रहा कि उस झूले का कोई फायदा हुआ है. चीन के तेवर और हरकतें बरकरार हैं. 


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