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चुनाव में अलगाववादी विचार को लोगों ने नहीं माना था, फिर भारत से कैसे अलग हो गया बर्मा?

Myanmar को पहले Burma के नाम से जाना जाता था. बर्मा पहले भारत का ही हिस्सा था. लेकिन फिर 1937 में अंग्रेजों ने इसे एक अलग ब्रिटिश कॉलोनी बना दिया. इससे पहले अंग्रेजों ने बर्मा में चुनाव करवाया था. चुनाव में ज्यादातर लोगों ने भारत के साथ रहने के लिए वोट किया था. इसके बावजूद भी बर्मा को भारत से अलग क्यों किया गया?

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Burma India Separation
1937 में बर्मा भारत से अलग हो गया था. (तस्वीर साभार: Wikimedia Commons)
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10 अप्रैल 2024
Updated: 10 अप्रैल 2024 22:05 IST
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'1984' नाम का एक फेमस उपन्यास है. इस उपन्यास में एक ऐसे देश की कहानी है जहां राज करता है- 'बिग ब्रदर'. उसके देश में एक ही मंत्रालय सही से काम करता है. मिनिस्ट्री ऑफ लव. इस मंत्रालय के अधीन आती है एक स्पेशल फोर्स. जिसका नाम है- थॉट पुलिस. उसका काम है लोगों के विचार मॉनिटर करना. आप ऐसा कुछ सोच भी नहीं सकते, जो बिग ब्रदर के खिलाफ जाता है. अगर आपके चेहरे पर ऐसे भाव भी उठे, जिससे आप पर शक हुआ तो आप फेसक्राइम के अपराधी हैं. इतना ही नहीं, बिग ब्रदर के देश में अंग्रेजी बोलना मना है. यहां एक नई भाषा चलती है. जिसे ‘न्यू स्पीक’ कहा जाता है. न्यू स्पीक में मरा हुआ व्यक्ति डेड नहीं है, वो अनपर्सन है. बुरा नहीं है, अनगुड है.

बिग ब्रदर की पार्टी का स्लोगन है- 'War is peace. Freedom is slavery. Ignorance is strength'. बिग ब्रदर के देश में इसे डबल थिंक कहते हैं. यानी दो परस्पर विरोधी विचारों को एक साथ मानना. उपन्यास के अंत में आपके पास कोई चारा नहीं होता. सिवाए बिग ब्रदर की जय जय कार करने के. 

एक तानाशाही शासन के खतरों से आगाह करता ये उपन्यास लिखा था जॉर्ज ऑरवेल नाम के लेखक ने. ऑरवेल का ऐसा ही एक और उपन्यास है- एनीमल फार्म. आयरनी देखिए कि जिस देश में ओरवेल ने अपनी जिंदगी के पांच वर्ष बिताए, वो खुद एक तानाशाही सैन्य सरकार से जूझ रहा है. हम बात कर रहे हैं हमारे पड़ोसी देश म्यांमार की. पहले इसे बर्मा के नाम से जाना जाता था. और ये बर्मा कभी भारत का हिस्सा हुआ करता था. आज बात करेंगे कि बर्मा भारत से कैसे अलग हुआ और क्यों अलग हुआ?

1 अप्रैल का नया संविधान

कहानी शुरू होती है, भारत की आजादी से लगभग 10 साल पहले से. अखबार की कतरन के ऊपर तारीख लिखी थी- 2 अप्रैल 1937. हेडलाइन थी- इंडिया बायकॉट्स न्यू कॉन्स्टिट्यूशन. यानी ‘भारत में नए संविधान का बहिष्कार’. खबर थी कि कांग्रेस ने हड़ताल और विरोध-प्रदर्शन का आयोजन किया था. कलकत्ता कॉरपोरेशन ने भी एक दिन के लिए स्कूल-ऑफिस को बंद रखने का आह्वान किया था. इस उथल-पुथल का कारण था- उस साल 1 अप्रैल को लागू हुआ नया संविधान. जिसके चलते बर्मा भारत से अलग हो रहा था.

इस खबर के बाहर आते ही खलबली मच गई. लेकिन बर्मा में इससे बिल्कुल उलट तस्वीरें दिख रही थीं. भारत में जहां विरोध-प्रदर्शन और धरना चल रहा था, वहीं बर्मा में इस बदलाव का स्वागत किया जा रहा था. इस तारीख को बर्मा में छुट्टी की घोषणा कर दी गई थी. लोगों ने इस दिन को किसी त्योहार की तरह मनाया. नए संविधान के तहत बर्मा एक अलग ब्रिटिश कॉलोनी बन गया था. ब्रिटिश भारत के अंतिम शासक- किंग जॉर्ज VI ने इस बात की घोषणा की. कहा कि बर्मा अब भारतीय साम्राज्य का हिस्सा नहीं रहा.

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2 अप्रैल 1937 को एक अखबर की हेडलाइन

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हालांकि सवाल उठता है कि अगर बर्मा भारत से अलग हुआ तो भारत का हिस्सा बना कैसे? साल 1885 में अंग्रेजों और बर्मा के बीच एक युद्ध हुआ. इस युद्ध में बर्मा को हार मिली और उसके ऊपरी हिस्से को भारत का एक प्रांत बना दिया गया. इसके बाद बर्मा पर कलकत्ता से शासन किया जाता था.

हालांकि, बर्मा के लोग इससे खुश नहीं थे. वो खुद को भारत से अलग मानते थे. साल 1918 में ब्रिटिश सरकार ने बर्मा को अलग करने का विचार किया. लेकिन तब सैन्य कारणों से उसे भारत का ही हिस्सा रखा गया. इसी के चलते 1920 आते-आते बर्मा में असंतोष पनपने लगा. इस समय तक रंगून को अप्रवासियों के लिए दुनिया के सबसे व्यस्त बंदरगाहों में से एक कहा जाता था, जो न्यूयॉर्क के बाद दूसरे स्थान पर था. ये बात कई लोगों को ठीक नहीं लगी.

पैसे का खेल

बर्मा के लोगों का कहना था कि ब्रिटेन द्वारा बर्मा पर कब्जा करने के बाद से हजारों-लाखों भारतीय हमारे श्रम और भूमि का शोषण करने के लिए हमारे तटों पर आ गए हैं. बर्मा के लोग एक तरफ इमिग्रेशन का विरोध कर रहे थे तो वहीं असंतोष का एक बड़ा कारण आर्थिक असमानता थी.

अंग्रेजी में Teak और हिंदी में सागौन. ये एक तरह का पेड़ है. जिसका उद्योग फैला था बर्मा में. वहां के लोग इस बात से नाराज होने लगे. उन्हें लगने लगा कि भारत और चीन के प्रवासी लोग उनके सागौन उद्योग का फायदा उठा रहे थे. बात ये भी हुई कि सागौन उद्योग से बनने वाली संपत्ति यूरोपीय लोगों के हाथ में जा रही है.

1931 में बर्मा की जनसंख्या में 7 प्रतिशत लोग भारतीय थे. बर्मा के लोगों में रोष का कारण ये था कि भारतीय ज्यादा संपत्ति इकठ्ठा कर रहे हैं. 1930 के दशक में ब्रिटिश बर्मा की राजधानी रंगून में 55 प्रतिशत नगरपालिका टैक्स 7 प्रतिशत भारतीयों ने दिया था. वहीं स्थानीय बर्मीज ने केवल 11 प्रतिशत टैक्स दिया था. बर्मा के लोगों को लगा कि अर्थव्यवस्था के बड़े हिस्से पर भारतीयों का कंट्रोल है.

आर्थिक असमानता को आधार बनाकर कई और दावे भी किए गए. ब्रिटिश और बर्मा के कई अधिकारियों ने कहा कि बर्मा और भारत के अलग होने से बर्मा की अर्थव्यवस्था को लाभ होगा.

बर्मा को भारत से अलग करने की अपील

1928 में यू म्या यू नाम के एक बैरिस्टर ने एक पैम्फलेट लिखा. शीर्षक था ‘बर्मा को भारत से अलग करने की अपील’. इसमें दावा किया गया कि- बर्मा भारत का एक प्रांत था, इसलिए उसे हर साल राजस्व में 6.8 करोड़ रुपये का नुकसान होता था. ये 1927 से 1928 के कुल राजस्व के 63 प्रतिशत के बराबर था. इसी लेखक ने एक शिकायत की. कहा कि बर्मा से मिलने वाला पैसा सीमांत इलाकों, जैसे अभी के पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे दूर-दराज के क्षेत्रों में इस्तेमाल किया जा रहा था. अंग्रेजों का भी मानना था कि बर्मा और भारत के अलग होने से, बर्मा की अलग ट्रेड पॉलिसी बनाई जा सकेगी, जिससे अर्थव्यवस्था को फायदा होगा. 

दूसरी ओर, बर्मा और भारत में कई व्यापारियों का मानना था कि ऐसा करना आर्थिक हितों के लिए हानिकारक होगा. कारण कि दोनों की अर्थव्यवस्था आपस में काफी हद तक जुड़ी हुई थी. अलग होने से बर्मा को भारी खर्चा उठाना होगा. जैसे भारत सरकार बर्मा में बनाई गई रेलवे की क्षतिपूर्ति के लिए भुगतान की मांग करेगी.

अल्पसंख्यकों का डर

अल्पसंख्यक हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठनों ने भी इस अलगाव पर आपत्ति दर्ज कराई. उनकी चिंता थी कि नई अलगाववादी सरकार उनके अधिकार वापस ले लेगी और उन्हें विदेशी करार देगी. एक दूसरी आपत्ति ‘कलार’ शब्द के इस्तेमाल को लेकर भी जताई गई. इसका प्रयोग विदेशियों के लिए एक अपमानजनक शब्द के रूप में किया जाता था. खासकर दक्षिण एशिया से आए लोगों के लिए. हालांकि, इन समूहों ने ये भी कहा कि अगर अलगाव के समर्थन में बहुमत होगा तो वो रास्ते में नहीं आएंगे.

ये तो हो गई कारणों की बात. अब बात करेंगे टाइमलाइन की.

कब क्या हुआ?

1922 में बर्मा के माउंग पो बाय नाम के एक विधायक ने एक कमेटी बनाने का अनुरोध किया, जो भारत और बर्मा के अलगाव के विषय पर विचार करती. बर्मा विधान परिषद के अध्यक्ष ने इस याचिका को खारिज कर दिया. कहा कि इस याचिका को समय से पहले पेश किया गया है. ऐसी मांग तब उठाई जा सकती है जब बर्मा में एक उचित संविधान हो.

इसके बावजूद, दो साल बाद 1924 में बर्मा की विधान परिषद ने भारत से अलग होने का आह्वान करते हुए एक प्रस्ताव पारित कर दिया. इस प्रस्ताव में भारतीयों के प्रति कोई नफरत नहीं दिखाई गई. इसमें कहा गया- “एक न एक दिन बर्मा को भारत से अलग करना ही होगा. अतीत में बर्मा को भारत से कई लाभ मिले हैं. लेकिन बर्मा के लिए ये उचित नहीं है कि वो हमेशा के लिए भारत से जुड़ा रहे.”

इसके बाद आया साल- 1928. जब सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में ब्रिटिश संसद के सात सदस्यों का एक समूह भारत आया. इसी समूह को साइमन कमीशन कहा जाता है. कमीशन को बर्मा सरकार ने एक गुप्त ज्ञापन सौंपा. जिसमें इस मामले को उठाया गया. इसके बाद जनवरी 1929 में साइमन कमीशन को बर्मा भेजा गया. अंग्रेजों को दिए गए उस ज्ञापन में कहा गया कि बर्मा के लोग भारतीयों से उतने ही अलग हैं जितने कि वो अंग्रेजो से हैं. इसके पीछे तर्क दिया गया कि 1044 ईसवी तक भारत और बर्मा के बीच बहुत कम या नहीं के बराबर संपर्क था. भारतीय एक अलग समुदाय से आते हैं. उनका एक अलग इतिहास, एक अलग धर्म, अलग भाषाएं, एक अलग सामाजिक व्यवस्था, अलग रीति-रिवाज और जीवन के प्रति एक अलग नजरिया है.

उस ज्ञापन के अनुसार, तब बर्मा की जनसंख्या थी- लगभग 1 करोड़ 30 लाख. और भारत की जनसंख्या थी लगभग 24 करोड़ 70 लाख. ज्ञापन में कहा गया कि छोटी आबादी वाला बर्मा एक बड़ी आबादी वाले भारत से जुड़ा है. जिससे उसका कोई जातीय, सामाजिक या धार्मिक संबंध नहीं है.

ज्ञापन में एक राष्ट्र के रूप में भारत की अवधारणा पर सवाल उठाया गया. कहा गया कि भारत में समुदायों के बीच वास्तविक मेल नहीं हो पाया है. इसके लिए एक मुस्लिम नेता के बयान का हवाला दिया गया. जिसने 1925 में सार्वजनिक तौर पर कहा था कि जब वो एक हिंदू पड़ोसी के घर में प्रवेश करता था तो उसे किसी विदेशी सभ्यता जैसा लगता था.

इस तर्क को और अधिक पुष्ट करने के लिए भारत की जाति व्यवस्था और क्षेत्रीय मतभेदों पर भी सवाल उठाए गए. कहा गया कि जब भारत से अंग्रेज वापस जाएंगे तब क्या वहां एकजुट सेना हो सकती है. ज्ञापन में लिखा गया था कि उस समय किसी भी हाल में इस बात की कल्पना करना मुश्किल था कि मद्रासी, बंगाली, ब्राह्मण, सिख, पंजाबी और पठानों की एक ही रेजिमेंट और एक ही कंपनी में साथ-साथ भर्ती होगी.

एक-दूसरे पर निर्भर भारत और बर्मा

उस समय बर्मा लेबर और कोयले जैसी चीजों के लिए भारत पर निर्भर था. और भारत चावल, धान, पेट्रोल और सागौन के लिए बर्मा पर निर्भर था. दोनों देश आपस में जुड़े थे. इसको ध्यान में रखते हुए बर्मा की तरफ से कहा गया कि भारत से अलग होने पर कुछ समय के लिए अर्थव्यवस्था को नुकसान होगा. लेकिन उन्होंने अलगाव की मांग की. नुकसान को ध्यान में रखते हुए उन्होंने कहा है कि ये अलगाव आपसी सहमति और सद्भावना के साथ होना चाहिए. इसमें कोई नाराजगी या कड़वाहट नहीं होनी चाहिए. ये सारी बातें उस ज्ञापन में कही गईं.

फिर आया साल- 1930. जब साइमन कमीशन ने बर्मा को भारत से तुरंत अलग करने की सिफारिश कर दी. लंदन में बैठे अंग्रेजी अधिकारियों ने इस सिफारिश को मान भी लिया. लेकिन इससे पहले बर्मा में वोटिंग कराने का फैसला किया गया.

1932 का इलेक्शन

1932 में डॉ. बा माव ने एंटी-सेपरेशन लीग की स्थापना की. जिसने इस अलगाव का विरोध किया. कहा गया कि भारत से अलग होने के बाद बर्मा को अंग्रेजों की दया पर छोड़ दिया जाएगा. इसी साल आम चुनाव हुआ. इस चुनाव में एंटी-सेपरेशन वाले नेता और अलगाववादी नेता आमने-सामने थे. इस चुनाव को भारत के बर्मा के अलग होने के मुद्दे पर जनता की राय के सर्वे के रूप में देखा गया.

ये माना जा रहा था कि सेपरेशन लीग की जीत होगी. लेकिन किसी भी पक्ष को 45 सीटों का बहुमत नहीं मिल पाया. इतना ही नहीं, सेपरेशन लीग को 29 सीटें ही मिलीं. जबकि एंटी सेपरेशन लीग को 42 सीटें. इस चुनाव से ये निष्कर्ष निकाला गया कि बर्मा के ज्यादा लोग भारत से अलग नहीं होना चाहते.

हालांकि अंग्रेजों ने बर्मा के लोगों की इस राय को नकार दिया. ब्रिटिश अधिकारियों ने दावा किया कि सेपरेशन लीग को भरोसा था कि उनकी जीत होगी, लेकिन उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में ठीक से अपना प्रचार-प्रसार नहीं किया. अंग्रेजों ने माना कि बर्मा के लोग अपने मन की बात नहीं जानते. उन्होंने अलगाव और बर्मा के लिए एक विस्तृत संविधान के साथ आगे बढ़ने का फैसला लिया.

अंग्रेजों का एक डर ये भी था कि अगर उन्होंने बर्मा को भारत से अलग नहीं किया तो बड़े पैमाने पर भारत विरोधी अशांति फैल जाएगी. जिसमें सैकड़ों लोग मारे जा सकते थे.

इस तरह The Government of Burma Act 1935 लाया गया. और इस बात की पुष्टि की गई कि 1 अप्रैल 1937 से बर्मा भारत से अलग हो जाएगा. और ऐसा ही हुआ.

क्या बदला?

हालांकि, इस बदलाव से बर्मा में रहने वाले भारतीयों पर तत्काल कोई प्रभाव नहीं पड़ा. 1938 में बर्मा में एंटी इंडियन दंगे हुए. लेकिन इसके बावजूद 1942 तक रंगून जैसे शहरों में भारतीय समुदाय के लोग फलते-फूलते रहे. 1942 में विश्व युद्ध के दौरान कई भारतीयों को बर्मा छोड़ना पड़ा. लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद वे भी वापस लौट गए. आजादी के बाद बर्मा में रहने वाले भारतीयों की संख्या अच्छी खासी थी. भारतीय बर्मा में व्यापार करते थे. और रंगून पूरे भारत में एक जानी पहचानी जगह थी. ‘मेरे पिया गए रंगून’ जैसे गाने बताते हैं कि बर्मा और भारतीयों के बीच एक स्पेशल कनेक्शन हुआ करता था. 

हालांकि, साल 1962 में बर्मा में एक सैन्य तानाशाह जनरल ने सत्ता पर पकड़ बना ली. और उन्होंने भारतीयों को देश निकाला का आदेश दे दिया. भारतीय लोगों की दुकानें, उनके ऑफिस, सिनेमा घर सब बंद कर दिए गए. यहां तक कि भारतीय समुदाय के स्कूलों को भी सरकार ने हथिया लिया. इस दौरान भारतीयों को ‘कलार’ या ‘काला’ कहकर बुलाया जाता था. जो एक रंगभेदी टर्म था.

1962 में हुए शोषण के चलते कई भारतीय बर्मा छोड़कर वापस लौट आए. क्योंकि भारत जैसा भी था, एक लोकतंत्र था. साइमन कमीशन ने शक जताया था कि भारत के लोग मिलजुलकर नहीं रह सकेंगे. वक्त बेवक्त पश्चिम के कई देशों ने भी सवाल उठाया कि क्या भारतीय लोकतंत्र बना रह सकेगा. लेकिन भारत ने बार-बार ये प्रूव करके दिखाया कि यहां लोकतंत्र की जड़े पर्याप्त मजबूत हैं. सरकारें आई गईं, नेता आए गए. लेकिन ये विचार हमेशा कायम रहा कि युद्ध से शांति नहीं हो सकती. ये विचार ऐसे ही हमेशा कायम रहे.

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