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9 सेकंड, जोरदार धमाके, नोएडा के सुपरटेक ट्विन टावर गिराने की ABCD समझिए

जानिए ऐसी इमारतों को विस्फोटकों से ढहाने के लिए किस तकनीक का इस्तेमाल होता है.

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Noida Twin Tower
नोएडा के ट्विन टावर्स को गिराने की तैयारी पूरी (फोटो- इंडिया टुडे)
28 अगस्त 2022 (Updated: 28 अगस्त 2022, 16:45 IST)
Updated: 28 अगस्त 2022 16:45 IST
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नोएडा के सेक्टर-93 ए में मौजूद रियल स्टेट कंपनी सुपरटेक एमराल्ड (Supertech Emerald) के 'ट्विन टावर' (Twin Tower) को 28 अगस्त 2022 को जमींदोज कर दिया गया. दोनों टावर्स को गिराने में 3500 किलो से ज्यादा बारूद का इस्तेमाल हुआ और सिर्फ 9 सेकेंड में पूरी इमारत अपनी ही जगह पर गिर गई. इन दोनों गगनचुंबी इमारतों को क्यों ढहाया गया? किस तकनीक का इस्तेमाल किया गया? पहले इस तरह के डेमोलिशन कितना सफल रहे हैं? आज इन्हीं सब सवालों के जवाब तलाशेंगे.

मामला क्या था?

दिग्गज रियल स्टेट कंपनी सुपरटेक एमराल्ड ने नोएडा की अपनी रेजिडेंशियल सोसाइटी में 1000 फ्लैट्स वाले 40 मंजिला 2 ट्विन टावर बनाए थे. निर्माण में अनियमितता बरते जाने की बात सामने आई. जांच हुई तो दोनों टावर्स का कंस्ट्रक्शन मानकों के मुताबिक़ नहीं था. जिसके बाद साल 2014 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने टावर्स को गिराने का आदेश दे दिया. हाईकोर्ट के इस ऑर्डर को नोएडा अथॉरिटी और सुपरटेक दोनों ने सुप्रीम कोर्ट में भी चैलेंज किया था. इस दौरान तमाम जांचें और हुईं. सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत की बात सामने आई. जिनपर कार्रवाई भी हुई. सोसाइटी बनाने के लिए ग्रीन बेल्ट की जमीन पर अवैध कब्जे का खुलासा भी हुआ.

इसके बाद बीते साल सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए ट्विन टावर्स को गिराने का अंतिम आदेश जारी कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि दोनों टावर्स गिराए जाएंगे, फ़्लैट मालिकों को उनका पैसा वापस दिया जाएगा और सुपरटेक कंपनी टावर्स के गिराने में आने वाला खर्च खुद उठाएगी.

कौन-सी तकनीक इस्तेमाल हुई?

कुछ साल पहले तक ऐसी ऊंची इमारतों को गिराने के लिए ऊंची जेसीबी जैसी मशीनों का इस्तेमाल होता था और टॉप फ्लोर से नीचे तक एक-एक मंजिल को तोड़ा जाता था. साल 2010-11 में न्यूज़ीलैंड में आये भूकंप के बाद क्षत्रिग्रस्त हुई ऊंची इमारतों को तोड़ने के लिए इंग्लैंड से लाई गईं 200 फीट से भी ज्यादा ऊंची इन्हीं मशीनों का इस्तेमाल किया गया था. लेकिन इस तकनीक में वक़्त तो लगता ही था. साथ ही ये खतरे का काम भी था.

इसके अलावा साल 2008 में जापानी कंस्ट्रक्शन कंपनी ‘कजीमा’ एक तकनीक लेकर आई. इसमें कंप्यूटर ऑपरेटेड एक हाइड्रोलिक सिस्टम का इस्तेमाल होता था. जिसकी मदद से इमारत के निचले हिस्से से एक-एक करके फ्लोर्स को ढहाया जाता था. एक के बाद एक बिल्डिंग का हर फ्लोर नीचे धंसता जाता था. ये तकनीक भी काफ़ी वक़्त लेती थी. इसके बाद ऊंची इमारतों को ढहाए जाने के लिए विस्फोटकों का इस्तेमाल किया जाने लगा. ये तरीका एक्सप्लोजन यानी विस्फोट से थोड़ा अलग है. इसे नाम दिया गया है- इम्प्लोजन. नोएडा के ट्विन टावर्स को ढहाने के लिए इसी तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है. इसे समझ लेते हैं.

इम्प्लोज़न तकनीक

इम्प्लोज़न (Implosion) अंग्रेजी के Implode से बना है. शाब्दिक अर्थ प्रत्यारोपण. Explosion के उदाहरण से समझते हैं. Explode यानी बाहर की ओर विस्फोट होना. विस्फोट होने के बाद चीजें बाहर की ओर फैलती हैं. Implosion का अर्थ एकदम उल्टा. चीजें अंदर की ओर आती हैं.

इमारतों को गिराने का काम करने वाली कंपनियों के लिहाज से इसके मायने काफ़ी अलग हैं. ये ऊंची इमारतों को नियंत्रित विस्फोट के जरिए गिराने की प्रक्रिया है. मोटा-माटी समझिए तो इस पूरी प्रक्रिया में दो-तीन काम होते हैं. एक कि महीनों इसमें तोड़-फोड़ और बाकी तैयारी की जाती है. दूसरा बिल्डिंग में सैकड़ों और कई बार हजारों तक छेद किए जाते हैं, जिनमें विस्फोटक फिट किए जाते हैं और तीसरा काम होता है सेकंड्स के अंतराल पर डेटोनेटर की मदद से धमाके करना. 

इस पूरी प्रक्रिया में शुरुआती तोड़-फोड़ इस हिसाब से की जाती है बिल्डिंग का वजन कम हो जाए, हर धमाके के साथ इमारत के हिस्से वर्टीकली नीचे धंसें और मलबा इमारत के एरिया से बाहर न गिरे. सुपरटेक के ट्विन टावर्स को गिराने का जिम्मा लेने वाली कंपनी एडिफिश के पार्टनर उत्कर्ष मेहता से हमने उनकी तैयारियों पर इस साल मार्च महीने में बात की थी. उत्कर्ष ने बताया था,

'अभी अंदरूनी दीवारें तोड़ी जा रही हैं, इसके बाद बाहरी दीवारें तोड़ी जाएंगी, पूरी इमारत में करीब 7 हजार छेद किए जाएंगे, सभी कॉलम्स को तारों और जियो टेक्सटाइल फ्लैट्स से रैप किया जाएगा, ब्लास्ट के बाद उड़ने वाली डस्ट को रोकने के लिए हर फ्लोर को बाहर से कवर किया जाएगा. 8 मई तक एक्स्पोल्सिव आ जाएंगे जिन्हें फिट करने में 12 दिन का समय लगेगा. और आखिर में सभी सॉफ्ट ट्यूब्स को इंटरकनेक्ट करके ब्लास्ट कर दिया जाएगा.’

धमाके के लिए कैसे विस्फोटक इस्तेमाल किए जाते हैं?

इस पर उत्कर्ष ने हमें बताया था कि वे सॉफ्ट ट्यूब्स का इस्तेमाल करते हैं. ये प्लास्टिक की ट्यूब्स होती हैं जिनमें बारूद भरा जाता है, ये बारूद पाउडर फॉर्म में भी हो सकता है और इमल्शन भी. ट्विन टावर्स में ब्लास्ट के लिए पाउडर एक्स्प्लोसिव का इस्तेमाल किया जा रहा है.

मात्रा कितनी होगी? इस पर उत्कर्ष ने कहा था,

‘ब्लास्ट की पूरी डिजाइन साउथ अफ्रीका की ब्लास्टर कंपनी Zet Abolition ने तैयार की है. उन्हीं की निगरानी में हम इस महीने या अगले महीने ट्रायल ब्लास्ट करेंगे, जिसके बाद साउथ अफ्रीकी इंजीनियर तय करेंगे कि उन्हें हर सॉफ्ट ट्यूब में कितने ग्राम बारूद का इस्तेमाल करना है. कुल मिलाकर करीब 4000 किलोग्राम विस्फोटक की जरूरत पड़ेगी.’

इम्प्लोज़न तकनीक का इस्तेमाल ऊंची इमारतों के अलावा इंडस्ट्रीज़ की चिमनियों, सुरंगों और पुलों को ढहाने के लिए भी किया जाता है. कंट्रोल्ड डेमोलिशन की इस तकनीक के दो फायदे हैं. एक कि ऊंची से ऊंची इमारत के पूरी तरह जमींदोज होने में सिर्फ 8 से 10 सेकंड का वक़्त लगता है. दूसरा कि इसे दूसरी पुरानी तकनीकों से ज्यादा सुरक्षित माना जाता है.
ब्लास्ट के बाद पावर प्लांट की चिमनियां (फोटो सोर्स ट्विटर)
ब्लास्ट के बाद पावर प्लांट की चिमनियां (फोटो सोर्स ट्विटर)
 

इम्प्लोजन टेक्नोलॉजी से इमारतों को ढहाने से पहले दो टेस्ट किए जाते हैं. पहला है नॉन डिस्ट्रक्टिव टेस्टिंग (NDT). इस टेस्ट में बिना कोई तोड़-फोड़ किए इमारत के बारे में कई चीजें पता चलती हैं. मसलन उसकी मजबूती, इस्तेमाल किया गया बिल्डिंग मटेरियल, पिलर्स वगैरह के जॉइंट्स की लोकेशन वगैरह. साथ ही इस टेस्ट से ये भी पता चलता है कि डेमोलिशन के लिए कितने फ़ोर्स की जरूरत पड़ेगी.

और दूसरा टेस्ट है GPR यानी ग्राउंड पेनीट्रेटिंग रडार टेस्ट. इसे एक तरह से बिल्डिंग का एक्स-रे स्कैन मानिए. बिल्डिंग के अंदर बिछी पाइपलाइन, बिजली के तार और वाटर टैंक्स वगैरह की सटीक लोकेशन इसी टेस्ट से पता चलती है.

ट्विन टावर्स की बात करें तो एडिफिश ने ब्लास्ट का पूरा एक्शन प्लान तैयार किया था. जिसके मुताबिक़ टावर्स में अलग-अलग दस फ्लोर्स पर एक्सप्लोसिव चार्जेज लगाए जाने थे. धमाके के वक़्त वाइब्रेशन कम करने के लिए भी बन्दोबस्त किए जाएंगे. इस वक़्त सिर्फ पांच लोग बिल्डिंग के आस-पास रहेंगे. पूरे वक़्त आस-पास की सोसाइटी और पार्श्वनाथ प्लाज़ा से लोगों को 5 घंटे के लिए इवैक्यूएट किया जाएगा. आस-पास की सड़कों पर भी किसी को आवाजाही की इजाजत नहीं होगी.

इस पूरी प्रक्रिया के दौरान सुपरविज़न के लिए 10 विदेशी इंजीनियर बुलाए गए हैं, जिनमें से दो धमाके के वक़्त बिल्डिंग कैम्पस के आस-पास ही रहेंगे. पूरी प्रक्रिया की निगरानी का जिम्मा रुड़की के सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टिट्यूट (CBRI) को सौंपा गया है. जबकि अगले दो महीनों में मलबा हटाने का काम नोएडा अथॉरिटी और एडिफिश इंजीनियरिंग मिलकर पूरा करेंगे.

चुनौतियां क्या-क्या होती हैं?

घने बसे इलाकों में ऊंची इमारतों को गिराने के लिए सरकारी इजाजत मिलना आसान नहीं होता. बिल्डिंग के आस-पास के इमारतों को धमाके और मलबे से बचाना एक बड़ी चुनौती होती है. मिसाल के तौर पर न्यूयॉर्क में 187 मीटर ऊंची सिंगर बिल्डिंग में 47 फ्लोर्स थे. धमाका में पूरी बिल्डिंग 10 मीटर की गोलाई में ध्वस्त की गई थी. और भारत में इससे पहले केरल के मराडू टावर को भी इम्प्लोजन ब्लास्ट से ही ढहाया गया था. मराडू टावर और उसके सबसे नजदीक की बिल्डिंग के बीच दूरी सिर्फ 8 मीटर की थी. जबकि नोएडा के ट्विन टावर से करीब 9 मीटर दूर दूसरी बिल्डिंग है. इसलिए सावधानी जरूरी है.

इम्प्लोजन टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करके अभी तक सबसे ऊंची इमारत जेएल हडसन गिराई गई है. 29 मंजिला और कुल 439 फीट ऊंचाई की ये इमारत अमेरिका के मिशिगन में थी.

हालांकि ये प्रक्रिया सिर्फ एक बम धमाका करने जितनी आसान नहीं है. वैज्ञानिक आधार पर इसका पूरा स्ट्रेटेजिक ब्लूप्रिंट तैयार किया जाता है. बिल्डिंग के किस हिस्से या फ्लोर में पहले धमाका किया जाना है, कितने सेकेंड्स के बाद दूसरा धमाका होना है, ये सब पहले से तय होता है. ज़रा-सी चूक बड़ी दुर्घटना की वजह बन सकती है, मिसाल के तौर पर साल 1997 में ऑस्ट्रेलिया के रॉयल कैनबरा हॉस्पिटल को इसी तकनीक का इस्तेमाल करके ढहाया गया था. धमाके के दौरान बिल्डिंग के उड़ने वाले हिस्सों की चपेट में आकर एक बच्ची की मौत हो गई थी जबकि 9 लोग गंभीर रूप से घायल हो गए थे.

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