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संविधान सभा में आरक्षण पर बहस में किसको SC-ST माना गया?

आरक्षण की कहानी - भाग 2

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आरक्षण को लेकर होने वाली तमाम बातों के बीच कम ही लोग जानते होंगे कि भारत के संविधान में SC-ST को लेकर कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं दी गई है. (सांकेतिक फोटो- PTI)
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अमित
26 मार्च 2021 (Updated: 26 मार्च 2021, 11:41 AM IST) कॉमेंट्स
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जैसा कि आपने आरक्षण की कहानी के पहले भाग
में जाना कि छुआछूत की समस्या से भारत हजारों बरसों से जूझ रहा था. इस बीच ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले, पेरियार और शाहूजी महाराज जैसे चंद लोगों ने समाज से छुआछूत के जहर को मिटाने के बड़े प्रयास भी किए. लेकिन ये प्रयास बहुत कारगर न हो सके. दलित और पिछड़ों को हक दिलाने की कवायद का असली पड़ाव भारत की आजादी से थोड़ा पहले आया. गोलमेज सम्मेलन (1930-32) के बाद जब ब्रिटिश शासकों ने अछूत जातियों के लिए अलग से एक अनुसूची बनाई. इन्हें प्रशासनिक सुविधा के लिए अनुसूचित जातियां कहा गया. आज़ादी के बाद भारतीय संविधान में भी इस व्यवस्था को बनाए रखा गया. इसके लिए संवैधानिक (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 जारी किया गया. इसमें भारत के 29 राज्यों की 1108 जातियों के नाम शामिल किये गए थे. लेकिन इसे अमली जामा पहनाने के लिए संविधान में व्यवस्था करना जरूरी था. संविधान सभा का खाका भारत का संविधान तैयार करने का काम संविधान सभा को सौंपा गया. संविधान सभा का काम एक ऐसे संविधान की रचना करना था, जिसके जरिए देश को चलाया जा सके. इस मुश्किल काम के लिए अलग-अलग तबके और वर्ग से लोगों को संविधान सभा में शामिल किया गया. कैबिनेट मिशन की संस्तुतियों के आधार पर भारतीय संविधान का निर्माण करने वाली संविधान सभा का गठन जुलाई, 1946 में किया गया. संविधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या 389 निश्चित की गई थी, जिनमें 292 ब्रिटिश प्रांतों के प्रतिनिधि, 4 चीफ कमिश्नर क्षेत्रों के प्रतिनिधि एवं 93 देशी रियासतों के प्रतिनिधि थे. 9 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा की पहली बैठक नई दिल्ली स्थित काउंसिल चैम्बर के पुस्तकालय भवन में हुई. सभा के सबसे बुजुर्ग सदस्य डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा को सभा का अस्थायी अध्‍यक्ष चुना गया. 11 दिसंबर को मतलब दो दिन बाद ही डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को संविधान सभा का स्थायी अध्यक्ष बनाया दिया गया. भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकार बीएन राव को संविधान निर्माण की प्रक्रिया में सलाहकार बनाया गया.
22 जनवरी, 1947  को उद्देश्य प्रस्ताव की स्वीकृति के बाद संविधान सभा ने संविधान बनाने के लिए अनेक समितियां बनीं. इनमे प्रमुख थी- वार्ता समिति, संघ संविधान समिति, प्रांतीय संविधान समिति, यूनियन पावर कमेटी, प्रारूप समिति.
इसमें प्रारूप समिति के अध्यक्ष का पद डॉ भीमराव आंबेडकर, संघ संविधान समिति और यूनियन पावर कमेटी का अध्यक्ष जवाहर लाल नेहरू, प्रांतीय संविधान समिति का अध्यक्ष वल्लभ भाई पटेल और हाउस कमेटी का अध्यक्ष पट्टाभि सीतारमैया को बनाया गया. संविधान सभा में रिजर्वेशन देश का बंटवारा होने के बाद भारतीय संविधान सभा की कुल सदस्य संख्या 324 बची. इसमें 235 स्थान प्रांतों के लिए और 89 स्थान देसी राज्यों के लिए थे. संविधान सभा की तरफ से संविधान पर पहली बहस 4 नवंबर से 9 नवंबर 1948 तक चली. फिर 15 नवंबर 1948 से 17 अक्टूबर 1949 तक और इसके बाद 14 नवंबर 1949 से 26 नवंबर 1949 तक. इन बैठकों के बाद संविधान पारित किया गया. इन बैठकों में हुईं तमाम बहसों में आरक्षण के मसले पर भी बहस हुई. इस बहस में मुख्यरूप से ये सवाल सामने आए
# अंग्रेजों से आजादी के बाद भी क्या रिजर्वेशन की जरूरत है?
# रिजर्वेशन का हकदार कौन है? आखिर किसे निचली जाति माना जाए?
# रिजर्वेशन को जाति के आधार पर दिया जाए या आर्थिक आधार पर?
# रिजर्वेशन में समानता बनाम योग्यता?
# कब तक रिजर्वेशन दिया जाए?
इन सवालों के प्रकाश में ही संविधान सभा में हुई बहस से हम रिजर्वेशन को समझने की कोशिश करेंगे.
Constitution Of India
भारत के संविधान को बनाने की प्रक्रिया में आरक्षण के मसले को संविधान सभा में काफी विस्तार से चर्चा की गई .
रिजर्वेशन की जरूरत क्या है? संविधान सभा में इस सवाल को भी उठाया गया है कि अंग्रेजों के जाने के बाद भारतीय ही मिलकर देश चलाएंगे, ऐसे में क्या अब भी रिजर्वेशन की जरूरत है?
संविधान सभा ने मौलिक अधिकारों, अल्पसंख्यकों और जनजातीय तथा बहिष्कृत क्षेत्रों के लिए एक सलाहकार समिति बनाई थी. इस समिति ने 30 अगस्त 1947 को विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की सिफारिश की और संविधान सभा के सामने इस पर अपना दृष्टिकोण रखा. जब फिर से रिजर्वेशन की जरूरत पर सवाल उठा, तो मई 1949 में एक बार फिर संविधान में रिजर्वेशन की जरूरत पर पुष्टि की गई. मद्रास राज्य विधान सभा के एक निर्वाचित सदस्य और भारत छोड़ो आंदोलन में प्रमुख भागीदार रहे एस नागप्पा ने आरक्षण के समर्थन में तर्क देते हुए कहा.
देश में आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक अल्पसंख्यक मौजूद हैं. जिनके लिए आरक्षण के जरिए प्रतिनिधित्व सुरक्षित होना चाहिए. यहां तक कि आज भी, मैं आरक्षण के उन्मूलन के लिए तैयार हूं, बशर्ते हर हरिजन परिवार को 10 एकड़ दलदली जमीन, बीस एकड़ सूखी जमीन मिले. हरिजनों के सभी बच्चों के लिए विश्वविद्यालय स्तर तक की शिक्षा फ्री हो और नागरिक विभागों या सैन्य विभागों में प्रमुख पदों का पांचवां हिस्सा उन्हें दिया जाए.
संयुक्त प्रांत (आज का यूपी) विधानसभा से निर्वाचित होकर आए मोहन लाल गौतम ने उन्हें रोकते हुए कहा कहा
यदि उनके पास ऐसी जमीन हो सके, तो हर ब्राह्मण ऐसी भूमि के लिए हरिजन के साथ स्थानों की अदला-बदली करने को तैयार होगा.
इसके जवाब में नागप्पा ने तर्क दिया कि
एक हिंदू 'हरिजन' में तब तक परिवर्तित नहीं हो सकता, जब तक कि कोई दूसरों के लिए मेहतरी करने और झाड़ू लगाने के लिए तैयार न हो.
आंबेडकर संविधान का फाइनल ड्राफ्ट संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र पसाद को सौंपते हुए. इस ड्राफ्ट में समान अवसर की कसम के साथ कमज़ोर वर्गों का खास अवसर देने का वादा भी था.
डॉ.आंबेडकर संविधान का फाइनल ड्राफ्ट संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र पसाद को सौंपते हुए. इस ड्राफ्ट में समान अवसर की कसम के साथ कमज़ोर वर्गों को खास अवसर देने का वादा भी था.
रिजर्वेशन का हकदार कौन है? आखिर किसे दलित माना जाए? संविधान सभा की तमाम बैठकों के दौरान आरक्षण का मुद्दा भी उठा.  30 नवम्बर 1948 को संविधान सभा में टी. टी कृष्णामाचारी ने खड़े होकर कहा था कि
“क्या मैं पूछ सकता हूं कि भारत के किन नागरिकों को पिछड़ा समुदाय कहा जाए”
इस बैठक में धारा-10 में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान रखा गया. लेकिन सिर्फ एक वोट के अंतर से प्रस्ताव ख़ारिज हो गया.
यह भी पढ़ें- भारत में छुआछूत का गटर, जिसने रिजर्वेशन की जरूरत पैदा की

ऐसे में डॉ भीमराव अंबेडकर ने मोर्चा संभाला. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति की जगह ‘पिछड़ा वर्ग’ शब्द का इस्तेमाल किया गया. इस शब्द का ज़िक्र आते ही व्यापक बहस चली. इस पर एए गुरूंग ने टिप्पणी करते हुए कहा –
“इसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति को तो शामिल किया गया है. लेकिन शैक्षणिक और आर्थिक रूप से पिछड़ों को नहीं.”
इस पर बॉम्बे से सदस्य कन्हैया माणिकलाल मुंशी यानी केएम मुंशी ने कहा
“बंबई में कई वर्षों से ‘पिछड़ा वर्ग’ की परिभाषा प्रचलन में है. इसके अंतर्गत अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के अलावा आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को भी शामिल किया गया है. इसीलिए इस शब्द को समुदाय विशेष तक सीमित नहीं रखना चाहिए.”
Patel Munshi
संविधान सभा में केएम मुंशी ने आरक्षण के पक्ष में तर्क रखे. तस्वीर संविधान सभा की है जिसमें सरदार पटेल के साथ केएम मुंशी (राइट) मौजूद हैं.

संविधान सभा में मैसूर से सदस्य रहे टी चेन्नया ने कहा कि इस शब्द का कोई एक मायना तो निकाल ही नहीं सकते. उत्तर भारत और दक्षिण भारत में इसके अलग-अलग संदर्भ हैं. इन सब बातों के बीच संयुक्त प्रांत से सदस्य धरम प्रकाश ने उस वक्त सारी बातों को समराइज़ करने के अंदाज में कहा था –
“पिछड़े वर्ग को परिभाषित करने की ज़रूरत है. क्योंकि वास्तव में कोई ऐसा समुदाय नहीं है, जिसमें आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े लोग मौजूद न हों.”
आख़िरकार ये बात निकली कि आर्थिक आधार पर आरक्षण देना ठीक नहीं होगा. क्योंकि आरक्षण, कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है. ये छुआछूत जैसे जातिगत भेद को मिटाने का एक ज़रिया है. संविधान में जातिगत आरक्षण की व्यवस्था की गई. एससी, एसटी को आरक्षण दिया गया. कौन है एससी-एसटी? संविधान में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की कोई विशेष परिभाषा नहीं दी गई. ये निर्धारित नहीं किया गया था कि कौन-कौन व्यक्ति इन श्रेणियों में आते है. संविधान के भाग-16 के अनुच्छेद- 341 और 342 के मुताबिक राष्ट्रपति को इन जातियों को उल्लेखित करने की शक्ति दी गई. संविधान में लिखा गया है कि –
“राष्ट्रपति, राज्यपाल से परामर्श के बाद, लोक अधिसूचना द्वारा उन जातियों, मूलवंशों, जनजातियों को विनिर्दिष्ट कर सकेगा, जिन्हें अनुसूचित जातियां समझा जाएगा.”
माने राज्यपाल से विचार-विमर्श करके राष्ट्रपति स्वविवेक से अनुसूचित जातियों की परिभाषा तय कर सकेंगे. यही बात अनुसूचित जनजाति के लिए भी कही गई थी. यानी ये बात संविधान सभा में भी स्पष्ट नहीं हो सकी कि एससी-एसटी की परिभाषा क्या रखी जाए. रिजर्वेशन जाति के आधार पर दिया या आर्थिक आधार पर संविधान सभा में आरक्षण के कुछ विरोधियों ने सामाजिक पिछड़ेपन के उपचार के रूप में आरक्षण को लागू करने के खिलाफ तर्क दिया, लेकिन यह विरोध लाभार्थियों की श्रेणी को लेकर नहीं था. अल्पसंख्यकों के बारे में बनी उप-समिति के प्रमुख एचसी मुखर्जी की राय थी कि
पिछड़े समूहों के लिए उपयुक्त उपाय राजनीतिक सुरक्षा के नहीं बल्कि आर्थिक हैं.
मुस्लिम लीग से संयुक्त प्रांत विधानसभा के एक निर्वाचित सदस्य जेड एच लारी ने तर्क दिया कि
धार्मिक अल्पसंख्यकों और अनुसूचित जातियों के प्रतिनिधित्व को उनके अनुपात के आधार पर प्रतिनिधित्व दिया जाए. यानी बहु-सदस्य निर्वाचन क्षेत्रों में एक समाज के लोग अपने कैंडिडेट को वोट दें. इस तरह से संचयी वोटों की गिनती करने के जरिए से प्रतिनिधित्व सुरक्षित किया जाना चाहिए, न की आरक्षण के जरिए.
जाति के आधार पर आरक्षण का लाभ पाने के विरोध में दो महत्वपूर्ण आवाजें थीं. संयुक्त प्रांत के निर्वाचित सदस्य महावीर त्यागी और मद्रास के एक प्रोफेसर और धर्मशास्त्री जेरोम डिसूजा. इन्होंने सामाजिक पिछड़ेपन के लिए दूसरे मानदंड़ों का इस्तेमाल करने का सुझाव दिया. वर्ग-आधारित आरक्षण के एक मुखर समर्थक त्यागी ने तर्क दिया कि
अल्पसंख्यकों का वर्गीकरण आर्थिक आधार पर होना चाहिए. जिसका आधार ऐसी नौकरी हो, जिससे जीविका चलाने के लिए पर्याप्त कमाई नहीं होती है. मैं समुदाय के आधार पर अल्पसंख्यकों में विश्वास नहीं करता, लेकिन आर्थिक आधार पर, राजनीतिक आधार पर और वैचारिक आधार पर अल्पसंख्यकों का अस्तित्व होना चाहिए. मैं यह सुझाव दूंगा कि अनुसूचित जाति के स्थान पर भूमिहीन मजदूर, मोची या इसी तरह का काम करने वाले लोगों को, जिनकी कमाई जीवन जीने के लिए अपर्याप्त है, उन्हें विशेष आरक्षण दिया जाना चाहिए ...मोचियों, धोबियों और इसी तरह के अन्य वर्गों को आरक्षण के जरिए अपने प्रतिनिधि भेजने दीजिए. क्योंकि यही लोग हैं, जिन्हें वास्तव में कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है.
डिसूजा का कहना था कि
किसी व्यक्ति की जाति या धर्म को आरक्षण के लिए विशेष आधार नहीं माना जाना चाहिए. इसके बजाय निस्संदेह सामाजिक परिवेश को ध्यान में रखते हुए, व्यक्तिगत रूप से पिछड़े और जरूरतमंद को आरक्षण दिया जाना चाहिए. एक आदमी को इसलिए सहायता दी जानी चाहिए क्योंकि वह गरीब है, क्योंकि उसकी पैदाइश और परवरिश ने उसे सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षिक रूप से प्रगति करने का अवसर नहीं दिया.
लेकिन सदन का अंतिम वोट जाति के सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण के पक्ष में रहा.
Constitution Assembly B R Ambedkar
संविधान सभा में डॉ. भीमराव आंबेडर की मौजूदगी में इस बात पर भी गर्मागरम बहस हुई कि रिजर्वेशन देने का आधार क्यों न आर्थिक रखा जाए.
समता बनाम योग्यता की स्थिति संविधान सभा में आरक्षण को लेकर चल रही बहस के बीच एक वक्त तो स्थिति ये बन गई थी कि सभा दो भागों में विभाजित दिख रही थी. एक तरफ वो लोग थे, जो नौकरी में रिजर्वेशन के लिए सिर्फ योग्यता को ही आधार बनाना चाहते थे. कुछ ऐसे थे, जो मौका न दिए जाने की बात कर रहे थे.
संयुक्त प्रांत से संविधान सभा के सदस्य सेठ दामोदर स्वरूप ने कहा कि
पिछड़े वर्ग के लिए सेवाओं में आरक्षण का मतलब अच्छी और दक्ष सरकार को नकारना है. इसे लोक सेवा आयोग के फैसले पर छोड़ देना चाहिए.
उड़ीसा से संविधान सभा सदस्य शांतनु कुमार दास ने कहा की
अनुसूचित जाति के लोग परीक्षा में बैठते है, उनका नाम लिस्ट में आ जाता है, लेकिन जब पदों पर नियुक्ति का समय आता है तो उनकी नियुक्ति नहीं होती है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उच्चवर्ग के जो लोग नियुक्त होते है, उनकी जबर्दस्त सिफारिश होती है. यह सिफारिश उनकी नियुक्ति में सहायक होती है. ऐसी स्थिति में लोक सेवा आयोग के बने रहने का हमारे लिए अर्थ नहीं है.
दूसरे सदस्य जो मध्य प्रांत से आते थे, नाम था एच.जे. खाण्डेकर, उन्होंने इस बात से आपत्ति जताई. खांडेकर ने कहा कि
अनुसूचित जाति के लोग अच्छी योग्यता होने के बावजूद, नियुक्ति के अच्छे अवसर नहीं पाते है और उनके साथ जातिगत आधार पर भेदभाव किया जाता है.
आरक्षण के पक्ष में भी कम मत नहीं थे. गोपाल कृष्ण गोखले पहले ही कह चुके थे कि समाज को कुंठा से बचाने के लिए आरक्षण जरूरी है. इसी बात को संविधान सभा में डॉ आंबेडकर ने आगे बढ़ाया. कहा -
डेढ़ सौ वर्ष तक देश में अंग्रेजी शासन-व्यवस्था मजबूती से कायम रही. इसमें प्रतिनिधित्व न मिलने के कारण भारतीय सवर्ण ही अपनी क्षमताओं का उपयोग नहीं कर पा रहे थे. फिर तो भारत के दलित समाज की स्थिति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है. 
डॉ. भीमराव अंबेडकर. अंबेडकर को भारतीय इतिहास में एक प्रगतिशील समाज सुधारक का दर्जा मिला हुआ है.
संविधान सभा में जब समता बनाम योग्यता पर बहस उठी तो बी.आर आंबेडकर ने भी अपनी बात रखी.

तमाम बहस के बाद सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग को आरक्षण की बात पर सहमति बनी. आरक्षण की चर्चा भारतीय संविधान के तीसरे भाग के अनुच्छेद 15 के तहत है. भाग 3 मूल अधिकारों से संबंधित है. इसलिए कई मौकों पर ये मान लिया जाता है कि आरक्षण एक मूल अधिकार है. व्याख्याएं अलग-अलग हैं. अनुच्छेद 15 में ही शैक्षणिक और सामाजिक रूप (जिसमें एससी-एसटी शामिल) से पिछड़े लोगों के लिए आरक्षण का ज़िक्र है. कब तक रिजर्वेशन दिया जाए? संविधान सभा में इस बात पर भी बहस हुई कि आखिर कितने दिनों तक रिजर्वेशन दिया जाए. संविधान सभा के सदस्य पंडित हृदयनाथ कुंजरू का कहना था कि
“संविधान के लागू होने के बाद 10 साल तक आरक्षण लागू करने के लिए प्रावधान में कोई बाधा नहीं होगी. लेकिन ये प्रावधान अनिश्चितकाल के लिए लागू नहीं रहना चाहिए. इस प्रावधान की समय-समय पर जांच होनी चाहिए कि वास्तव में पिछड़े तबकों की स्थिति में बदलाव आ भी रहा है या नहीं? और राज्य ने उन्हें वर्तमान दशा से ऊपर उठाने के लिए और योग्य बनाने के लिए, अन्य वर्गों की बराबरी पर लाने के लिए उचित कार्यवाही की है कि नहीं? पिछड़ा वर्ग कौन होगा और कौन नहीं, यह तय करने का भार न्यायालय पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए. वास्तव में हमें विधायी मंडल में उनके प्रतिनिधित्व को सशक्त बनाने के लिए ज्यादा ठोस प्रावधान करने चाहिए.
दूसरे सदस्य पंडित ठाकुर दास भार्गव ने राय दी कि इस तरह के प्रावधान को 10 बरसों से ज्यादा का न रखा जाए. हालांकि जरूरत पड़ने पर बढ़ाया जाए. ऐसे में दूसरे सदस्य निजामुद्दीन अहमद ने 10 साल के वक्त पर सवाल उठा दिया. उन्होंने कहा कि क्या फिर 10 सालों के बाद उन लोगों को पद से रिजाइन कर देना चाहिए, जो पिछले 10 सालों में पद पर आए हैं. इस सिस्टम को अनिश्चितकालीन रखना चाहिए. हालांकि यह प्रस्ताव पास नहीं किया गया.
संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ भीमराव आंबेडकर ने इस पर अपना पक्ष रखा. उन्होंने कहा कि
जहां तक बात अनुसूचित जाति की है, तो दूसरे अल्पसंख्यकों को पहले ही लंबे वक्त से सहूलियतें मिल रही हैं. वह पहले ही लंबे वक्त तक सुविधाएं भोग चुके हैं. मुसलमान 1892 से सुविधा भोग रहे हैं. ईसाईयों को 1920 से सुविधाएं मिली हुई हैं. अनुसूचित जाति को तो सिर्फ 1937 से ही कुछ लाभ दिए जा रहे हैं. इसलिए उन्हें ज्यादा लंबे वक्त तक सुविधाएं दी जानी चाहिए. लेकिन चूंकि एक बार में 10 साल तक के लिए रिजर्वेशन का प्रस्ताव पास हो चुका है, तो मैं इसे स्वीकार करता हूं. हालांकि इसे बढ़ाने का ऑप्शन हमेशा रहना चाहिए.
इस तरह से यह तय हुआ कि हर 10 साल के बाद रिजर्वेशन की समीक्षा होगी और उसके आगे की दिशा तय की जाएगी. हालांकि पिछले 70 सालों में बिना किसी गंभीर समीक्षा के रिजर्वेशन की अवधि बढ़ाई जाती रही है.
इसके बाद संविधान ने सरकारी शिक्षण संस्थानों की खाली सीटों तथा सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्रों की नौकरियों में अनुसूचित जाति (एसी) के लिए 15% और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए 7.5% आरक्षण तय किया, जो 10 वर्षों के लिए था और उसके बाद इसके हालात की समीक्षा करने की बात कही गई.
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संविधान सभा में बहस के दौरान आंबेडकर (बीच में) ने इस बात पर जोर दिया कि आरक्षण की समयसीमा पर गंभीरता से विचार किया जाए. इसे बढ़ाने का प्रावधान रखा जाए.
राजनीति में आरक्षण और पृथक निर्वाचन मंडल नौकरियों में आरक्षण के बाद सबसे बड़ा मुद्दा था देश की राजनीति में समानता लाने का. इसके दो ही तरीके थे पहला ये कि आंबेडकर के फॉर्मूले को मानकर खास निर्वाचक मंडल अपने सदस्य चुने. दलित को दो वोट देने का अधिकार मिले. एक वोट से दलित अपना प्रतिनिधि चुनेंगे तथा दूसरी वोट से सामान्य वर्ग का प्रतिनिधि चुनेंगे. इस प्रकार दलित प्रतिनिधि केवल दलितों की ही वोट से चुना जाना था. दूसरे शब्दों में उम्मीदवार भी दलित वर्ग का तथा मतदाता भी केवल दलित वर्ग के ही. लेकिन महात्मा गांधी को यह कतई मंजूर नहीं था.
20 सितंबर 1932 को गांधी जी ने पुणे की यरवडा जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया. 24 सितम्बर 1932 को शाम पांच बजे यरवडा जेल पूना में गांधी और डॉ. आम्बेडकर के बीच समझौता हुआ, जो बाद में पूना पैक्ट के नाम से मशहूर हुआ. इस समझौते में डॉ. आम्बेडकर को कम्युनल अवॉर्ड में मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार को छोड़ना पड़ा तथा संयुक्त निर्वाचन (जैसा कि आजकल है) पद्धति को स्वीकार करना पडा, लेकिन इसके साथ हीं उन्होंने कम्युनल अवार्ड से मिली 71 आरक्षित सीटों की बजाय पूना पैक्ट में आरक्षित सीटों की संख्या बढ़ाकर 148 करवा ली.

संयुक्त निर्वाचन के इस सिस्टम को ही भारतीय संविधान में अमली जामा पहनाया गया.संविधान के अनुच्छेद 334
के अनुसार लोकसभा की 543 में से 79 सीटें अनुसूचित जाति (एससी) और 41 सीटें अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए रिज़र्व हो जाती हैं. वहीं, विधानसभाओं की 3,961 सीटों में से 543 सीटें अनुसूचित जाति और 527 सीटें जनजाति के लिए सुरक्षित हो जाती हैं. इन रिजर्व सीटों पर वोट तो सभी डालते हैं, लेकिन कैंडिडेट सिर्फ एससी या एसटी का होता है.


संविधान सभा में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए सीटें रिजर्व करने के फार्मूले को मान लिया गया. इसका वादा आंबेडकर के साथ महात्मा गांधी ने पूना पैक्ट में किया था. तस्वीर में जवाहरलाल नेहरू (लेफ्ट), राजेंद्र प्रसाद और बीआर अंबेडकर (राइट).
संविधान सभा में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए सीटें रिजर्व करने के फार्मूले को मान लिया गया. इसका वादा आंबेडकर के साथ महात्मा गांधी ने पूना पैक्ट में किया था. तस्वीर में जवाहरलाल नेहरू (लेफ्ट), राजेंद्र प्रसाद और बीआर आंबेडकर (राइट).

पृथक निर्वाचक मंडल के मसले पर भले ही महात्मा गांधी से पूना पैक्ट में किए वादे के अनुरूप व्यवस्था दी गई, लेकिन आंबेडकर और दलित नेताओं के मन में दर्द दबा रह गया. संविधान सभा में चर्चा के दौरान यह बाहर आया. अनुसूचित जनजाति के लिए संघर्ष करने वाले जसपाल सिंह ने कहा


अगर भारतीय जनता में ऐसा कोई समूह है जिसके साथ सही व्यवहार नहीं किया गया है तो वह मेरा समूह है. मेरे लोगों को पिछले 6,000 साल से अपमानित किया जा रहा है, उपेक्षित किया जा रहा है.... मेरे समाज का पूरा इतिहास, भारत के गैर-मूलनिवासियों के हाथों लगातार शोषण और छीनाझपटी का इतिहास रहा है. जिसके बीच में जब-तब विद्रोह और अव्यवस्था भी फैली है. इसके बावजूद मैं पंडित जवाहरलाल नेहरू के शब्दों पर भरोसा करता हूं. मैं आप सबके इस संकल्प का विश्वास करता हूं कि अब हम एक नया अध्याय रचने जा रहे हैं. स्वतंत्र भारत का एक ऐसा अध्याय जहां सबके पास अवसरों की समानता होगी, जहां किसी की उपेक्षा नहीं होगी.

मद्रास से आने वाले दलित सदस्य जे. नागप्पा ने कहा था,


हम सदा कष्ट उठाते रहे हैं पर अब और कष्ट उठाने को तैयार नहीं हैं. हमें अपनी जिम्मेदारियों का अहसास हो गया है. हमें मालूम है कि अपनी बात कैसे मनवानी है. ̧नागप्पा ने कहा कि संख्या की दृष्टि से हरिजन अल्पसंख्यक नहीं हैं. आबादी में उनका हिस्सा 20-25  प्रतिशत है. उनकी पीड़ा का कारण यह है कि उन्हें बाकायदा समाज व राजनीति के हाशिए पर रखा गया है. उसका कारण उनकी संख्यात्मक महत्त्वहीनता नहीं है. उनके पास न तो शिक्षा तक पहुंच थी और न ही शासन में हिस्सेदारी.

मध्य प्रांत (आज के एमपी) से आए सदस्य श्री के.जे. खांडेलकर ने कहा


हमें हजारों साल तक दबाया गया है ... दबाया गया .. इस हद तक दबाया कि हमारे दिमाग, हमारी देह काम नहीं करती और अब हमारा हृदय भी भावशून्य हो चुका है. न ही हम आगे बढ़ने के लायक रह गए हैं. यही हमारी स्थिति है.

बंटवारे की हिंसा के बाद वैसे भी आंबेडकर ने पृथक निर्वाचक मंडल की मांग छोड़ दी थी. संविधान के अनुच्छेद 334 में सीटों को रिजर्व करने की व्यवस्था पर ही सबकी सहमति बनी और सबने इसे स्वीकार किया.

अब सवाल यह है कि क्या रिजर्व सीटों से चुन कर आए नेता अपने समाज और वर्ग की आवाज बुलंद कर पाते हैं? रिजर्व सीट से चुनकर आया प्रतिनिधि क्या अपने गैर दलित वोटर और पार्टी की अवमानना करके दलितों के हितों के मुद्दे उठा सकने में सक्षम है? फिलहाल इस पर भारतीय राजनीति में कोई स्वर्णिम उदाहरण दिखाई नहीं देता है.


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